ज़ायोनी शासन की समाप्ति के लक्षण दिखाई देने लगे हैं: आयतुल्लाह ख़ामेनेई
तेहरान में छठीं अंतर्राष्ट्रीय फ़िलिस्तीन कान्फ़्रेन्स का आयोजन हुआ जिसका उदघाटन इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामेनई के भाषण से हुआ।
इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता ने अपने भाषण में कहा कि फ़िलिस्तीन की कहानी और फ़िलिस्तीनी जनता की सहनशीलता, प्रतिरोध और मज़लूमियत हर न्यायप्रेमी और स्वतंत्रता प्रेमी इंसान को दुखी कर देती है।
इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता ने कहा कि इतिहास के किसी भी भाग में दुनिया का कोई भी राष्ट्र एसे अत्याचारी से रूबरू नहीं हुआ कि बाहर से रची जाने वाली साज़िश के तहत पूरे देश पर क़ब्ज़ा कर लिया जाए, वहां की जनता को निर्वासित कर दिया जाए और उसके स्थान पर दुनिया भर से एकत्रित करके एक समूह को बसा दिया जाए। इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता ने कहा कि यह भी इतिहास का एक काला अध्याय है जो अन्य काले अध्यायों की तरह ईश्वर की कृपा से बंद हो जाएगा।
इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता ने कहा कि यह सम्मेलन अत्यंत कठिन क्षेत्रीय व अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में आयोजित हो रहा है। हमारा यह क्षेत्र जो फ़िलिस्तीनी जनता के संघर्ष का समर्थक रहा है, इन दिनों हिंसा तथा विभिन्न संकटों में फंसा हुआ है। उन्होंने कहा कि क्षेत्र के अलग अलग संकटों के कारण फ़िलिस्तीन का विषय प्रभावित हुआ है। इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता ने कहा कि इन संकटों पर विचार करने से हमें समझ में आता है कि इन से लाभ उठाने वाली शक्तियां कौन हैं? वही हैं जिन्होंने इस क्षेत्र में ज़ायोनी शासन का गठन किया है ताकि एक दीर्घकालिक टकराव थोप कर इस क्षेत्र की स्थिरता और उन्नति का रास्ता रोक दें।
इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता ने कहा कि फ़िलिस्तीनी राष्ट्र के राजनैतिक समर्थन की कदापि उपेक्षा नहीं करना चाहिए। अलग अलग वैचारिक रुजहान और स्वभाव के मुस्लिम राष्ट्र और सभी स्वतंत्रता प्रेमी एक लक्ष्य पर एकत्रित हो सकते हैं और वह लक्ष्य है फ़िलिस्तीन तथा उसकी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष की अनिवार्यता।
इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता ने कहा कि ज़ायोनी शासन के बिखराव के लक्षण स्पष्ट होते जा रहे हैं और उसके समर्थकों विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका पर छाने वाली कमज़ोरी के बाद देखने में आ रहा है कि धीरे धीरे माहौल भी ज़ायोनी शासन की शत्रुतापूर्ण, ग़ैर क़ानूनी और ग़ैर इंसानी कार्यवाहियों से मुक़ाबले की ओर बढ़ रही हैं।
इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता ने कहा कि फ़िलिस्तीनी जनता का बर्बरतापूर्ण दमन, बड़े पैमाने पर गिरफ़तारियां, जनसंहार, भूमियों पर क़ब्ज़ा और वहां यहूदी बस्तियों का निर्माण, बैतुल मुक़द्दस और मुस्जिदुल अक़सा में इस्लामी व ईसाई धार्मिक स्थानों की पहिचान बदलने की कोशिशें और दूसरे बहुत से अत्याचार जारी हैं और इन अत्याचारों को अमरीका तथा कुछ पश्चिमी सरकारों का समर्थन प्राप्त है।
इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता ने कहा कि फ़िलिस्तीनी राष्ट्र ने जो अंतर्राष्ट्रीय ज़ायोनिज़्म और उसे धूर्त समर्थकों से मुक़ाबले को बोझ अकेले उठाए हुए है, बड़े बड़े दावे करने वालों को एक अवसर दिया कि वह अपने दावों को व्यवहारिक करें।
इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता ने कहा कि जिस ज़माने में यथार्थवाद के नाम पर और न्यूनतम अधिकारों को भी हाथ से निकल जाने से बचाने के नाम पर ज़ायोनी शासन से संधि का प्रस्ताव पेश किया गया, फ़िलिस्तीनी जनता यहां तक कि उन संगठनों ने भी जिनकी नज़र में इस प्रस्ताव की विफलता पहले से ही निश्चित थी, इसे एक अवसर दिया। अलबत्ता इस्लामी गणतंत्र ईरान ने शुरू से ही इस विचार को ग़लत ठहराया और उसके विनाशकारी परिणामों की ओर से सचेत किया। उन्होंने कहा कि इस शैली को जो अवसर दिया गया उससे फ़िलिस्तीनी जनता के संघर्ष को नुक़सान पहुंचा लेकिन इसका फ़ायदा यह हुआ कि यथार्थवाद की कल्पना का ग़लत होना साबित हो गया।
इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता ने कहा कि ज़ायोनी शासन से सांठगांठ की शैली की ख़राबी केवल यह नहीं थी कि इसमें एक राष्ट्र के अधिकार को नज़रअंदाज़ करके अतिग्रहणकारी शासन को औपचारिकता दे गई, बल्कि इसकी सबसे बड़ी ख़राबी यह है कि फ़िलिस्तीन की वर्तमान स्थिति से इसकी कोई समानता नहीं है।
इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता ने कहा कि फ़िलिस्तीनी राष्ट्र तीन दशकों के दौरान दो अलग अगल माडल आज़मा चुका है और समझ चुका है कि कौन सा माडल उसकी स्थिति से किस सीमा तक समन्वय रखता है। सांठगाठ की शैली के मुक़ाबले में दूसरी शैली इंतेफ़ाज़ा आंदोलन और संघर्ष की शैली है जिसने इस राष्ट्र को महान उपलब्धियों से संपन्न किया है। उन्होंने अपने भाषण में कहा कि यह समझने की ज़रूरत है कि अगर संघर्ष का रास्ता न अपनाया जाता तो आज क्या हालत होती? संघर्ष की सबसे बड़ी सफलता यह रही कि ज़ायोनी शासन की बड़ी योजनाएं ठप्प पड़ गईं। इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता ने कहा कि संघर्ष ने पूरे क्षेत्र पर क़ब्ज़ा कर लेने के ज़ायोनी शासन के इरादों को नाकाम कर दिया।
इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता ने अतीत के युद्धों का हवाला देते हुए कहा कि वर्ष 1973 के युद्ध में सीमित स्तर पर ही सही जो सफलताएं मिलीं उनमें संघर्ष की भूमिका को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता।
इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता का कहना था कि वर्ष 1982 से संघर्ष का दायित्व व्यवहारिक रूप से फ़िलिस्तीन के भीतर मौजूद जनता के कंधों पर आ गया, इसी बीच लेबनान के इस्लामी प्रतिरोध आंदोलन हिज़्बुल्लाह का उदय हुआ जो फ़िलिस्तीनियों के संघर्ष में मददगार बना।
इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता ने कहा कि दक्षिणी लेबनान की आज़ादी, गज़्ज़ा की आज़ादी वास्तव में फ़िलिस्तीन को पूरी तरह आज़ाद करवाने के चरणबद्ध संघर्ष के दो महत्वपूर्ण अध्याय समझे जाते हैं। उन्होंने कहा कि 80 के दशक के आरंभ से लेकर बाद के समय तक ज़ायोनी शासन न केवल यह कि नए क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा नहीं कर सका बल्कि दक्षिणी लेबनान से उसे पीछे हटना पड़ा और यह पक्रिया गज़्ज़ा से ज़ायोनी शासन के निष्कासन के रूप में आगे बढ़ी।
इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामेनई ने कहा कि 33 दिवसीय लेबनान युद्ध में लेबनान की जनता और हिज़्बुल्लाह के जवानों तक सहायता पहुंचाने के सारे रास्ते बंद हो गए थे लेकिन ईश्वर की कृपा से और लेबनान की महान जनता की अपार क्षमताओं की मदद से ज़ायोनी शासन और उसके असली समर्थक अमरीका को शर्मनाक पराजय का मुंह देखना पड़ा और अब वह आसानी से इस इलाक़े पर हमले की हिम्मत नहीं कर पाएंगे।
आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामेनई ने कहा कि गज़्ज़ा के क्षेत्र का प्रतिरोध जो अब प्रतिरोधक मोर्चे का अजेय दुर्ग बन चुका है बार बार होने वाले युद्धों में साबित कर चुका है कि ज़ायोनी शासन के पास एक राष्ट्र की इच्छ शक्ति के सामने टिकने की शक्ति नहीं है।
इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता ने कहा कि ज़ायोनी शासन के अस्तित्व से पैदा होने वाले ख़तरों की कदापि उपेक्षा नहीं करना चाहिए, इस लिए प्रतिरोधकर्ता मोर्चे को अपना संघर्ष जारी रखने के लिए सभी ज़रूरी संसाधनों से संपन्न किया जाना चाहिए और इस संबंध में क्षेत्र के सभी राष्ट्रों, सरकारों तथा दुनिया भर के स्वतंत्रता प्रेमियों की ज़िम्मेदारी है कि इस साहसी राष्ट्र की सारी ज़रूरतें पूरी करें और इस सिलसिले में पश्चिमी तट के क्षेत्र के प्रतिरोधकर्ता मोर्चे की मूल आवश्यकताओं की ओर से भी निश्चेत नहीं रहना चाहिए जो इस समय अपने कंधे पर इंतेफ़ाज़ा आंदोलन का बोझ उठाए हुए है।
इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता ने कहा कि फ़िलिस्तीनी प्रतिरोधक संगठनों को भी चाहिए कि अतीत से पाठ लेते हुए इस बिंदु पर ध्यान दें कि वह इस्लामी या अरब देशों के आपसी विवादों में और समुदायों के सांप्रदायिक झगड़ों में न पड़ें।
इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामेनई ने कहा कि जो संगठन भी ज़ायोनी शासन के विरुद्ध संघर्ष में डटा रहेगा हम उसके साथ हैं और जो संगठन भी इस रास्ते से हटा वह हमसे दूर हो गया।
इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता ने फ़िलिस्तीनी संगठनों के आपसी मतभेद के बारे में कहा कि संगठनों में विचार की विविधता के कारण मतभेद स्वाभाविक है लेकिन समस्या तब पैदा होती है जब यह मतभेद आपसी टकराव में बदल जाएं।
नई टिप्पणी जोड़ें