मीट पर पाबंदी और मुसलमानों के ज़मीनी हालात
यूपी में हालात
उत्तर प्रदेश में प्रशासन के अवैध बूचड़खानों को बंद करने की कोशिश के बाद अब मांस व्यवसायियों और कसाइयों के पास ना तो काम है ना ही पैसा.
52 साल के शकील अहमद कहते हैं, "मेरी दुकान दो हफ़्ते पहले बंद हो गई और मेरे पास तब से ही पैसा नहीं है. मैं नहीं जानता कि मैं अपने बच्चों और बूढ़े मां-पिता के कहां से खाना लाउंगा."
शकील पूछते हैं, "क्या ये इसलिए कि मैं मुसलमान हूं या फिर इसलिए कि मैं मांस का काम करता हूं?"
बीते महीने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में योगी की पार्टी बीजेपी के जीतने के बाद राज्य में प्रशासन ने मीट की कई दुकानें बंद की हैं. मटन और चिकन बेचने वाली छोटी दुकानों को भी बंद किया जा रहा है.
शकील पूछते हैं, "लेकिन बकरे और भेड़ का मांस बेचने वाले छोटे दुकानदारों को क्यों परेशान किया जा रहा है? मेरे जैसे कई कसाई इस काम में दशकों से हैं और इसी से अपना घर चलाते हैं. हमें कुछ और आता ही नहीं."
वो कहते हैं कि हाल में नगर निगम के कर्मचारियों ने उनका लाइसेंस रिन्यू करने से मना कर दिया. वो बताते हैं, "वो चाहते थे कि कचरा फेंकने के लिए एक वेस्ट डिस्पोज़ल यूनिट बनाऊं, लेकिन मेरे पास इसके लिए पैसा नहीं है."
अहमद के परिवार में कुल 10 सदस्य हैं और वो शहर के घनी आबादी वाली जगह पर रहते हैं जहां मुसलमान कुरैशी समुदाय के काफी लोग हैं.
शकील की मां फातिमा बेग़म बताती हैं कि इस इलाके में रहले वाले समुदाय के लोग पारंपरिक तौर पर मीट व्यवसाय करते हैं.
वो कहती है, "इस इलाके में रहने वाले पुरुषों को कोई दूसरी काम नहीं आता. हम पहले से ही ग़रीब हैं और अब हमें ये भी नहीं पता कि खाना कहां से आएगा. वो लोग हमें मार ही डालें तो अच्छा."
फातिमा कहती हैं कि वो अब बूढ़ी हो गई हैं और उन्हें इस वजह से दवाईयां लेनी पड़ती हैं. वो कहती है, "मेरी दवाईयां भी ख़त्म हो रही हैं और मैंने अभी ये बात अपने बेटे को नहीं बताई है. वो पहले ही परेशान है, मैं उसकी परेशानी बढ़ाना नहीं चाहती."
शकील की पत्नी हुस्ना बेग़म को अपने बच्चों की चिंता सता रही है, "मैं चाहती हूं कि मेरे बच्चों को अच्छी तालीम मिले और वो ग़रीब बन कर ना रहें. अगर सरकार को लगता है की मीट की दुकानें बुरी हैं तो वो हमें कोई दूसरा काम दे दें."
वो पूछती हैं, "क्या अपने बच्चों की पढ़ाई के बारे में सोचना ग़लत हैं? "
शकील के घर से थोड़ी दूरी पर रहते हैं मोहम्मद शरीक जिन्होंने अपनी दुकान बंद कर दी है. वो कहते हैं, "मेरे पास दुकान चलाने के लिए ज़रूरी लाइसेंस है लेकिन मुझे डर है कि दक्षिणपंथी समूह हमला कर सकते हैं."
शरीक का डरना बेबुनियाद नहीं है. मीडिया में छपी ख़बरों के अनुसार बीते दो हफ्तों में राज्य में कई मीट की दुकानों पर हमले हुए हैं.
शरीक मुझे अपने घर ले गए और उन्होंने मुझसे पूछा, "ज़रा मेरे घर पर नज़र डालिए. मेरा घर पहले ही टूटा-फूटा है. मुझे दस लोगों का पेट पालना है. हमारी कमाई का एकमात्र ज़रिया था मीट बेचना, इसे बंद करना क्या सही है?"
उनके भाई पी कुरैशी और घर के अन्य सदस्य भी बातचीत में हिस्सा लेने के लिए आगे आने लगे.
कुरैशी कहते हैं, "मैं उम्मीद करता हूं और प्रार्थना करता हूं कि हमारे मुख्यमंत्री हमारी समस्याओं को समझें और लोगों को अपने नाम का ग़लत इस्तेमाल ना करने दें. हमें पता कि आधिकारिक तौर पर बकरे और भेड़ का मीट बेचना ग़ैर-कानूनी नहीं है, लेकिन फिर भी हम डरे हुए हैं. "
इस इलाके के हर घर की कहानी कुछ ऐसी ही है.
अब्दुल कुरैशी अपने साइकिल रिक्शा में जानवरों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाते हैं. वो कहते हैं, "मीट पर बैन लगाना कहां तक सही है, हिंदू भी तो मीट खाते हैं?"
झारखंड में ज़मीनी स्तर के लाहात
कुरैशी मोहल्ले की सुलेमा खातून की चार बेटियां हैं. इनका निकाह करना है. वे बीमार रहती हैं, सो दवा का खर्च भी उठाना पड़ता है.
बेटा बूचड़खाने में काम करता था. तो कुछ पैसों की कमाई हो जाती थी. दाल-रोटी का जुगाड़ भी.
कल से वह बूचड़खाना बंद है. सो, घर में एक भी रुपया नहीं आया. उन्हें इस बात की चिंता है कि अगर यही हालत रही, तो कुछ दिनों बाद खाने के लाले पड़ जाएंगे.
ऐसा झारखंड सरकार के उस आदेश के कारण हुआ है, जिसमें राज्य भर के अवैध बूचड़खानों को 72 घंटे के अंदर बंद किए जाने की बात कही गई है. गुरुवार की शाम यह मियाद भी खत्म हो जाएगी
सुलेमा खातून ने बीबीसी से कहा, "क्या करेंगे बाबू. पइसा नहीं था, तो बच्चों को पढ़ा-लिखा नहीं सके. कोई बिजनेस भी नहीं है. कोई और काम नहीं आता. हमारी तो किस्मत पर ताला लग गया है. अब क्या करें? क्या खाएं?"
उनकी पड़ोसी रमीला खातून के शौहर का कुछ साल पहले इंतकाल हुआ. बड़ा बेटा 12 साल का था. तभी से बूचड़खाने में काम पर लग गया.
उसी की कमाई से घऱ का खर्च चलता था. उन्होंने बीबीसी से कहा, "हम लोग भूख और दुख से परेशान हैं. मुसीबत काट रहे हैं. घर में आटा बचा था, तो आज खाना बन गया. कल कैसे खाएंगे, इसका पता नहीं."
उनका बेटा बूचड़खाने के लिए ठेला चलाता था. जानवरों को ढोने के एवज में वह रोज 50-100 रुपये कमा लेता था. वह कल से घर में बैठा है. कुछ पूछिए, तो बताता कम, रोता ज्यादा है.
मांस के व्यापारी तबरेज कुरैशी ने बताया कि सरकार के इस आदेश के कारण हजारों लोगों का जीवन प्रभावित हुआ है.
उन्होंने आरोप लगाया कि पूरे झारखंड में सालों से हमारे लाइसेंस का नवीनीकरण नहीं किया गया है. सरकार स्वयं इसको टालती रही है. ऐसे में रांची के सभी बूचड़खाने अवैध हो गए हैं. पूरे राज्य में भी वैध बूचड़खानों की संख्या नाममात्र की ही होगी.
तबरेज कुरैशी ने बीबीसी से कहा, "सरकार का यह निर्णय समझ में नहीं आ रहा. हमे अपने लाइसेंस के नवीनीकरण या फिर फ्रेश आवेदन के लिए कमसे कम दो महीने का समय देना चाहिए था. ताकि, हमारा रोजगार प्रभावित नहीं होता."
वो कहते हैं, "72 घंटे के अंदर दुकानों को बंद करने का आदेश देना मुनासिब नहीं है. उसमें भी तब जब 12 घंटे रात होने के कारण बीत गए और 30 मार्च को सरहुल की छुट्टी है. मतलब, हमें कुछ भी सोचने या करने के लिए वास्तविक तौर पर सिर्फ 36 घंटे ही मिले."
छुट्टी के कारण समय सीमा में रियायत नहीं
इधर झारखंड के गृह सचिव एस के जी रहाटे ने बीबीसी से कहा, "हमसे किसी अफसर ने सरहुल की छुट्टी के कारण समय सीमा में छूट देने की क्वैरी नहीं की है. लिहाजा, उन 72 घंटों की गिनती आदेश निकलने के तुरंत बाद से ही की जाएगी.
यह पूछने पर कि राज्य में कितने बूड़खाने वैध हैं, तो उन्होंने बताया कि उनके पास इसका कोई डेटा नहीं है.
गृह सचिव ने कहा कि यह डेटा नगर विकास विभाग दे सकता है. क्योंकि, लाइलेंस जारी करने का अधिकार उनके पास है.
इस बीच सरकार ने बुधवार के अखबारों में मुख्यमंत्री रघुवर दास की तस्वीर के साथ एक इस संबंधित विज्ञापन प्रकाशित कराया है.
इस विज्ञापन को पढ़ने के बाद भी यह रहस्य बरकरार रहता है कि झारखंड में कितने बूचड़खाने वैध या अवैध हैं.
(बीबीसी हिंदी)
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