बहरैन जनक्रांति की विफलता के कारण

बहरीन की जनक्रांति अपनी प्रगति और विकास के साथ साथ, कुछ आंतरिक और बाहरी बाधाओं का सामना कर रही है।

 

बहरीनी क्रांति की शुरुआत से अब तक इस आंदोलन में सभी शर्तें होने के बावजूद क्षेत्र के दूसरी क्रांतियों की तरह इस देश के लोग लोकतंत्र, भेदभाव के उन्मूलन और सरकारी ढांचे को बदलने में कामयाब नहीं हो सके हैं।

इस समस्या का कारण ऑल खलीफा की सरकारी संरचना और उनका क्रांतिकारियों से मुक़ाबले का तरीक़ा और बहरीन की रणनीतिक स्थिति और क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय हितों, और इस देश में नागरिक समाज की कमजोरी और मीडिया पर एकाधिकार की वजह से हैं।

सार्वजनिक प्रदर्शनों पर सरकार की प्रतिक्रिया:

विरोधियों की एकता और स्थिरता, और सरकार का इन विरोध प्रदर्शनों को विदेशी करार देना, और इसी तरह आले खलीफा के हाथ में इस विकल्प का न होना क्योंकि वे जानते हैं कि प्रदर्शनकारियों का मक़सद सरकार को खत्म करना है, यही कारण है कि सरकार विरोधियों की मांगों को नहीं मान रही है, और उन्हें किसी प्रकार की सुविधा नहीं देना चाहती है।

अंतरराष्ट्रीय समर्थन के माध्यम से लोगों को दबाना:

आले खलीफा सरकार संकट से बाहर निकलने के लिए सबसे अच्छा तरीका सुरक्षा तंत्र को मानती है, इसीलिए सभी मानवाधिकार संगठनों की आपत्तियों के बावजूद, बहरीन की स्थिति को राजनीतिक वास्तविकता से हटाकर सुरक्षा का मसला बना कर दिखाया जा रहा है, और यह विरोध दबाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है, जो वास्तव में बहरीन की भौगोलिक स्थिति की वजह से है, क्योंकि सरकार की नज़र में हालात को सुरक्षा का रूप देने से शियों को किसी तरह का लाभ नहीं होगा, लेकिन इससे सरकार के लिए यह संभव होगा कि आपत्तियों को दबा सके।

समाज में अराजकता और सांप्रदायिकता पैदा करना:

इस देश के प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में अहले सुन्नत में धार्मिक भय पैदा करना, जैसे कि अगर शिया इस देश में शासक हो गए तो अहले सुन्नत इस देश में सीमित हो जाएंगे या निकाल दिए जाएंगे, साथ ही अरब मीडिया द्वारा इस क्रांति को एक सांप्रदायिकता का रंग दिया जाए, ताकि यह सोच उत्पन्न हो कि शिया इस देश पर शासन करना चाहते हैं, इस तरह के क़दम से शिया और सुन्नी में दूरी पैदा होगी और यह हर क्रांति को कुचल देने की प्रष्ठभूमि बनेगी।

ईरान का रसूख बढ़ने का झूठा डर पैदा करना:

आले खलीफा द्वारा हमेशा इस बात की घोषणा करना कि ईरान देश के आंतरिक मुद्दों में हस्तक्षेप कर रहा है।

इस क्रांति को एक सांप्रदायिक रंग दिया जाए, और सोच उत्पन्न की जाए कि शिया इस देश पर शासन करना चाहते हैं, इस तरह के कदम से शिया और सुन्नी में दूरी पैदा होगी, ताकि इस माध्यम से आंतरिक समस्या को क्षेत्रीय मुश्किल में बदला जा सके।

बाहरी हस्तक्षेप:

इस देश में सार्वजनिक आपत्तियां अब इस देश तक सीमित नहीं हैं, बल्कि यह एक क्षेत्रीय मुद्दा बन गया है, खाड़ी सहयोग परिषद में सरकारी ढांचे और राजनीतिक और आर्थिक समानता के कारण इन देशों के नेताओं ने बहरीन के लिए एक संयुक्त रणनीति प्लान अपनाया हुआ है।

दूसरे शब्दों में: खाड़ी देशों के लिए यह संयुक्त खतरा है, इसलिए सभी सऊदी अरब की अध्यक्षता में एक साथ बहरीन के संकट को हल करने के लिए खड़े हैं और एक साथ एक निर्णय कर रहे हैं। सच्चाई यह है कि खाड़ी के देश बहरीन में किसी भी प्रकार के राजनीतिक बदलाव को अपने लिए खतरा मानते हैं।

खाड़ी देशों के अलावा अमेरिका और इंग्लैंड भी बहरीन में क्रांति के विरोधी हैं, इंग्लैंड ने पिछले 6 सालों से बहरीन से संपर्क की वजह से सैन्य आय अर्जित की है, इंग्लैंड बहरीन में राजनीतिक परिवर्तन पर ज़ोर डालने के बजाय उसे हथियार प्रदान कर रहा है, और विरोधियों की गिरफ्तारी और उन पर अत्याचार करने में मदद कर रहा है।

दूसरी ओर अमेरिका के पांचवें नौसैनिक बेड़े का केंद्र बहरीन के अलजफ़ीर में है, जिसकी वजह से अमेरिका ने कभी भी बहरीन में विरोध प्रदर्शनों का समर्थन नहीं किया है, और इस देश में मानव अधिकारों के उल्लंघन पर कभी आपत्ति नहीं है।

अमेरिका जानता है कि बहरीन में जनता के वोट से बनने वाली सरकार, जनता की मर्ज़ी के अनुसार अपनी राजनीति करेगी और विदेशी नीतियों को बनाने में जनता की सोच का ध्यान रखेगी, और यह इस क्षेत्र में अमेरिकी हितों को नुकसान पहुंचा सकती है।

मीडिया का ध्रुवीकरण और प्रेस स्वतंत्रता का न होना:

इस देश के मीडिया में बहरीनी क्रांतिकारियों और पत्रकारों, नेटवर्क और मीडिया संगठनों पर प्रतिबंध है और केवल दो चैनल अलअरबिया और अल जज़ीरा खाड़ी सहयोग परिषद के लक्ष्यों के अनुसार बहरीन के हालात की तस्वीर पेश करते हैं, कि यह विरोध प्रदर्शन ईरान के हस्तक्षेप और शिया समुदाय की ओर से हैं।

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