इमाम अली नक़ी (अ.) की शहादत पर ख़ास
इस दिन जब सूरज ने अपनी किरणें ज़मीन पर बिखेरीं तो इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम की शहादत की ख़बर ने बहुत सारे लोगों को शोकाकुल कर दिया। उनकी उपाधि, हादी अर्थात मार्गदर्शक थी।
इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम ने 15 ज़िलहिज्जा वर्ष 212 हिजरी क़मरी को मदीना नगर के निकट इस संसार में आंखें खोलीं। उन्होंने अपने पिता इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद 33 साल तक मुसलमानों के नेतृत्व की ज़िम्मेदारी संभाली। उनके काल में विभिन्न प्रकार के मत और आस्था संबंधी विचार सामने आने लगे थे और इस्लामी जगत में धर्म व आस्था के बारे में तरह तरह की शंकाएं पैदा होने लगी थीं। ये शंकाएं कुछ धोखा खाए हुए, अवसरवादी और अवसर से ग़लत लाभ उठाने वाले लोग, इस्लामी जगत में फैला रहे थे। अलबत्ता अब्बासी शासक भी मुसलमानों के वैचारिक व आस्था संबंधी आधारों को कमज़ोर करके अपना उल्लू सीधा करने की कोशिश में थे। यही कारण था कि इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम ने भी, जो अन्य इमामों की तरह सामाजिक, राजनैतिक और वैचारिक घटनाओं के आधार पर मुसलमानों के मार्गदर्शन और सच्चे इस्लाम की रक्षा के लिए अनेक ठोस व गंभीर क़दम उठाते थे, काम किया और पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों के ज्ञान संबंधी मतों को इस प्रकार से पेश किया कि उनके काल में भी और बाद के कालों में भी लोगों की वैचारिक और राजनैतिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहे।
इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम के काल में ईश्वर को आंखों से देखने के संभव होने या न होने, ईश्वर के साकार या निराकार होने और कर्मों में बंदे के स्वाधीन या विवश होने जैसी बहसें मुस्लिम जनमत को अपनी चपेट में लिए हुए थीं और लोगों की आस्थाओं को प्रभावित कर रही थीं इस लिए इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम ने लोगों के मार्गदर्शन के परिप्रेक्ष्य में शास्त्रार्थों और पत्रों के माध्यम से ठोस व स्पष्ट तर्क पेश करके सच्चे इस्लाम को इस्लामी समाज के सामने पेश किया। उदाहरण स्वरूप उनके एक विस्तृत पत्र का उल्लेख किया जा सकता है जिसमें उन्होंने क़ुरआने मजीद, पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों के परिचय, उनके आज्ञापालन की अनिवार्यता और इसी प्रकार कर्मों में लोगों के स्वाधीन या विवश होने जैसी गूढ़ बहसों का बड़े स्पष्ट अंदाज़ में विस्तृत उत्तर दिया है।
इमाम हादी अलैहिस्सलाम, जिनके कांधों पर इस्लामी विचारों के मार्गदर्शन की ज़िम्मेदारी थी और वे इस प्रकार के वैचारिक मतभेदों को इस्लाम के दुशमनों के हित में समझते थे, क़ुरआने मजीद के बारे में विवाद को अनुचित क़रार देते थे और अपने साथियों को इस प्रकार की बहसों में न पड़ने की सिफ़ारिश करते हुए कहते थे कि क़ुरआन के बारे में यह बहस कि वह रचना है या नहीं या पहले से मौजूद था या बाद में अस्तित्व में आया? पूरी तरह से अनुचित और धार्मिक दृष्टि से ग़लत है क्योंकि इसमें प्रश्न करने वाले को ऐसी चीज़ मिलती है जो उसके लिए उचित नहीं है और उत्तर देने वाला भी उस विषय के बारे में अपने आपको ज़बरदस्ती कठिनाई में डालता है जो उसकी क्षमता में नहीं है। रचयिता, ईश्वर के अलावा कोई भी नहीं है और उसके अतिरिक्त जो भी चीज़ है वह रचना है और क़ुरआने मजीद ईश्वर का कथन है अतः उसके लिए अपनी ओर से कोई नाम न रखो अन्यथा पथभ्रष्ट लोगों में शामिल हो जाओगे।
एक और अहम वैचारिक शंका जो इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम के काल में लोगों की आस्थाओं के लिए ख़तरा बनी हुई थी, ईश्वर के साकार होने के बारे में थी। इमाम ने बौद्धिक तर्क से इस विचार को ग़लत बताते हुए कहा कि पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों के मानने वाले ईश्वर को साकार नहीं मानते क्योंकि ईश्वर को अन्य चीज़ों के समान बताना, उसके साकार होने की कल्पना है और जो चीज़ आकार वाली होती है वह स्वयं किसी कारण का परिणाम होती है और ईश्वर इस प्रकार के उदाहरणों से कहीं उच्च है क्योंकि शरीर और आकार का स्वाभाविक परिणाम किसी समय या स्थान में सीमित होने और बुढ़ापे और कमज़ोर होने इत्यादि के रूप में सामने आता है जबकि ईश्वर के लिए इस प्रकार की बातों की कल्पना नहीं की जा सकती। ईश्वर के साकार होने की आस्था, ईसाइयत में तीन ईश्वरों का विचार सामने आने का कारण बनी है और ईसाई दो अन्य लोगों को ईश्वर का समकक्ष मानते हैं। इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम ने अपने ठोस तर्कों से मुसलमानों के बीच इस प्रकार के विचारों को फैलने से रोका। इस प्रकार की शंकाएं, एकेश्वरवाद के आधार पर हमला करती हैं जो ईश्वरीय पैग़म्बरों की सबसे पहली और सबसे अहम उपलब्धि है। इमाम अलैहिस्सलाम ने अपने काल में बेहतरीन ढंग से एकेश्वरवाद की आस्था की रक्षा की और इस के लिए उन्होंने बड़े बुनियादी कार्यक्रम तैयार किए।
इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम को अपने जीवन में हमेशा अब्बासी शासकों की कड़ाइयों का सामना करना पड़ा और लोगों के साथ उनके संपर्क में हमेशा रुकावटें डाली गईं। यही कारण था कि उन्होंने कुछ विशेष युक्तियां अपनाईं जिनमें से एक उनके वकीलों या प्रतिनिधियों का संगठन बनाना था। यह गुप्त संगठन इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के काल में गठित हुआ था और इसने गोपनीय रूप से अपनी गतिविधियां जारी रखी थीं। इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम के काल में यह संगठन एक औपचारिक और नए संगठन के रूप में ख़ास विशेषताओं के साथ सामने आया। इस अहम संगठन ने ज्ञान व धर्म की दृष्टि से लोगों की ज़रूरतों को मुख्य स्रोत तक पहुंचाने में सफलता प्राप्त की जिसका आरंभिक परिणाम वैचारिक और आस्था संबंधी संदेहों का समाप्त होना था।
इसी काल में इमाम हादी अलैहिस्सलाम ने ईरान, इराक़, यमन और मिस्र में अपने अनुयाइयों से, अपने प्रतिनिधियों और इसी प्रकार पत्रों के माध्यम से निरंतर संपर्क बनाए रखा। वे अपने प्रतिनिधियों में अनुशासन बनाए रखने के लिए हर थोड़े समय के बाद किसी प्रतिनिधि को हटाते और किसी दूसरे को नियुक्त करते थे। वे अपने आदेशों के माध्यम से उनका मार्गदर्शन भी करते रहते थे। इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम के प्रतिनिधियों ने धर्म और आस्था संबंधी मामलों में अत्यंत सकारात्मक भूमिका निभाई। कभी कभी उनमें से कोई पहचान लिया जाता और शासक के कारिंदे उसे गिरफ़्तार करके जेल में डाल देते थे। जेल में उन्हें भयावह यातनाएं दी जाती थीं जिसके चलते कुछ लोग अपनी जान से भी हाथ धो बैठते थे। अलबत्ता कुछ प्रतिनिधि ऐसे भी होते थे जो इमाम द्वारा निर्धारित दिशा से भटक जाते थे जिसके बाद इमाम उचित समय पर सही युक्ति द्वारा दूसरों को उनके स्थान पर ले आया करते थे।
सही लोगों की पहचान, उन्हें इस्लामी शिक्षाओं के आधार पर प्रशिक्षित करना और उन्हें समाज के लिए आवश्यक ज्ञान व गुण से लैस करना सभी धार्मिक नेताओं के अहम दायित्वों में शामिल है। इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम ने भी, अब्बासी शासकों की ओर से लगाए जाने वाले हर तरह के प्रतिबंधों के बावजूद जिन्होंने इमाम तक लोगों की पहुंच को रोक रखा था, अनेक लोगों का प्रशिक्षण किया। ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के अनुसार विभिन्न ज्ञानों के बारे में जिन लोगों ने इमाम नक़ी अलैहिस्सलाम से हदीसें बयान की हैं उनकी संख्या दो सौ के क़रीब है और उनमें ऐसे प्रतिष्ठित लोग भी शामिल हैं जिन्होंने अनेक ज्ञानों के बारे में किताबें लिखी हैं। अब्दुल अज़ीम हसनी भी इमाम के शिष्यों में से एक हैं। इसी तरह ख़ुरासान के रहने वाले फ़ज़्ल बिन शाज़ान भी इमाम अली नक़ी के अहम शिष्य हैं। इसके अलावा इमाम हादी के ऐसे भी शागिर्द हैं जिनकी शासन में अच्छी पैठ थी। इब्ने सिक्कीत उन्हीं लोगों में से एक हैं। वे इमाम के शिष्य थे लेकिन उन्होंने दरबार में अपना प्रभाव बनाया और वे इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम के शास्त्रार्थों में भी उपस्थित होते थे।
अपनी पूरी विभूतिपूर्ण आयु में इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम के सद्गुण और उनकी प्रतिष्ठा इस प्रकार की थी कि बनी अब्बास के अत्याचारी शासक अपनी भरपूर कड़ाई के बावजूद इमाम के मार्गदर्शन के प्रकाश को सहन नहीं कर सके। उन्होंने इस्लामी समुदाय को इमाम के विचारों से दूर रख कर समाज में बुराइयों को फैलाने की कोशिश की ताकि इस प्रकार अपने शासन को सुरक्षित रख सके लेकिन इमाम हादी अलैहिस्सलाम हमेशा, शासकों की चालों और हथकंडों से लोगों को अवगत कराते रहते थे और विभिन्न अवसरों पर अत्याचारी शासकों के चेहरे पर पड़ी नक़ाब उलटते रहते थे। यही कारण था कि अब्बासी शासक उनके अस्तित्व को अपने हितों व लक्ष्यों के लिए बहुत बड़ी रुकावट समझते थे। इमाम के प्रति उनका द्वेष विभिन्न रूपों में सामने आता रहता था। इस प्रकार से कि अब्बासी ख़लीफ़ा मोतज़ ने इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम को अपने रास्ते से हटाने का षड्यंत्र रचा। उसने वर्ष 254 हिजरी क़मरी में अपनी इस निंदनीय साज़िश को व्यवहारिक बना दिया।
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