हाशमी रफसंजानी इस्लामी क्रांति से 88 के फ़ितने तक
अनुवादकः बुशरा अलवी
इसमें कोई संदेह नहीं है कि अकबर हाशमी रफसंजानी ईरान की इस्लामी क्रांति के बाद ईरानी राजनीतिक के बहुत बड़े खिलाड़ी रहे हैं जिनकी सियासत इस प्रकार की रही है कि हमेशा लोग उनके समर्थन या फिर विरोध में खड़े दिखाई देते है, क्योंकि रफसंजानी की सिसायत का सबसे बड़ा पहलू यह है कि उन्होंने अपनी राजनीति से यह दिखा दिया कि उनकी राजनीतिक केवल उनकी व्यक्तिगत सोंच का नतीजा नहीं है बल्कि यह एक विचारधारा है और उसकी जड़ें बहुत गहरी है, और उनकी शख़्सियत के यह पहलू ही है जो हमें इस बात पर विवश करते हैं कि अगर हमें उनके बारे में जानना है तो हमें उनके राजनीतिक जीवन के तीन दशकों को छः भागों में बांट क देखना होगा।
1. ईरानी क्रांति की सफलता के आरम्भिक दिन और हाशमी रफसंजानी का इस्लामिक कंसलटेटिव एसेंबली (मजलिसे शूराए इस्लामी) की अध्यक्ष बनना, इन सालों में रफसंजानी ने अपने समाजिक और राजनीतिक जीवन में इस प्रकार का रुख़ दिखाया था कि इस दौर में कहा जा सकता है कि वह लेफ्ट के बहुत बड़े समर्थक थे और लेफ्ट की ईरान में जीवन रेखा चलते रहने में उनका बहुत बड़ा हाथ दिखाई देता है जैसे
- रफसंजानी द्वारा क्रंति मुजाहेदी संगठन का विशेष कर बहज़ाद नबवी का ख़ास समर्थन।
- 25/3/1989 में इमाम ख़ुमैने के उस पत्र जिसमें उन्होंने उप लीडर के पद को समाप्त करने और उसके पीछे के रहस्यों को बयान किया था, रफसंजानी द्वारा प्रकाशित न किया जाना और उसके संदिग्ध भूमिका निभाना।
- अंतरिम सरकार के राष्ट्रति के तौर पर बाज़रगान के चुनाव में रफसंजानी की भूमिका विशेषकर तब जब कि प्रोफेसर महदी बाज़रगान के साथ उसके विशेष संबंध थे और ईरानी क्रांति में इन दोनों का रोल संदिग्ध था।
2. इमाम ख़ुमैनी का स्वर्गवास और रफसंजानी का राष्ट्पति बनना, इमाम ख़ुमैनी के जीवन भर रफसंजानी लेफ़्ट की जीवन रेखा और उनके बहुत बड़े समर्थक थे, लेकिन इमाम ख़ुमैनी के स्वर्गवास के तुरंत बाद रफसंजानी ने अपने रुख़ में 180 डिग्री का परिवर्त दिखाया, यही वह अवसर था कि जब उनके राजनीतिक और समाजिक विशेषकर उनकी आर्थिक समायोजन नीतियों को निदेशकों और सरकार के कार्यकारी निकायों द्वारा निंदा का सामना करना पड़ा।
इन दिनों में लेफ़्ट का पूरा ज़ोर इस बात पर था कि वह रफसंजानी की आर्थिक विकास नीतियों और प्राइवेट सेक्टर को दिए जाने वाले समर्थन का जिस प्रकार भी संभव हो सके विरोध करें और यह दिखाएं कि प्राइवेट सेक्टर के कारण सरकारी विभाग समाप्त हो रहे हैं।
इस दौर में हाशमी ने अपने व्यक्तित्व के इन नए पहलू को समाज में स्थापित करने के लिए, हर प्रकार की निंदा का बहुत ही चालाकी और कठोरता के साथ उत्तर दिया, इस प्रकार कि कहा जा सकता है कि हाशमी के इस दौन ने देश में चापलूस निदेशकों और राजनीतिज्ञों की बेल डाली, जिसकी राजनीतिक सोंच यह थी कि या तुम हमारे साथ हो या हमारे विरोधी बीच का कोई रास्ता नहीं है।
रफसंजानी का राष्ट्रपति का कार्यकाल ईरान के राजनीतिक युग का बहुत ही उधल पुथल वाला युग रहा है इस प्रकार कि जब वह राष्ट्रपति थे तो उनके क़रीबियों जैसे शाहरुख़ फ़रीदून, अताउल्लाह मोहाजेरानी, अब्दुल्लाह नूरी.... आदि ने पूरा प्रयत्न किया कि देश के संविधान 114 जिसके अनुसार एक राष्ट्रपित की अवधि चार साल के लिए होती है और वह दूसरे दौर में भी केवल चार साल के लिए ही राष्ट्रपति बन सकता है और उसके बाद उसके चुनाव लड़ने का हक़ नहीं है, को बदल दिया जाए और उनको पूरे जीवन के लिए देश का राष्ट्रपति घोषित कर दिया दाए, लेकिन उनकी यह सोंच देश के सुप्रीम लीडर आयतुल्लाह ख़ामेनेई की दूरगामी सोंच और चतुराई के कारण सफ़ल न हो सकी, उन्होंने स्पष्ट शब्दों में इसका विरोध किया, जिसके बाद इस्लामिक कंसलटेटिव एसेंबली के अध्ययक्ष नातिक़ नूरी ने अपने भाषण में आयतुल्लाह ख़ामेनेई के रुख़ और उनकी नाराज़गी के बारे में बयान किया और कहाः आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने कहा है कि राष्ट्रपति पद के लिए हाशमी रफसंजानी के दूसरे दौर के बाद किसी दूसरे व्यक्ति को राष्ट्रपति बनना चाहिए... उनके इस रुख के बाद अब कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रह गई है और ऐसी कोई इमरजेंसी भी नहीं है कि एक्सपीजिएंसी कांसिल को राष्ट्रपित के कार्यकाल को बढ़ाने की आवश्यकता हो। (रिसालत समाचार पत्र 1375) जिसके बाद विभिन्न लोगों जैसे समकाली राष्ट्रपित हसन रूहानी ने रफसंजानी के समर्थन में भाषण दिए।
3. सुधारवादी मोरचे द्वारा संसद और सरकार में बहुमत और रफसंजानी, इस्लामी क्रांति के आरम्भिक दिनों विशेषकर आयतुल्लाह ख़ामेनेई को सुप्रीम लीडर चुने जाने के बाद, रफसंजानी का मानना था कि देश के राजनीतिक और क्रांति से संबंधित कार्यों में उनका विशेष स्थान है, 5 मई 1997 को सत्ता सैय्यद मोहम्मद ख़ातेमी के हाथों में चली गई।
इन सारे सालों में यानी 2005 में अहमदी नज़ाद के चुनाव जीतने तक रफसंजानी ने अपना शक्ति, राजनीतिक पकड़ और नेतृत्व क्षमता को इस प्रकार बनाए रखा कि उनको राजनीतिक का पिता समझा जाने लगा, इसी दौर में एक्सपीजिएंसी कांसिल जिसका ख़ुद उनके रष्ट्रपति के कार्यकाल में किसी ने नाम तक नहीं सुना था और जिसको मीडिया में दिखाया तक नहीं जाता था अचानक सेना के तीनों विभागों के बराबर बन जाता है और लोगों के बीच रफसंजानी एक बार फिर देश के सबसे बड़े अधिकारी के तौर पर प्रकट होते हैं, इस चीज़ की अहमियत को रफसंजानी के सलाहकार अताउल्लाह मोहाजेरानी के इस कथन से समझा जा सकता है जिसमें उन्होंने कहा थाः मेरा विश्वास है कि हाशमी रफसंजानी के बाद जो भी राष्ट्रपति बने वह देश का तीसरा व्यक्ति होगा!
यही वह समय था कि जब रफसंजानी के लेफ़्य और राइट दोनों को साथ लेकर चलने वाली राजनीतिक विफल हो गई और वह लेफ़्ट जो अब तक रफसंजानी का चेहरा तकता रहता था और जिसकों उन्होंने ही पाला था ने रफसंजानी के विरुद्ध मोरचा खोल दिया और उनसे कहा गया कि वह अपनी स्थिति स्पष्ट करें कि वह लेफ़्ट की तरफ़ हैं या राइट की तरफ़ और यह एक प्रकार से रफसंजानी की राजनीतिक हार थी।
4. ख़ातमी सरकार का अंतिम दौर और दोबारा राष्ट्रपति बनने के लिए रफसंजानी की कोशिशें, आठ साल तक एस्पीजिएंसी कांसिल की अध्ययक्षता करने ने ख़ातमी सरकार के समाप्त होने के साथ ही रफसंजानी ने दोबारा चुनाव में उतरने की ठान ली और पहले दौर के चुनाव में किसी के न जीतने और अहमदी नज़ाद व रफसंजानी के बीच दूसरे दौर की टक्कर की स्थिति स्पष्ट होते ही दो ख़ुरदादी गुटों के तमाम सदस्यों ने खुल कर रफसंजानी का समर्थन करना शुरू कर दिया।
दूसरे दौर के चुनाव में रफसंजानी के रुख़ और दूसरी तरफ़ दो ख़ुर्दाद गुटों का उनके प्रति प्यार जताना इतना अधिक हो गया था कि रफसंजानी अपनी बातों में इस प्रकार की शब्द प्रयोग करने लगे थे कि जिससे पता लगता था कि दो ख़ुर्दाद गुट और ख़ुद राष्ट्रपति ख़ातेमी उनके ही राजनीतिक प्रशिक्षण का नतीजा है, और वह दो ख़ुरदाद गुट जो कल तक रफसंजानी से शत्रुता को ही अपना सबसे बड़ा मुद्दा मानता था और उसी रफसंजानी को अपनी कश्ती का नख़ुदा समझने लगा था, लेकिन रफसंजानी के इस प्रकार के रवय्ये के कारण उनके समर्थक उन से दूर हो गए और उन्होंने अमदी नज़ाद के साथ जाने का इराद बना लिया।
5. अहमदी नज़ाद की सरकार, चुनाव में अहमदी नज़ाद से हारने के बाद इस दौर में फिर उन्होंने दो रुख़ी सियासत अपनाई उन्होंने कहाः मैं किसी भी गुट से नहीं जुड़ा हूँ, लेकिन चुनाव के दौर में अहदमी नज़ाद के साथ उनका विरोध इस बात में बहुत बड़ी रुकावट था कि अहमदी नज़ाद की सरकार में भी उनको पितामह की हैसियत हासिल रहे, और यही कारण है कि इस दौर में भी उनकी शख़्सियत लगातार मीडिया में सुर्ख़ी बटोरती रहे।
एस्पीडिएंसी कांसिल द्वारा सेना के तीनों विभागों की देखरेख, कार्यकारी कमेटी के विरुद्ध क़ानून को पास करना और उनका समर्थन, जब तक सरकार की आलोचना करना, यह वह सब चीज़ें थी जिसने एक्सपीडिएंसी कांसिल और सरकार के संबंधों को अंधकारमयी बना दिया था यहां तक एस्पीडिएंसी कांसिल द्वारा सरकार के कामों में रोड़ा अटकाने के कारण सरकार के प्रमुख ने एस्पीडिएंसी कांसिल की मिटिंग में न आने के फैसला कर लिया।
(.....जारी है)
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