इमाम अली (अ) और हज़रत उमर की जंग की तैयारी

इमाम अली (अ) और हज़रत उमर की जंग की तैयारी

[जब हज़रत उमर इब्ने ख़त्ताब ने जंगे फ़ार्स में शरीक होने के लिये आप से मश्विरा (परामर्श) लिया तो आप ने फ़रमाया ]

इस अम्र (विषय) में कामयाबी व नाकामयाबी का दारो मदार फ़ौज की कमी बेशी पर नहीं रहा है। यह तो अल्लाह का दीन है जिसे उस ने सब दीनों पर ग़ालिब (विजयी) रखा है, और उसी का लश्कर है जिसे उसने तैयार किया है और उस की ऐसी नुस्रत (सहायता) की है कि वह बढ़ कर अपनी मौजूदा हद (वर्तमान सीमा) तक पहुंच गया है।

और फ़ैल कर अपने मौजूदा फैलाव पर आ गया है। और हम से अल्लाह का एक वअदा है, और वह अपने वअदे को पूरा करेगा, और अपने लश्कर की ख़ुद ही मदद करेगा। उमूरे सल्तनत (राज्य के मुआमलात) में हाकिम (शासक) की वही हैसियत होती है जो मोह्रों में डोरे की जो उन्हें समेट कर रखता है। जब डोरा टूट जाए तो सब मोह्रे बिखर जायेंगे और फिर कभी सिमट न सकेंगे।

आज अरब वाले अगरचे गिनती में कम हैं मगर इस्लाम की वजह से वह बहुत हैं, और इत्तिहादे बाहमी (परस्पर एकता) के सबब से फ़त्हो ग़लबा (विजय एवं बल) पाने वाले हैं। तुम अपने मक़ाम पर ख़ूटी की तरह जमे रहो और अरब का नज़्मो नसक़ (क़ानून एवं व्यवस्था) बर्क़रार रखो और उन्हीं को जंग की आग का मुक़ाबिला करने दो, इस लिये कि अगर तुम ने इस सर ज़मीन को छोड़ा तो अरब अत्राफ़ो जवानिब (चारों दिशाओं) से तुम पर टूट पड़ेगा। यहां तक कि तुम्हें अपने सामने के हालात से ज़ियादा उन मक़ामात की फिक्र हो जायेगी, जिन्हें तुम अपने पसे पुश्त (पीछे) ग़ैर महफ़ूज़ (असुरक्षित) छोड़ कर गए हो।

 

कल अगर अज्म वाले तुम्हें देखेंगे तो आपस में यह कहेंगे कि यह है, सरदारे अरब। अगर तुम ने उस का क़ला क़मा कर दिया तो आसूदा हो जाओगे तो इस की वजह से उन की हिर्सो तअम (लालसा एवं लोलुप्ता) तुम पर ज़ियादा हो जायेगी। लेकिन यह तो तुम कहते हो कि वह लोग मुसलमानों से लड़ने झगड़ने के लिये चल खड़े हुए हैं, तो अल्लाह उन के बढ़ने को तुम से ज़ियादा बुरा समझता है। और वह जिसे बुरा समझे उस के बदलने और रोकने पर बहुत क़ुदरत रखता है, और उन की तअदाद (संख्या) के मुतअल्लिक़ जो कहते हो, कि वह बहुत हैं, तो हम साबिक़ (अतीत) में कसर (बहुसंख्या) के बल बूते पर नहीं लड़ा करते थे। बल्कि अल्लाह की ताईद (समर्थन) व नुस्रत (सहायता) के सहारे पर।

जब हज़रत उमर को कुछ लोगों ने जंगे क़ादिसीया या जंगे नहावन्द के मौक़े पर शरीके कारज़ार (युद्घ में सम्मिलित) होने का मश्विरा (परामर्श) दिया तो आप ने लोगों के मशविरे को अपने जज़्बात के ख़िलाफ़ समझते हुए अमीरुल मोमिनीन (अ.स.) से मशविरा लेना भी ज़रूरी समझा कि अगर उन्हों ने ठहरने का मशविरा दिया तो दूसरों के सामने यह उज़्र कर दिया जायेगा कि अमीरुल मोमिनीन (अ.स.) के मशविरे के वजह से रुक गया हूं, और उन्हों ने भी शरीके जंग होना का मशविरा दिया को फिर कोई और तदबीर (उपाय) सोच ली जायेगी। चुनांचे हज़रत ने दूसरों के खिलाफ़ उन्हें ठहरे रहने का ही मशविरा दिया। दूसरे लोगों ने तो इस बिना पर उन्हें शिर्कत का मशविरा दिया था कि वह देख चुके थे कि रसूलल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम सिर्फ़ लशकर वालों ही को जंग में न झोंकते थे बल्कि खुद भी शिर्कत फ़रमाते थे, और अपने ख़ानदान के अज़ीज़ तरीन फ़र्दों को भी अपने साथ रखते थे। और अमीरुल मोमिनीन (अ.स.) के पेशे नज़र यह चीज़ थी कि इन की शिर्कत इस्लाम के लिये मुफ़ीद (लाभप्रद) नहीं हो सकती, बल्कि इन का अपने मक़ाम पर ठहरे रहना ही मुसलमानों को परांगदगी (बिखराव) से महफ़ूज रख सकता है।

 

हज़रत का इर्शद है कि हाकिम की हैसीयत एक मेहवर (चक्की की कीली) की होती है जिस के गिर्द निज़ामें हुकूमत घूमता है, एक बुनियादी उसूल की हैसीयत रखता है और किसी ख़ास शख्सीयत के मुतअल्लिक नहीं है। चुनांचे हुक्मरान मुसलमान हो या काफ़िर, आदिल हो या ज़ालिम, नेक अमल हो या बद किर्दार, ममलिकत के नज़्मो नसक़ के लिये उस का वुजूद नागुज़ीर (अनिवार्य) जैस है। जैसा कि हज़रत ने इस मतलब को दूसरे मक़ाम पर वज़ाहत से बयान फ़रमाया है :--

“लोगों के लिये एक हाकिम का होना ज़रूरी है, वह नेक हो या बद किर्दार। अगर अमल कर सकेगा, और अगर फ़ासिक़ होगा तो काफ़िर उस के अह्द में बहरा अन्दोज़ होने और अल्लाह उस निज़ामे हुकूमत की हर चीज़ को उस की आख़िरी हदों (अन्तिम सीमाओं) तक पहुंचा देगा। उस हाकिम की वजह से चाहे वह अच्छा हो या बुरा मालयात फ़राहम होते हैं, दुशमन से लड़ा जाता है, रास्ते पुरअम्न रहते हैं। यहां तक कि नेक हाकिम मर कर या मअज़ूल हो कर राहत पाए और बुरे हाकिम के मरने या मअज़ूल होने से दूसरों को राहत पहुंचे। ”

हज़रत ने मशविरे के मौक़े पर जो अलफ़ाज़ कहे हैं उन से हज़रत उमर के हाकिम व साहबे इक़तिदार होने के अलावा और किसी खुसूसीयत का इज़हार नहीं होता, और इस में कोई शुब्हा नहीं कि उन्हें दुनियावी इक़तिदार हासिल था चाहे व सहीह तरीक़े से हासिल हुआ हो या ग़लत तरीक़े से। और जहां इक़तिदार हो वहां रईयत की मर्कज़ीयत भी हासिल होती है। इसी लिये हज़रत ने फ़रमाया कि अगर वह निकल खड़े होंगे तो फिर अगर भी जूक़ दर जूक़ मैदाने जंग का रुख़ करेंगे। क्योंकि जब हुक्मरान बी निकल खड़ा हो तो रईयत पीछे रहना गवारा न करेगी और उन के निकले का नतीजा यह होगा कि शहरों के शहर खाली हो जायेंगे, और दुशमन भी उन के मैदाने दंग में पहुंच जाने से यह अन्दाज़ा करेगा कि इस्लामी शहर खाली पड़े हैं अगर उन्हें पस्पा कर दिया गया तो फिर मुसलमानों को मर्कज़ से कुमक हेसिल नहीं हो सकती।

 

और अगर हुक्मरान ही को खत्म कर दिया गया तो फ़ौज खुद मुन्तशिर हो जायेगी क्यों कि हुक्मरान बमंज़िलए असासो बुनियाद के होते हैं। जब बुनियाद ही हिल जाए तो दीवारें कहां खड़ी रह सकती हैं। यह असलुल अरब (अरब की जड़) की लफ़्ज़ हज़रत ने अपनी तरफ़ से नहीं फ़रमाई बल्कि अजमों की ज़बान से नक़्ल की है। और ज़ाहिर है कि बादशाह होने की वजह से वह उन की नज़रों में बुनियाद अरब ही समझे जा रहे थे और फिर यह इज़ाफ़त मुल्क की तरफ़ है इसलाम या मुसलिमीन की तरफ़ नहीं है कि इस्लामी एतिबार से उन की किसी अहम्मीयत का इज़्हार हो।

जब हज़रत ने उन्हें बताया कि उन के पहुंच जाने से अजम उन्हीं की ताक में रहेंगे और हत्थे चढ़ जाने पर वह क़त्ल किये बग़ैर न रहेंगे तो ऐसी बातें अगरचे शुजाओं के लिये समन्दे हिम्मत पर ताज़याना का काम देती हैं और उन का जोश व वल्वला उभर आता है। मगर आप ने ठहरे रहने का मशविरा उन के तबई मैलान के मुवाफ़िक़ न होता तो वह इस तरह खन्दा पेशानी से उस का खैर मक़दम न करते बल्कि कुछ कहते सुनते और यह समझाने की कोशिश करते कि मुल्क में किसी को नायब बना कर मुल्की नज़्मो नसक़ को बर्करार रखा जा सकता है और फिर जब और लोगों ने जाने का मशविरा दिया तो अमीरुल मोमिनीन (अ.स.) से मशविरा लेने का दाई इस के अलावा हो ही क्या सकता था कि रुक जाने का कोई सहारा मिल जाए।

(नहजुल बलाग़ा ख़ुतबा 114)

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