तक़य्ये का फ़लसफ़ा

तक़य्ये का फ़लसफ़ा

हमारा अक़ीदा है कि अगर कभी इंसान ऐसे कट्टपंथी लोगों के बीट फंस जाये जिन के सामने अपने अक़ीदे को बयान करना जान के लिए खतरा  हो तो ऐसी हालत में मोमिन की ज़िम्मेदारी यह है कि वह अपने अक़ीदे को छुपा ले और अपनी जान को बचाए। हम इस काम को “तक़य्या” का नाम देते हैं। इस अक़ीदे के लिए हमारे पास क़ुरआने करीम की दो आयतें व अक़्ली दलीलें मौजूद हैं।

क़ुरआने करीम मोमिने आले फ़िरौन के बारे में फ़रमाता है कि

“وَقَالَ رَ‌جُلٌ مُّؤْمِنٌ مِّنْ آلِ فِرْ‌عَوْنَ يَكْتُمُ إِيمَانَهُ أَتَقْتُلُونَ رَ‌جُلًا أَن يَقُولَ رَ‌بِّيَ اللَّـهُ وَقَدْ جَاءَكُم بِالْبَيِّنَاتِ مِن رَّ‌بِّكُمْ”[1]

यानी आले फ़िरौन के एक मोमिन मर्द ने जिसने अपने ईमान को छिपा रखा था कहा कि क्या तुम उस इंसान को क़त्ल करना चाहते हो जो यह कहता है कि अल्लाह मेरा रब है, जब कि वह तुम्हारे पास तुम्हारे परवरदिगार की तरफ़ से खुली हुई निशानियाँ लेकर आया है।

“यक्तुम ईमानहु ” तक़य्या के मसले को रौशन करता है। क्या किसी इंसान की अक्ल यह कहती है कि फ़िरऔन के जमाने का वह मोमिन व्यक्ति फ़िरऔन के सामने अपने ईमान को प्रकट कर देता और अपनी जान से हाथ धो लेता और वह काम जो उसको करना था (यानी लोगों का मार्गदर्शन) उसको आगे न बढ़ाता ?

क़ुरआने करीम सद्रे इस्लाम के कुछ मुजाहिद मोमिनीन को जो कि मुशरिक दुश्मनो के पंजों में फंस गये थे उन्हे तक़य्ये का आदेश देते हुए फ़रमाता है कि

“ لَّا يَتَّخِذِ الْمُؤْمِنُونَ الْكَافِرِ‌ينَ أَوْلِيَاءَ مِن دُونِ الْمُؤْمِنِينَ ۖ وَمَن يَفْعَلْ ذَٰلِكَ فَلَيْسَ مِنَ اللَّـهِ فِي شَيْءٍ إِلَّا أَن تَتَّقُوا مِنْهُمْ تُقَاةً ۗ”[2]

यानी मोमिनीन को चाहिए कि वह मोमिनीन को छोड़ कर किसी काफ़िर को अपना दोस्त या सरपरस्त न बनायें और अगर किसी ने ऐसा किया तो समझो उसका सम्बंध अल्लाह से कट गया।  मगर यह कि (तुम खतरे में हो ) और उन से तक़य्या करो।

इस बिना पर तक़य्या (यानी अपने अक़ीदेह को छिपाना) ऐसी हालत से मख़सूस है जब  कट्टपंथी दुश्मन के सामने इंसान की जान व माल ख़तरे में पड़ जाये। ऐसी हालत में मोमिनीन को अपनी जानों को ख़तरे में नही डालना चाहिए बल्कि उसकी हिफ़ाज़त करनी चाहिए । इसी वजह से हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि “अत्तक़िय्यतु तुर्सुल मोमिनि ”[3] यानी तक़िय्यह मोमिन की ढाल है।

तक़य्ये को तुर्स (ढाल) से ताबीर करना एक बहुत ही सुन्दर इशारा है जो इस बात की तरफ़ इशारा करता है कि तक़य्या दुश्मन के मुक़ाबिल एक सुरक्षात्मक हथियार है।

जनाबे अम्मारे यासिर का दुश्मनो के सामने तक़य्या करना और पैग़म्बरे इस्लाम (स) का उस को सही क़रार देना बहुत मशहूर वाक़िया है।[4]

मैदाने जंग में अपने सिपाहियों व हथियारों को छुपाना, दुश्मनों से जंगी राज़ों को छुपा कर रखना वग़ैरह इंसान की ज़िन्दगी में तक़य्ये की ही एक क़िस्म है। तक़य्या यानी छिपाना, उस मक़ाम पर जहां किसी चीज़ का ज़ाहिर करना ख़तरे व नुक़्सान का सबब हो चाहे छुपाने से कोई फ़ायदा न भी हो। यह एक ऐसी अक़्ली व शरई बात है जिस पर  ज़रूरत के वक़्त सिर्फ़ शिया ही नही बल्कि तमाम दुनिया के मुसलमान व अक़्लमन्द इंसान अमल करते हैं।

ताज्जुब की बात है कि कुछ लोग तक़य्ये के अक़ीदे को शियों व मकतबे अहलेबैत  से मख़सूस करते हैं और उन पर एक आपत्ती की सूरत में इस को पेश करते हैं। जब कि यह एक रौशन मसला है जिसकी जड़ें क़ुरआने करीम , अहादीस व पैग़म्बरे इस्लाम की सीरत में मौजूद हैं। और पूरी दुनिया के अहले अक़्ल हज़रात भी इस के क़ुबूल करते हैं।

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[1] सूरए ग़ाफ़िर आयत न. 28

[2] सूरए आलि इमरान आयत न. 28

[3] वसाइल जिल्द न.11 पेज न. 461 हदीस न. 6 बाब न.24 कुछ हदीसों में तुरसुल मोमिन की जगह तुरसु अल्लाहि फ़ी अलअर्ज़ि भी वारिद हुआ है।

[4] इस रिवायत को बहुत से मुफ़स्सिरों, मुवर्रिख़ों और मुहद्दिसों ने अपनी अपनी किताबों में लिखा है । सूरए नहल की आयत न. 106 के शाने नुज़ूल तहत तबरी, क़ुरतबी,ज़मख़शरी,फ़खरे राज़ी, बैज़ावी व नेशापुरी ने अपनी अपनी तफ़्सीरों में इस रिवायत को लिखा है।

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