रोज़ी रोटी की तलाश
रोज़ी रोटी की तलाश
इब्ने उमर से रिवायत है कि पैगम्बर (स.) ने फ़रमाया कि जो चीज़ तुमको जहन्नम की आग से दूर रखेगी वह मैंनें बयान कर दी हैं, और जो चीज़े तुमको जन्नत से नज़दीक करेंगी उनकी भी तशरीह कर दी है और किसी भी चीज़ को फ़रामोश नही किया है।
मेरे ऊपर “वही” नाज़िल हुई है कि कोई भी उस वक़्त तक नही मरता जब तक उसकी रोज़ी पूरी न हो जाये। बस तुम तलबे रोज़ी में एतेदाल की रियाअत करो। ख़ुदा न करे कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी रोज़ी की कुन्दी ( कमी और पिछड़ापन) तुमको इस बात पर मजबूर न करदे कि तुम उसको हासिल करने के लिए गुनाह के मुरतकिब हो जाओ। क्योंकि कोई भी अल्लाह की फ़रमा बरदारी के बग़ैर उसके पास मौजूद नेअमतों को हासिल नही सकता।
और जानलो कि जिसके किस्मत में जो रोज़ी है वह उसको हर हालत में हासिल होगी। बस जो अपनी रोज़ी पर क़ानेअ होता है उसका रिज़्क पुर बरकत और ज़्यादा हो जाता है। और जो अपनी रोज़ी पर क़ाने और राज़ी नही होता उसके रिज़्क़ मे बरकत और ज़्यादती नही होती।
रिज़्क़ उसी तरह इंसान की तलाश में आता है जिस तरह मौत इंसान की तलाश में आती है।
हज़रत रसूले ख़ुदा फ़रमाते हैं कि : मैं तुमको कथनी और करनी के ज़रिये हर उस चीज़ से रोकता हूँ जो तुमको जन्नत से दूर करने वाली है। और तुमको हर उस चीज़ का हुक्म देता हूँ जो तुमको जन्नत से करीब और जहन्नम से दूर करने वाली है। इस हदीस का फ़ायदा यह है कि हमको हमेशा इस्लामी अहकाम को जारिये सारी करने के लिएकोशिश करनी चाहिए ।
कुछ सुस्त और बेहाल लोग “ व मा मिन दाब्बति फ़िल अर्ज़ि इल्ला अला अल्लाहि रिज़्क़ुहा ”
( ज़मीन पर कोई हरकत करने वाला ऐसा नही है जिसके रिज़्क़ का ज़िम्मा अल्लाह पर न हो।) जैसी ताबीरात और उन रिवायात पर तकिया करते हुए जिनमें रोज़ी को मुक़द्दर और निश्चित बताया गया है यह सोचते हैं कि इंसान के लिए ज़रूरी नही है कि वह रोज़ी को प्राप्त करने के लिए बहुत ज़्यादा कोशिश करे।
क्योंकि रोज़ी निश्चिंत है और हर हालत में इंसान को हासिल होगी और कोई भी मुंह रोज़ी के बग़ैर नही रहेगा।
इस तरह के नादान लोग दीन को पहचान ने में बहुत ज़्यादा कमज़ोर हैं। ऐसे अफ़राद दुशमन को यह कहने का मौक़ा देते हैं कि मज़हब वह कारण है जो अर्थव्यवस्था के ठहने, जिन्दगी को ख़मोश करने और बहुत सी चीज़ो से महरूमियत को वजूद में लाता है। इस बहाने के साथ कि अगर फलाँ चीज़ मुझको हासिल नही हुई तो वह निश्चित ही मेरी रोज़ी नही थी।
अगर वह मेरी रोज़ी होती तो किसी कार्य के बग़ैर मुझे मिल जाती। इससे साम्राजी शक्तियों को यह मोक़ा देते हैं कि वह महरूम लोगों का और अधिक ग़लत फ़ायदा उठाएं और उनको ज़िन्दगी की मूलभूत सुविधाओं से भी महरूम कर दें। जबकि क़ुरआन व इस्लामी अहादीस से थोड़ी भी जानकारी रखने वाला इस हक़ीक़त को समझ सकता है कि इस्लाम ने इंसान के माद्दी व माअनवी फ़यदे हासिल करने की बुनियाद कोशिश को माना है। यहाँ तक कि नारे की मानिंद क़ुरआन की यह आयत “लैसा लिल इंसानि इल्ला मा सआ ” भी इंसान का मार्गदर्शन कर रही है और बता रही है कि इंसान का लाभ केवल प्रयत्न करने में है।
इस्लाम के रहबर भी दूसरों को तरबीयत देने के लिए बहुत से मौक़ो पर काम करते थे ; थका देने वाले और सख़्त काम।
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