ईदे ज़हरा की हक़ीक़त

ईदे ज़हरा 9 रबी उल अव्वल को मनाई जाती है और इस ईद को मनाने की बहुत सी वजहें बयान की जाती हैं। जैसेः बाज़ लोग कहते हैं कि 9 रबी उल अव्वल को हज़रत फ़ातेमा (अ.) ज़हरा का दुश्मन हलाक हुआ था, लेहाज़ा यह ख़ुशी का दिन है इसी वजह से इस रोज़ को ‘‘ईदे ज़हरा‘‘ के

ईदे ज़हरा 9 रबी उल अव्वल को मनाई जाती है और इस ईद को मनाने की बहुत सी वजहें बयान की जाती हैं। जैसेः बाज़ लोग कहते हैं कि 9 रबी उल अव्वल को हज़रत फ़ातेमा (अ.) ज़हरा का दुश्मन हलाक हुआ था, लेहाज़ा यह ख़ुशी का दिन है इसी वजह से इस रोज़ को ‘‘ईदे ज़हरा‘‘ के नाम से जाना जाता है।

इस बारे में उलोमा व मुअर्रेख़ीन के दरमियान इख़्तलाफ़ पाया जाता है, बाज़ कहते हैं कि हज़रत उमर इब्ने ख़त्ताब 9 रबीउलअव्वल को फ़ौत हुए और बाज़ दीगर कहते हैं कि इनकी वफ़ात 26 जि़लहिज्जा को हुई।

जो लोग यह कहते हैं कि उमर इब्ने ख़त्ताब 9 रबीउल अव्वल को फ़ौत हुए उनका क़ौल क़ाबिले एतबार नहीं है, अल्लामा मजलिसी इस बारे में इस तरह वज़ाहत फ़रमाते है किः

उमर इब्ने ख़त्ताब के क़त्ल किये जाने की तारीख़ के बारे में शिया और सुन्नी उलोमा में इख़तलाफ़ पाया जाता है (मगर) दोनों के दरमियान यही मशहूर है कि उमर इब्ने ख़त्ताब 26 या 27 जि़लहिज्जा को फ़ौत हुए। (1)

अल्लामा मजलिसी ने बिहारुल अनवार में भी इब्ने इदरीस की किताब ‘‘सरायर‘‘ के हवाले से लिखा है किः

हमारे बाज़ उलोमा के दरमियान उमर इबने ख़त्ताब की रोज़े वफ़ात के बारे में शुबहात पाए जाते हैं (यानी) यह लोग यह गुमान करते हैं कि उमर इब्ने ख़त्ताब 9 रबीउलअव्वल को फ़ौत हुए, यह नज़रया ग़लत है। (2)

अल्लामा मजलिसी किताब अनीस उल आबेदीन के हवाले से मज़ीद लिखते हैं:

अकसर शिया यह गुमान करते हैं कि उमर इब्ने ख़त्ताब 9 रबीउलअव्वल को क़त्ल हुए और यह सही नहीं है ... बतहक़ीक़ उमर 26 जि़लहिज्जा को क़त्ल हुए ... और इस पर साहिबे किताबे ग़र्रह, साहिबे किताबे मोजम, साहिबे किताबे तबक़ात, साहिबे किताबे मसारु उल शिया और इब्ने ताऊस की नस के अलावा शियों और सुन्नियों का इजमा भी हासिल है। (3)

अगर यह फर्ज़ भी कर लिया जाए कि वह 9 रबीउल अव्वल को फ़ौत हुए ( जो कि ग़लत है ) तब भी हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (अ.) की शहादत पहले हुई और आप के दुश्मन एक के बाद एक हलाक हुए ... तो फि़र अपने दुश्मनों की हलाकत से हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (अ.) किस तरह ख़ुश हुईं... लेहाज़ा ईदे ज़हरा की यह वजह ग़ैर माक़ूल है।

बाज़ लोग यह कहते हैं कि 9 रबीउलअव्वल को जनाबे मुख़्तार ने इमाम हुसैन (अ.) के क़ातिलों को वासिले जहन्नम किया ... लेहाज़ा यह रोज़ शियों के लिए सुरुर व शादमानी का दिन है।

हमने मोतबर तारीख़ की किताबों में बहुत तलाश किया लेकिन कहीं यह बात नज़र न आई कि जनाबे मुख़्तार ने 9 रबी उलअव्वल को इमाम हुसैन (अ.) के क़ातिलों को वासिले जहन्नम किया था ... लेहाज़ा यह वजह भी ग़ैरे माक़ूल है।
बाज़ लोग यह भी कहते हैं कि जनाब मुख़्तार ने इब्ने जि़याद का सर इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.) की खि़दमत में मदीना भेजा और जिस रोज़ यह सर इमाम की खि़दमत में पहुँचा वह रबीउलअव्वल की 9 तारीख़ थी, इमाम (अ.) ने इब्ने जि़याद का सर देख कर ख़ुदा का शुक्र अदा किया और मुख़्तार को दुआऐं दीं और उसी वक़्त से अहलेबैत की ख़्वातीन ने बालों में कंघी और सर में तैल डालना और आँखों में सुरमा लगाना शुरु किया जो वाक़ए कर्बला के बाद से इन चीज़ों को छोड़े हुए थीं।

बिलफ़रज़ अगर सही मान भी लिया जाए तब भी यह ईद जनाबे ज़ैनब (अ.) और जनाबे सय्यदे सज्जाद (अ.) से मनसूब होनी चाहिए थी न की हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (अ.) ... और हमें भी इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.) की पैरवी करते हुए जि़यादा से जि़यादा शुक्रे ख़ुदा करना चाहिए था और जनाबे मुख़्तार के लिए दुआए ख़ैर करना चाहिए थी कि उन्होंने इमाम (अ.) और उनके चाहने वालों का दिल ठंडा किया, लेकिन यह ईद न तो चौथे इमाम (अ.) से मनसूब हुई और ना जनाबे ज़ैनब के नाम से मशहूर है, लेहाज़ा ईदे ज़हरा की यह वजह भी ग़ैर माक़ूल है।

ख़ुशी की अस्ली वजह क्या है?

बाज़ उलोमा की तहक़ीक़ के मुताबिक़ 9 रबी उल अव्वल को जनाबे रसूले ख़ुदा (स.) की शादी जनाबे ख़दीजा (स.) से हुई थी और हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स.) हर साल इस शादी की सालगिरह मनाती थीं और जशन किया करती थीं, नए लिबास और तरह तरह के खाने मुहय्या करती थीं, लेहाज़ा आपकी सीरत पर अमल करते हुए शिया ख़्वातीन ने भी यह सालगिरह मनानी शुरु की और यह सिलसिला इसी तरह चलता रहा, आपके बाद यह ख़ुशी आप से मनसूब हो गई और इस तरह 9 रबी उल अव्वल का रोज़ शियों के दरमियान ईदे ज़हरा के नाम से मनसूब हो गया।

लेहाज़ा ईदे ज़हरा की यह वजह मुनासिब मालूम होती है, एक शख़्स ने आयतुल्लाह काशेफ़ुल ग़ेता से सवाल किया कि: मशहूर है कि रबी उल अव्वल की नवीं तारीख़ जनाबे फ़ातेमा ज़हरा की ख़ुशी का दिन था और है और इस हाल में है कि उमर इब्ने ख़त्ताब के 26 जि़लहिज्जा को ज़ख़्म लगा और 29 जि़लहिज्जा को फ़ौत हुए लिहाज़ा यह तारीख़ हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स.) से बाद की तारीख़ है तो फि़र हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स.) (अपने दुश्मन के फ़ौत होने पर) किस तरह ख़ुश हुईं?

इसका जवाब आयातुल्लाह काशेफुल ग़ेता ने इस तरह दिया किः

शिया पुराने ज़माने से रबीउलअव्वल की नवीं तारीख़ को ईद की तरह ख़ुशी मनाते हैं किताबे इक़बाल में सैय्यद इब्ने ताऊस ने फ़रमाया है कि 9 रबीउलअव्वल की ख़ुशी इस लिए है कि इस तारीख़ में उमर इब्ने ख़त्ताब फ़ौत हुए हैं और यह बात एक ज़ईफ़ रिवायत से ली गयी है जिस को शैख़ सदूक़ ने नक़्ल किया है, लेकिन हक़ीक़ते अमर यह है कि 9 रबीउलअव्वल को शियों की ख़ुशी शायद इस वजह से है कि 8 रबी उल अव्वल को इमाम हसन असकरी (अ.) शहीद हुए और 9 रबीउलअव्वल इमामे ज़माना (अ.) की इमामत का पहला रोज़ है .....इस ख़ुशी का दूसरा एहतमाल यह है कि 9 और 10 रबी उल अव्वल पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की जनाबे ख़दीजा से शादी का रोज़ है और हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स.) हर साल इस रोज़ ख़ुशी मनाती थीं और शिया भी आपकी पैरवी करते हुए इन दिनों में ख़ुशी मनाने लगे, मगर शियों को इस ख़ुशी की यह वजह मालूम नहीं है। (4)

कोई गनाह नहीं लिखा जाएगा

9वीं रबीउल अव्वल के सिलसिले में बाज़ हज़रात व ख़्वातीन ग़लत बयानी करते हुए कहते हैं कि इस दिन जो चाहें गुनाह करें उस पर अज़ाब नहीं होता और फ़रिश्ते लिखते भी नहीं और यह लोग अल्लामा मजलिसी की किताब बिहारुल अनवार की उस तवील हदीस का हवाला देते हैं जिसको अल्लामा मजलिसी ने सै0 इब्ने ताऊस की किताब ज़वाएदुल फ़वायद से नक़ल किया है...

हदीस की पड़ताल

हां बिहारुल अनवार में एक हदीस ऐसी ज़रुर लिखी हुई है जो यह बयान करती है कि इस दिन किसी भी प्रकार की गुनाह इंसान के नामाए आमाल में नहीं लिखा जाता है मगर यह हदीस चन्द वजहों की बिना पर क़ाबिले एतबार नहीं हैः
1- इस हदीस में लिखा है कि 9 रबीउलअव्वल को जो गुनाह चाहें करें उस को फ़रिश्ते नहीं लिखते और न ही अज़ाब किया जाता है।

मगर हम क़ुरआने मजीद के सूरा ए ज़लजला की आयत 7 और 8 में पढ़ते हैं किः

यानी जिस शख़्स ने ज़र्रह बराबर नेकी की वह उसे देख लेगा और जिस शख़्स ने ज़र्रह बराबर बदी की है तो वह उसे देख लेगा।

और हमारे सामने रसूले ख़ुदा (स.) की वह हदीस भी है जिस का मफ़हूम यह है किः

जब तुम्हारे पास मेरी कोई हदीस आए तो उसे किताबे ख़ुदा के मेयार पर परखो अगर कऱ्ुआन के मुआफि़क़ है तो उसे क़बूल कर लो और अगर उसके खि़लाफ़ है तो दीवार पर दे मारो (यानी क़बूल न करो) (5)

1. मज़कूरा रिवायत क़ुरआन से टकरा रही है लेहाज़ा क़ाबिले अमल नहीं है।

2- इस हदीस के रावी मोतबर नहीं हैं, इस के बारे में जब मैंने क़ुम में आयातुल्ला शाहरुदी से दरयाफ़्त किया था तो आपने यही फ़रमाया था किः

इस रिवायत को अल्लामा मजलिसी ने किताबे इक़बाल से नक़्ल किया है और इसके रावी मोतबर नहीं हैं ... 9 रबी उल अव्वल का मरफ़ू उल क़लम न होना (यानी इस दिन भी गुनाह लिखे जाते हैं) अज़हर मिनश शम्स (यानी बहूत वाज़ेह) है। लेहाज़ा यह रिवायत क़ाबिले एतबार नहीं है।

3- इस रिवायत में एक जुमला इस तरह आया हैः

रसूल अल्लाह (स.) ... ने इमाम हसन (अ.) और इमाम हुसैन (अ.) (जो कि 9 रबीउलअव्वल को आपके पास बैठे थे ) से फ़रमाया कि इस दिन की बरकत और सआदत तुम्हारे लिए मुबारक हो क्योंकि आज के दिन ख़ुदावन्दे आलम तुम्हारे और तुम्हारे जद के दुश्मनों को हलाक करेगा।

रसूले इस्लाम अगर आने वाले ज़माने में रुनुमा होने होने वाले किसी वाक़ए या हादसे की ख़बर दें तो सौ फी़ सद सही , सच, और होने वाला है जिस में किसी शक व शुबह की गुनजाइश नहीं है क्योंकि आप सच्चा वादा करने वाले हैं।

लेकिन मोतबर तारीख़ की किताब में किसी भी दुश्मने रसूल व आले रसूल की हलाकत 9 रबीउलअव्वल के रोज़ नहीं मिलती, लेहाज़ा रिवायत क़ाबिले एतबार नहीं है।

4- इस रिवायत के आखि़र में इमाम अली (अ.) के हवाले से 9 रबीउलअव्वल के 57 नाम जि़क्र किए गए हैं जिन में यौमो रफ़इल क़लम (गुनाह न लिखे जाने का दिन), यौमो सबीलिल्लाहे तआला (अल्लाह के रास्ते पर चलने का दिन ) यौमो कतलिल मुनाफि़क़ (मुनाफि़क़ के क़त्ल का दिन ) यौमु ज़्ज़ोहदे फि़ल कबाइरे (गुनाहे कबीरा से बचने का दिन ), यौमुल मौएज़ते (वाज़ व नसीहत का दिन), यौमुल इबादते (इबादत का दिन) भी शामिल हैं जो आपस में एक दूसरे से टकरा रहे हैं यानी 9 रबीउलअव्वल को गुनाह न लिखने का दिन कह कर सब कुछ कर डालने का शौक़ दिलाया है तो यौमे नसीहत व इबादत व ज़ोहोद कह कर गुनाहों से रोका भी गया है और यह तज़ाद कलामे मासूम (अ.) से बईद है, इसके अलावाह क़त्ले मुनाफि़क़ का दिन भी कहा गया है जिस की तरदीद आयातुल्लाह काशेफ़ुल ग़ेता और आयातुल्लाह शाहरुदी के हवाले से हम कर ही चुके हैं, लेहाज़ा यह रिवायत मोतबर नहीं कही जा सकती।

5- इस रिवायत में एक जुमला यह भी आया है किः

अल्लाह ने वही के ज़रिए हज़रत रसूल (स.) से कहलाया किः ऐ मुहम्मद (स.) मैंने किरामे कातेबीन को हुकम दिया है कि वह 9 रबी उल अव्वल को आप और आपके वसी के एहतराम में लोगों के गुनाहों और उनकी ख़ताओं को न लिखें।
जबकि दूसरी तरफ़ क़ुरआने मजीद में ख़ुदावन्दे आलम इस तरह इरशाद फ़रमाता है किः

यह हमारी किताब (नामा ए आमाल) है जो हक़ के साथ बोलती है और हम इसमें तुम्हारे आमाल को बराबर लिखवा रहे थे। (6)

इस से मालूम होता है कि इन्सानों के आमाल ज़रुर लिखे जाते हैं और किसी भी दिन को इस से अलग नहीं किया गया है।

और जब नामाए आमाल सामने रखा जाएगा तो देखोगे देख कर ख़ौफ़ज़दा होंगे और कहेंगे हाय अफ़सोस! इस किताब (नामाए आमाल) ने तो छोटा बड़ा कुछ नहीं छोड़ा है और सब को जमा कर लिया है और सब अपने आमाल को बिलकुल हाजि़र पाऐंगे और तुम्हारा परवरदिगार किसी एक पर भी ज़ुल्म नहीं करता है। (7)

इस आयत से भी साफ़ ज़ाहिर होता है कि इनसानों के आमाल बराबर लिखे जाते हैं और कोई भी मौक़ा और दिन इस से अलेहदा नहीं है।

इस रोज़ सारे इनसान गिरोह गिरोह क़ब्रों से निकलेंगे ताकि अपने आमाल को देख सकें फिर जिस शख़्स ने ज़र्रा बराबर नेकी की है वह उसे देखेगा और जिसने ज़र्रा बराबर बुराई की है वह उसे देख लेगा। (8)

इस आयत से भी ज़ाहिर होता है कि इन्सानों के छोटे बड़े हर कि़स्म के आमाल ज़रुर लिखे जाते हैं।

यह रिवायत क़ुरआन से टकरा रही है लेहाज़ा मोतबर नहीं है।

ज़ईफ़ हदीस को ओलेमा ने क्यों लिखा?

हो सकता है बाज़ हज़रात यह एतराज़ करें कि इतनी मोतबर शख़सियात जैसे अल्लामा इब्ने ताऊस, शैख़ सदूक़ और अल्लामा मजलिसी वग़ैरा ने किस तरह ज़ईफ़ रिवायतों को अपनी किताबों में जगह दे दी?

इसका जवाब यह है कि शिया उलोमा ने कभी भी अहले सुन्नत की तरह यह दावा नहीं किया है कि हमारी किताबों में जो भी लिखा है वह सब सही है, बलकि हमें इनकी छान बीन की ज़रुरत रहती है, क्योंकि जिस ज़माने में यह किताबें मुरततब कि गईं वह पुर आशोब दौर था और शियों की जान व माल, इज़्ज़त व आबरु के साथ साथ कलचर भी ग़ैर महफ़ूज़ था जिसकी मिसालों से तारीख़ का दामन भरा हुआ है, मुसलमान हुकमरान शियों के इलमी सरमाए को नज़रे आतिश करना हरगिज़ न भूलते थे, ऐसे माहौल में हमारे उलमा ए किराम ने हर उस रिवायत और बात को अपनी किताबों मं जगह दी जो शियों से ताअल्लुक़ रखती थी, जिसमें बाज़ ग़ैर मोतबर रिवायात का शामिल हो जाना बाइसे ताअज्जुब नहीं है, चूँकि उस ज़माने में छान फटक का मौक़ा न था इस लिए यह काम बाद के उलोमा ने फ़ुरसत से अन्जाम दिया, इसी लिए तो आयातुल्लाह काशेफ़ुल ग़ेता और आयातुल्लाह शाहरुदी के अलावा दीगर मराजऐ किराम 9 रबीउलअव्वल वाली इस रिवायत को ज़ईफ़ मानते हैं।

ईदे ज़हरा (स.) मराजे की नज़र में

हमें चाहिए कि इस दिन भी इसी तरह अपने आप को गुनाहों से दूर रखें जिस तरह दूसरे दिनों में बचाना वाजिब है, हमारे आइम्मा और फ़ुक़हा ए इज़ाम व मराजऐ किराम का यही हुक्म है, जब मैंने इस बारे में मराजऐ किराम आयातुल्लाहिल उज़मा सै0 अली ख़ामनई, आयातुल्लााह मुकारिम शीराज़ी, आयातुल्लाह फ़ाजि़ल लंककरानी।

आयातुल्लाह अराकी और आयातुल्लाह साफ़ी गुलपायगानी से क़ुम में सवाल किया किः

बाज़ लोग आलिम व ग़ैर आलिम इस बात के मोतकि़द हैं कि 9 रबीउलअव्वल से (जो कि ईदे ज़हरा से मनसूब है) 11 रबीउलअव्वल तक इन्सान जो चाहे अनजाम दे चाहे वह काम शरअन नाजायज़ हो तब भी गुनाह शुमार नहीं होगा और फ़रिश्ते उसे नहीं लिखंेगे, बराए मेहरबानी इस बारे में क्या हुक्म है बयान फ़रमाइए।

आयातुल्लाहिल उज़मा सै0 अली ख़ामनई साहब ने इस तरह जवाब दिया किः शरीअत की हराम की हुई वह चीज़ें जो जगह और वक़्त से मख़सूस नहीं हैं किसी मख़सूस दिन की मुनासबत से हलाल नहीं हांेगी बलकि ऐसे मुहर्रेमात हर जगह और हर वक़्त हराम हैं और जो लोग बाज़ अय्याम में इनको हलाल की निसबत देते हैं वह कोरा झूट और बोहतान है और हर वह काम जो बज़ाते ख़ुद हराम हो या मुसलमानों के दरमियान तफ़रक़े का बाइस हो शरअन गुनाह और अज़ाब का बाइस है।

आयातुल्लाह नासिर मकारिम शीराज़ी साहब का जवाब यह थाः

यह बात (कि 9 रबीउलअव्वल को गुनाह लिखे नहीं जाते ) सही नहीं है और किसी भी फ़क़ीह ने ऐसा फ़तवा नहीं दिया है, बलकि इन अय्याम में तज़किया ए नफ़स और अहलेबैत (अ.) के अख़लाक़ से नज़दीक होने और फ़ासिक़ व फ़ाजिरों के तौर तरीक़ों से दूर रहने की ज़्यादा कोशिश करनी चाहिए।

आयातुल्लाह फ़ाजि़ल लंककरानी साहब ने यूँ जवाब दिया कि:

यह एतक़ाद (कि 9 रबी उल अव्वल को गुनाह लिखे नहीं जाते ) सही नहीं है, इन दिनों में भी गुनाह जायज़ नहीं है, मज़कूरा ईद (ईदे ज़हरा) बग़ैर गुनाह के मनाई जा सकती है।

आयातुल्लाह अराकी साहब ने तहरीर फ़रमाया कि:

वह काम जिनको शरीअते इस्लाम ने मना किया है और मराजऐ किराम ने अपनी तौज़ीहुल मसाइल में जि़क्र किया है किसी भी वक़्त जायज़ नहीं हैं और यह बातें कि (9 रबीउल अव्वल को गुनाह लिखे नहीं जाते) मोतबर नहीं हैं।

आयातुल्लाह साफ़ी गुलपायगानी साहब का जवाब यह था किः

यह बात कि (9 रबीउलअव्वल को गुनाह लिखे नहीं जाते ) अदिल्ला ए अहकाम के उमूमात व इतलाक़ात के मनाफ़ी है और ऐसी मोतबर रिवायत कि जो इन उमूमी व मुतलक़ दलीलों को मख़सूस या मुक़य्यद करदे साबित नहीं है बिलफ़र्ज़ अगर ऐसी कोई रिवायत होती भी तो यह बात अक़्ल व शरीअत के मनाफ़ी है और ऐसी मुक़य्यद व मुख़ससिस दलीलें मुनसरिफ़ है ...।

ख़ुशी कैसे मनाएं

यह बात वाज़ेह हो जाने के बाद अब एक सवाल और बाक़ी रह जाता है वह यह कि इस ख़ुशी को किस तरह मनाऐं...? इसी तरह जैसे अकसर बसतियों में मनाई जाती है ? या फि़र इसमें तबदीली होनी चाहिए?

यह ख़ुशी इमामे ज़माना (अ.) और हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (अ.) से मनसूब है तो क्या हमें उन मासूमीन (अ.) के शायाने शान इस ख़ुशी को नहीं मनाना चाहिए ?... हमें क्या हो गया है! अपने जि़न्दा इमाम (अ.) की ख़ुशी को इस अन्दाज़ से मनाते हैं ? दुनिया की जाहिल तरीन क़ौमें भी अपने रहबर की ख़ुशी इस तरह न मनाती होंगी ...

अफ़सोस! आज कल अगर किसी सियासी व समाजी शख़सीयत के एज़ाज़ में जलसे जलूस मुनअकि़द किए जाते हैं तो उनको उसी के शायाने शान तरीक़े से इख़तताम तक पहुँचाने की कोशिश भी की जाती है।

लेकिन ईदे ज़हरा (अ.) जो ख़ातूने जन्नत, जिगर गोशए रसूल (स.), ज़ौजा ए अली ए मुरतज़ा (स.) उम्मुल अइम्मा ज़हरा बतूल (स.) के नाम से मनसूब है उसके  साथ  इन्साफ नहीं  किया जाता |

इसके अलावा आलमे इस्लाम पर जिस तरह ख़तरात के बादल छाए हुए हैं वह अहले नज़र से पोशीदा नहीं है, कितना अच्छा हो अगर ईदे ज़हरा अपने हक़ीक़ी माना में इस तरह मनाई जाए जिस में तमाम मुसलेमीन शरीक हो सकें।

तबर्रा फ़ुरु ए दीन से तअल्लुक़ रखता है और फ़ुरु ए दीन का दारो मदार अमल से है... अगर कोई मुसलमान सिर्फ़ ज़बान से कहे कि नमाज़, रोज़ा, हज, ज़कात, ख़ुम्स वग़ैरा वाजिब हैं तो यह तमाम वाजेबात जब तक अमाली सूरत में अदा न हो जाऐं गरदन पर क़ज़ा ही रहेंगे ... फ़ुरु ए दीन के वाजिबात वक़्त और ज़माने से मख़सूस हैं, जिस तरह नमाज़ के औक़ात बताए गए हैं इसी तरह रोज़ा, ज़कात, हज और ख़ुम्स वग़ैरा का ज़माना भी मुअय्यन है, लेकिन अम्रबिल मारुफ़, नही अनिल मुनकर, तवल्ला और तबर्रा यह दीन के ऐसे फ़ुरु हैं जिनके लिए कोई वक़्त और ज़माना मुअय्यन नहीं है, बिल ख़ुसूस तवल्ला और तबर्रा से तो एक लम्हे के लिए भी ग़ाफि़ल नहीं रह सकते, यानी हम यह नहीं कह सकते कि एक लम्हे के लिए भी मुहब्बते अहलेबैत (स.) को दिल से निकाल दिया गया है, या एक लमहे के लिए दुश्मनाने अहलेबैत (स.) के दुश्मनों के किरदार को अपना लिया गया है, जब ऐसा है ... तो फिर तबर्रा को 9 रबी उलअव्वल से कियों मख़सूस कर दिया गया ? इसी दिन इसकी क्यांे ताकीद होती है ? बाक़ी दिनों में इस तरह क्यों याद नहीं आता? वह भी सिर्फ़ ज़बानी!

ज़बान से तबर्रा काफ़ी नहीं है बलकि अमाली मैदान में आकर तबर्रा करें यानी अहले बैत (अ.) के दुश्मनों की इताअत व हुक्मरानी दिल से क़बूल न करें और इनके पस्त किरदार को न अपनाऐं। यह कैसे हो सकता है कि कोई शिया जो ख़्ुाम्स न निकालता हो और बेटियों को मीरास से महरुम रखता हो वह ग़ासेबीन पर लानत करे और उस लानत में ख़ुद भी शामिल न होजाए।

वह शिया जो अपने अमले बद से अहले बैत (अ.) को नाराज़ करता हो और वह अहलेबैत (अ.) को सताने वालों पर लानत करे और उस लानत के दायरे में ख़ुद भी न आ जाए।

याद रखिए ! लानत नाम पर नहीं, किरदार पर होती है इसी लिए उसका दायरा बहुत बड़ा होता है।
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1.    ज़ादुल मआद, पेज 470
2.    बिहारुल अनवार , जिल्द 58, पेज 372, बाब 13, मतबुआ तेहरान
3.    बिहारुल अनवार , जिल्द 58, पेज 372, बाब 13, मतबुआ तेहरान
4.    आयातुल्लाह काशेफ़ूल ग़ेता, सवाल व जवाब, पेज 10 व 11, तरजुमा मौलाना डा0 सै0 हसन अख़तर साहब नौगांवी, मिनजानिब इदारा ए तबलीग़ व इशाअत नौगावां सादात
5.    मिरज़ा हबीबुल्ला हाशमी, मिनहाजुल बराअत फ़ी, शरह नहजुल बलाग़ा, जिल्द 17, पेज 246, तरजमा हसन ज़ादा आमली, मतबूआ तेहरान
6.    सूरा ए जासेया, आयत 29
7.    सूरा ए कहफ़, आयत 49
8.    सूरा ए ज़लज़ला, आयत 5 व 18

 

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