पैग़म्बरे इस्लाम और उनके काल की विशेषताएं, अमीरुल मोमिनीन की ज़बानी
पैग़म्बरे इस्लाम और उनके काल की विशेषताएं, अमीरुल मोमिनीन की ज़बानी
यह उन ख़ुत्बों में से है जिन में ज़माने के हवादिस (दुर्घटनाओं) और फ़ितने (उपद्रवों) का तज़किरा है ]
तमाम हम्द उस अल्लाह के लिये है जो अपनी मख़लूक़ात की वजह से मख़लूक़ात के सामने अयां (प्रकट) है। उस ने बग़ैर सोंच विचार में पड़े मख़लूक़ को पैदा किया। इस लिये कि ग़ौर व फ़िक्र उस के मुनासिब (उचित) हुआ करती है जो दिलो दिमाग़ जैसे अअज़ा (अंग) रखता हो। और वह दिलो दिमाग़ की एह्तियाज (आवश्यकता) से बरी है। उस का इल्मे ग़ैब (परोक्ष) के पर्दों में सरायत (प्रवेश) किये हुए हैं। औऱ अक़ीदों (विश्वासों) की गहराईयों की तह तक उतरा हुआ है।
[ इसी ख़ुत्बे का यह जुज़ (अंश) नबी (स.) के मुतअल्लिक़ है ]
उन्हें अंबिया (नबीयों) के शजरे (वंशावली) रौशनी के मर्कज़ (प्रकाश के केन्द्र) अर्थात आले इबराहीम (अ.स.), बलन्दी की जबीं (मस्तक) अर्थात कुरैश, बत्हा की नाफ़ (नाभी) अर्थात मक्का, और अंधेरे के चिराग़ों और हिकमत (बुद्धिमता) के सरचश्मों से मुनतख़ब (चयन) किया।
[ इस ख़ुत्बे का यह हिस्सा भी रसूल (स.) ही से मुतअल्लिक़ है )
वह एक तबीब (चिकित्सक) थे जो अपनी हिकमत व तिब (उपाय व चिकित्सा) को लिये हुए चक्कर लगा रहा हो। उस ने अपने मर्हम ठीक ठाक कर लिये हों। और दाग़ने के आलात तपा लिये हों। वह अपने अंधे दिलों, बहरे कानों, गुंगी ज़बानों के इलाज मुआलिजे में ज़रूरत होती है उन चीजों को इस्तेमाल (प्रयोग) मे लाता हो, और दवा लिये ग़फ़लत ज़दा (निश्चेतना में डूबे) और हेरानी व परेशानी के मारे हुओं की ख़ोज में लगा रहता हो। मगर लोगों ने न तो हिकमत की तनवीरों से ज़िया व नूर हासिल किया, और न उलूमे दुरुख़शां (चमकती विद्याओं) के चक़माक़ को रगड़ कर नूरानी शोले पैदा किया।
वह इस मुअमिले में चलने वाले हैवानों (पशुओं) और सख़्त पत्थरों के मानिन्द (समान) हैं अहले बसीरत (देखने वालों) के लिये छिपी हुई चीज़ें ज़ाहिर (प्रकट) हो गई हैं और भटकने वालों के लिये हक़ की राह वाज़ेह (स्पष्ट) हो गई, और आने वाली साअत ने अपने चेहरे से नक़ाब उलट दी और ग़ोर से देखने वालों के लिये अलामतें (लक्षण) ज़ाहिर (प्रकट) हो चुकी हैं। लेकिन में तुम्हें देखता हूं कि पैकरे बेरुह (बिना आत्मा की आकृति) और रूहे बेक़ालिब (शरीर रहित आत्मा) बने हुए हो। आबिद बने फिरते हो बग़ैर सलाहो तक़्वा के, और ताजिर (व्यापारी) बने हुए हो बग़ैर फ़ायदों (बिना लाभ) के, बैदार हो (जागते हो) मगर सो रहे हो, हाज़िर (उपस्थित) हो मगर ऐसे जैसे ग़ायब (अनुपस्थित) हो।
देखने वाले हो मगर अंधे, सुनने वाले हो मगर बहरे, बोलने वाले हो मगर गूंगे। गुमराही का झंण्डा तो अपने मक़ाम पर जम चुका है। और उस की शाख़ें हरसू (हर ओर) फ़ैल गई हैं। तुम्हें (तवाह करने के लिये) अपने पैमानों (मापदण्डों) में तोल रहा है और अपने हाथों से तुम्हें इधर उधर भटका रहा है। उस का पैशरो (अगुवा) मिल्लते इस्लाम से ख़ारिज है और गुमराही पर डटा खड़ा है।
उस दिन तुम में से कोई नहीं बचेगा, मगर कुछ गिरे हुए रेज़े (कण) वह गुमराही तुम्हें इस तरह मसल डालेगी जिस तरह चमड़े को मसला जाता है और इस तरह रौंदेगी जिस तरह कटी हुई ज़िराअत (फ़स्ल) को रौंदा जाता है। और मुसीबत व इबतिला (आपत्ति एवं संकट) के लिये तुम में से मोमिने कामिल को इस तरह चुन लेगी जिस तरह परिन्दा (पक्षी) बारीक दानों में से मोटे दाने को चुन लेता है। यह ग़लत रविशें (चालें) तुम्हें कहां लिये जा रही हैं। और यह अंधियारियां तुम्हें किन परेशानियों में डाल रही हैं। और यह झूटी उम्मीदें तुम्हें काहे का फ़रेब दे रही हैं। कहां से लाए जाते हो और किधर पलटाए जाते हो ? हर मीआद (अवधि) का एक नविश्ता (लेख) होता है। और हर ग़ायब (परोक्ष) को पलट कर आना है। अपने आलिमे रब्बानी से सुनो !
अपने दिलों को हाज़िर करो। अगर तुम्हें पुकारे तो जाग उठो। क़ौम के नुमाइन्दे (जन प्रतिनिधि) को तो अपनी क़ौम (जनता) से सच ही बोलना चाहिये। और अपनी परीशां ख़ातिरी में यक्सूई (एकाग्रता) पैदा करना और अपने ज़हन को हाज़िर रखना चाहिये। चुनांचे उस ने हक़ीक़त (यथार्थ) को इस तरह वाशिग़ाफ़ (स्पष्ट) कर दिया है जिस तरह धागे में पिरोए जाने वाले मोहरे को चीर दिया जाता है, और इस तरह इसे तह से छील डाला है जैसे दरख़्त (वृक्ष) से गोंद। बावजूद इस के कि बातिल फिर अपने मर्कज़ (केन्द्र) पर आ गया और जिहालत (अज्ञान) अपनी सवारियों पर चढ़ बैठी।
उस की तुग़यानियां बढ़ गई हैं, और हक़ की आवाज़ दब गई है, और ज़माने ने फाड़ खाने वाले दरिन्दे (हिंसक जन्तु) की तरह हमला (आक्रमण) कर दिया है। और बातिल का ऊंट चुप रहने के बाद फिर बिलबिलाने लगा है। लोगों ने फ़िस्क़ो फ़ुजूर पर आपस में भाईचारा कर लिया है। और दीन के सिलसिले में उनमें फूट पड़ी हुई है। झूट पर तो एक दूसरे से याराना गांठ रखा है। और सच के मुआमले में बाहम कुदूरतें (परस्पर इर्ष्या) हैं। ऐसे मौक़े पर बेटा आंखों की ठंडक होने के बजाय ग़ैज़ो ग़ज़ब (क्रोध व आक्रोश) का सबब (कारण) होगा और बारिशें गर्मी व तपिश का।
कमीने फैल जायेंगे और शरीफ़ घटते जायेंगे। उस ज़माने के लोग भेड़िये होंगे और हुक्मरान (शासक) दरिन्दे (हिंसक जन्तु) दरमियानी तबक़े (मध्यम वर्ग) के लोग खा पी कर मस्त रहने वाले और फ़क़ीरो नादार बिलकुल मुर्दा। सच्चाई दब जायेगी और झूट उभर आयेगा। महब्बत के अलफ़ाज़ (प्रेम के शब्द) सिर्फ़ ज़बानों पर आयेंगे और दिलों में एक दूसरे से कशीदा (खिंचे) रहेंगे। नसब का मेयार (मापदण्ड) ज़िना (बलात्कार) होगा। इफ्फ़त व पाक दामनी निराली चीज़ समझी जायेगी। और इस्लाम का लिबादा पोस्तीन की तरह उलटा ओढ़ा जायेगा।
(नहजुल बलाग़ा ख़ुतबा 106)
नई टिप्पणी जोड़ें