नेमतों पर अल्लाह का शुक्र अदा करना
नेमतों पर अल्लाह का शुक्र अदा करना
आपको याद होगा कि ईश्वर का आभार तीन चरणों में व्यक्त किया जाता है। मन, ज़बान और व्यवहार। मन से आभार व्यक्त करने का तरीक़ा यह है कि मन में ईश्वर की अनुकंपाओं व नेमतों को सदैव याद रखा जाए और मन से अनुकंपाओं का सम्मान किया जाए और स्वंय को ईश्वर की महानता के समाने तुच्छ समझा जाए। मन बड़े कामों और विभिन्न प्राणियों के बारे में सोच विचार करे और ईश्वर के बंदों के साथ भलाई करते हुए विनम्रता अपनाए।
ज़बान का शुक्र यह है कि अनुकंपा देने वाले ईश्वर का यथासंभव गुणगान किया जाए।
तीसरा चरण व्यवहार से आभार व्यक्त करना है और इसके लिए मनुष्य को चाहिए कि वह ईश्वर की ओर से दी गयी अनुकंपाओं से उसकी अवज्ञा न करे बल्कि ईश्वरीय अनुकंपाओं से उसके आज्ञापालन में सहायता ले।
हर अनुकंपा को उपयोग करना उसका व्यवहारिक रूप से आभार व्यक्त करना है। उदाहरण स्वरूप आंख ईश्वर की महाअनुकंपाओं में से एक है। ईश्वर द्वारा पैदा की गयी चीज़ों को देखने से हमारा आत्मज्ञान बढ़ता है। इस अनुकंपा की अकृतज्ञता उस समय होगी जब हम आंखों को पाप से दूषित करें। इसी प्रकार ज़बान का व्यवहारिक आभार व्यक्त करने का तरीक़ा यह है कि इससे वास्तविकता का उल्लेख करे और ईश्वर की वंदना करे और ज़बान से झूठ बोलना, दूसरों की बुराई करना और उन पर लांछन लगाना, ज़बान से ईश्वर की अकृतज्ञता है।
यदि कोई व्यक्ति ईश्वर की अनुकंपाओं का आभार व्यक्त करना चाहता है तो सबसे पहले ईश्वर की अनुकंपाओं की पहचान प्राप्त करना ज़रूरी है क्योंकि ईश्वरीय अनुकंपाएं बहुत अधिक हैं। जैसा कि पवित्र क़ुरआन के नहल नामक सूरे की आयत संख्या 18 में ईश्वर कह रहा हैः यदि ईश्वर की अनुकंपाओं को गिनना चाहो तो कभी भी नहीं गिन पाओगे।
प्रायः मनुष्य भौतिक अनुकंपाओं पर ध्यान देता है जबकि आत्मिक अनुकंपाएं सबसे बड़ी अनुकंपा है। जैसे ईश्वर पर आसथा और सत्य के मार्ग पर होना। पवित्र क़ुरआन के बक़रह नामक सूरे में ईश्वर मोमिनों को पवित्र व स्वच्छ अनुकंपाओं से लाभ उठाने के लिए प्रेरित करते हुए उनसे चाहता है कि वे उसका आभार व्यक्त करें।
मनुष्य को चाहिए कि वह अनुकंपा को पहचानने के बाद उसके वास्तविक दाता को पहचाने। हमें इस बिन्दु पर भी ध्यान देना चाहिए कि यदि किसी दूसरे व्यक्ति ने हमारे साथ भलाई की है या कोई अनुकंपा दी है तो हमें चाहिए कि पहले ईश्वर का आभार व्यक्त करें और फिर भलाई करने वाले का आभार व्यक्त करे क्योंकि ईश्वर ने उस व्यक्ति को प्रेरित किया तब उसने हमारे साथ भलाई की है। उसके बाद मनुष्य को चाहिए कि अपनी ज़बान, मन और व्यवहार से ईश्वर का आभार व्यक्त करे और व्यवहार से ईश्वर का आभार व्यक्त करना आभार व्यक्त करने के दूसरे तरीक़ों से अधिक महत्व रखता है। यह संभव है कि कोई व्यक्ति ज़बान से ईश्वर का आभार व्यक्त करे किन्तु व्यवहार से वह ईश्वर के प्रति अकृतज्ञता करे तो ऐसी स्थिति में ज़बान से ईश्वर के प्रति आभार व्यक्त करने का कोई महत्व नहीं रह जाता।
मनुष्य को चाहिए कि हर स्थिति में हर चीज़ के लिए ईश्वर का आभार व्यक्त करे किन्तु पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के कथनों में विशेष अवसरों पर ईश्वर का आभार व्यक्त करने पर बल दिया गया है। इस संदर्भ में इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने कई अवसरों का उल्लेख किया है। स्वस्थ होने की स्थिति में, दूसरों को दान-दक्षिणा करते समय, अनुकंपा से संपन्न होने के समय और इसी प्रकार जब यह देखे कि दूसरों के पास वह अनुकंपा नहीं है जो उसके पास है। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैः जब यह देखो कि तुम्हारे पास कोई नेमत है और दूसरा उस नेमत से वंचित है तो कहोः प्रभुवर! मैं वंचितों का मखौल नहीं उड़ाता, फूले नहीं समाता बल्कि तेरी उन नेमतों के लिए आभार व्यक्त करता हूं जो तूने मुझे प्रदान की हैं।
इस बात में संदेह नहीं कि ईश्वर का आभार व्यक्त करने का मनुष्य के जीवन पर अनेक प्रभाव पड़ता है। ये प्रभाव एक ओर ईश्वरीय अनुकंपाओं का आभार व्यक्त करने के महत्व को स्पष्ट करते हैं तो दूसरी ओर लोगों को इस काम के लिए प्रेरित कर सकते हैं।
ईश्वर का आभार व्यक्त करने का लाभ यह होता है कि मनुष्य उसकी अनुकंपाओं से परिपूर्णतः तक पहुंचने के लिए लाभ उठा सकता है। यही कारण है कि नमल नामक सूरे की आयत क्रमांक 40, लुक़मान नामक सूरे की आयत संख्या 12 और ज़ुमर नामक सूरे की आयत नंबर 7 में ईश्वर कह रहा है कि मनुष्य की ओर से उसका आभार व्यक्त किए जाने का लाभ स्वयं उसी को मिलता है।
ईश्वर का आभार व्यक्त करने का एक लाभ यह है कि इससे अनुकंपाओं में वृद्धि होती है। जैसा कि ईश्वर पवित्र क़ुरआन के इब्राहीम नामक सूरे की सातवीं आयत में कह रहा हैः यदि आभार व्यक्त करोगे तो तुम्हारे लिए अनुकंपाएं बढ़ा दूंगा।
पवित्र क़ुरआन की इस आयत में व्यवहारिक रूप से आभार व्यक्त करने की बात कही गयी है और यह कि व्यक्ति को चाहिए कि उसे देखने, और सुनने सहित दूसरी विदित व निहित तथा भौतिक व आत्मिक अनुकंपाओं का सही लाभ उठाना चाहिए और उससे परिपूर्णतः के मार्ग पर बढ़ने के लिए लाभान्वित हो। ईश्वर की अनुकंपाओं से सही लाभ उठाने से मनुष्य की छिपी हुयी क्षमताएं निखरती हैं। वास्तव में ईश्वर कह रहा है कि उसकी अनुकंपाओं के सदुपयोग से मनुष्य की क्षमताएं निखरती हैं। दूसरे शब्दों में ईश्वर का आभार व्यक्त करना, उसकी अनुकंपाओं से अधिक से अधिक लाभ उठाने का कारण बनता है और इसके विपरीत ईश्वर की अनुकंपाओं के प्रति अकृतज्ञता उसकी अनुकंपाओं के छिनने का कारण बनता है।
अनुकंपाओं का बाक़ी रहना, क्षमताओं का निखरना, ईश्वर की प्रसन्नता, कर्मों व उपासनाओं की स्वीकृति, मुक्ति, ईश्वरीय प्रकोप से स्वतंत्रता और ईश्वरीय इम्तेहान में सफलता, उसका आभार व्यक्त करने के अन्य लाभ हैं कि इसकी ओर पवित्र क़ुरआन में संकेत किया गया है। पवित्र क़ुरआन में ईश्वर का आभार व्यक्त करने तथा विकास और मानव सभ्यता के फलने फूलने के बीच गहरा संबंध बताया गया है और पवित्र क़ुरआन आराफ़ नामक सूरे की 57वीं और 58वीं आयत में ईश्वर की कृपा से ज़मीन का फिर से जीवित होने तथा विकास में वृद्धि को उसके आभार का अपरिहार्य परिणाम कहा गया है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि ईश्वर की अनुकंपाओं में वृद्धि और क्षमताओं के निखारने के लिए उसकी अकृतज्ञता से बचे।
कृपालु ईश्वर का आभार व्यक्त करने से मनुष्य के भीतर आत्मिक व मनोवैज्ञानिक परिवर्तन आता है। ईश्वर का आभार व्यक्त करने से मन उसकी ओर उन्मुख होता है। ईश्वर से ऐसा संबंध बनाने से न केवल यह कि मनुष्य की आत्मिक आवश्यकता पूरी होती है बल्कि उसके आत्मनिर्माण की भूमि भी समतल होती है।
ईश्वर का आभार व्यक्त करना मनुष्य के स्वस्थ मन की निशानी है क्योंकि आभार व्यक्त करने वाला ईश्वर की पहचान के उस स्तर पर पहुंच गया है कि उसकी अनुकंपाओं को समझ सके। आभार व्यक्त करना व्यक्ति की स्वस्थ भावना को भी दर्शाता है क्योंकि अनुकंपा देने वाले का आभार व्यक्त करना यह बताता है कि आभार व्यक्त करने वाला घमंड, कंजूसी और ईर्ष्या जैसी आत्मिक बुराइयों में ग्रस्त नहीं है। यह मन के स्वस्थ रहने का एक चरण है। व्यवहार और ज़बान से आभार व्यक्त करना और सराहना, मन के स्वस्थ होने का पता देता है। मनुष्य का मन जितना कोमल व स्वस्थ होगा उसमें आभार व्यक्त करने की भावना उतनी ही प्रबल होगी।
पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के आचरण और इस्लामी शिक्षाओं में आभार व्यक्त करने पर बहुत बल दिया गया है। पवित्र क़ुरआन, पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों ने बारंबार बल दिया है कि ईश्वर और उसके बंदों के प्रति आभार व्यक्त करने से ईश्वर की अनुंकपाओं में वृद्धि होती है।
पवित्र क़ुरआन में भी कहीं कहीं पर ईश्वर को याद करने के साथ साथ उसका आभार व्यक्त करने का आदेश दिया गया है और उसकी अकृतज्ञता की ओर से चेतावनी दी गयी है।
इस्लामी शिक्षाओं में मां-बाप के प्रति आभार को ईश्वर के प्रति आभार व्यक्त करने के साथ उल्लेख किया गया है क्योंकि मां-बाप व्यक्ति के व्यक्तित्व बनाने और उसके ईश्वरीय अनुकंपाओं का पात्र बनने का आधार बनते हैं। यही कारण है कि इस्लामी संस्कृति में मां-बाप का सम्मान और उनके प्रति आभार को बहुत महत्व दिया गया है। पवित्र क़ुरआन के लुक़मान नामक सूरे की आयत संख्या 14 में ईश्वर कह रहा हैः मेरा आभार व्यक्त करो और अपने मां-बाप का आभार व्यक्त करो।
आभार व्यक्त करना केवल मां-बाप से विशेष नहीं है बल्कि हर उस व्यक्ति का आभार व्यक्त करना चाहिए जिसने आपके साथ कोई भलाई की है। इस्लामी संस्कृति में ईश्वरीय दूत और पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के प्रति हमें बहुत अधिक आभार व्यक्त करना चाहिए क्योंकि वे मनुष्य के लिए बेहतरीन अनुकंपा लाए और इस मार्ग में उन्होंने बहुत ही कठिनाइयां सहन कीं। इसी प्रकार शिक्षकों के प्रति भी आभार व्यक्त किया जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने हमें शिक्षित व प्रशिक्षित किया है।
ईश्वर के प्रति और उसकी अनुकंपाओं की प्राप्ति के मार्ग में बनने वाले माध्यमों के प्रति आभार व्यक्त करने पर बल दिया जाना इस्लामी संस्कृति और पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों की शिक्षाओं की समृद्धता को दर्शाता है। पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों ने किसी चीज़ की अनदेखी नहीं की और वे मनुष्य के मन की कोलमता से अवगत हैं और उन्होंने अपने आचरण में उसे अपनाया है।
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