वहाबियत और इस्लामी जागरुकता
वहाबियत और इस्लामी जागरुकता
पिछले एक दशक के दौरान इस्लामी देशों में इस्लामी जागरूकता की प्रक्रिया और परिवर्तन, राजनैतिक एवं वैचारिक प्रक्रियाओं के सक्रिय होने का परिणाम हैं किंतु इनमें से कुछ प्रक्रियाएं और विचारधाराएं, शुद्ध इस्लामी शिक्षाओं से बहुत दूर हैं। इन्हीं विचारधाराओं में से एक, सलफ़ी या वहाबियत नामक विचारधारा है जो इस्लाम की मूल शिक्षाओं से बहुत दूर है। पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) के स्वर्गवास के पश्चात कुछ मुसलमानों और पैग़म्बरे इस्लाम (स) के साथियों ने उनकी वसीयत पर कोई ध्यान नहीं दिया जिसमें पैग़म्बरे इस्लाम ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को अपने पश्चात अपना उत्तराधिकारी निर्धारित किया था।
एक छोटे से गुट ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) की इस वसीयत का सम्मान करते हुए हज़रत अली (अ) का अनुसरण किया। पैग़म्बरे इस्लाम (स) की वसीयत की अनदेखी करने के ही कारण मुसलमानों के बीच कुछ गुट या विचारधाराएं अस्तित्व में आईं, जिनमें से प्रत्येक ने अपने लिए कुछ वैचारिक एवं सैद्धांतिक नियमों का निर्धारण किया। पैग़म्बरे इस्लाम (स) के स्वर्गवास से अबतक शताब्दियों का समय व्यतीत हो चुका है और इस दौरान इस्लाम में कई पंथों ने जन्म लिया है। इन विभिन्न पंथों के बीच जो एक बात संयुक्त रूप से पाई जाती है वह मात्र यह है कि इन सबका दावा है कि वे हज़रत मुहम्मद (स) का अनुसरण करते हैं और पवित्र क़ुरआन को मानते हैं किंतु इन पंथों की आस्थाएं, इस्लामी शिक्षाओं या हज़रत मुहम्मद (स) के धर्म से बिल्कुल भी मेल नहीं खातीं।
यद्धपि यह समस्त पंथ पैग़म्बरे इस्लाम (स) की सुन्नत या उनकी परंपरा को पुनर्जीवित करने का दावा तो करते हैं किंतु उनकी शिक्षाओं तथा विचारधाराओं का अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि मुसलमानों के इन पंथों की विचारधाराओं और पैग़म्बर (स) की शिक्षाओं तथा उनके व्यवहार में बहुत अंतर मौजूद है। वर्तमान समय में सलफ़ी पंथ की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं पाई जाती। कुछ लोग सलफ़ी विचारधारा को इतना विस्तृत एवं व्यापक समझते हैं कि मानो उसमें सारे सुन्नी मुसलमान सम्मिलित हैं और इस विचारधारा का संबन्ध इस्लाम के आरंभिक काल से समझते हैं और जो भी अतिवादी विचारधारा रखता है उसे सलफ़ी कहते हैं। कुछ अन्य लोग सलफ़ी को वहाबियत का पर्यायवाची मानते हैं और सलफ़ीवाद को वहाबियत का नाम देते हैं।
राजनैतिक स्तर पर पश्चिमी संचार माध्यमों में भी सुन्नी मुसलमानों की पश्चिम विरोधी प्रक्रिया को सलफ़ी दर्शाया जाता है और इस बात का प्रयास किया जाता है कि पश्चिम विरोधी मुसलमानों को रूढ़ीवादी और वहाबी प्रक्रिया की श्रेणी में रखा जाए ताकि इन्हें पश्चिमी संचार माध्यमों के दुष्प्रचारों और आक्रमणों का लक्ष्य बनाया जा सके और साथ ही अतिवादी एवं सलफ़ी होने के कारण वे इस्लाम में अलग-थलग पड़ जाएं। यह बातें इस बात का कारण बनीं हैं कि सलफ़ी या वहाबी विचारधारा के निर्धारण में किसी विशेष मानदंड को दृष्टिगत न रखा जाए और पश्चिम के साथ वहाबी यह प्रयास करते हैं कि दूसरे पंथों को भी अपने ही साथ दर्शाएं, ताकि बहुत से एसे इस्लामी गुट जो सलफ़ी नहीं हैं वे वहाबियों की श्रेणी में आ जाएं। यह एसी स्थिति में है कि जब वहाबियत, सुन्नी मुसलमानों के अन्य पंथों को शीया मुसलमानों के विरूद्ध प्रयोग करती है।
वर्तमान समय मे इस्लामी जगत को भीतरी और बाहरी दोनों स्तरों पर गंभीर ख़तरों का सामना है। इन ख़तरों में से एक, सलफ़ी प्रक्रिया के अन्तर्गत अतिवादी, उग्रवादी एवं हिंसक आस्था है। रूढ़ीवादी सलफ़ी इस बात का प्रयास करते हैं कि वर्तमान परिस्थितियों से लाभ उठाते हुए शीयों के साथ संयुक्त शत्रुता को प्रस्तुत करके अन्य इस्लामी प्रक्रियाओं के साथ अपने मूलभूत मतभेदों को छिपाएं तथा शीया मत के मुक़ाबले में सुन्नी मुसलमानों तथा अपने भीतर तथाकथित सहकारिता दर्शाकर मोर्चा खोलें।
हालांकि न केवल सुन्नी मुसलमानों के बहुत से पंथों और सलफ़ियों के बीच गंभीर वैचारिक एवं सैदांतिक मतभेद पाए जाते हैं बल्कि स्वयं सलफ़ियों के भीतर भी बहुत गंभीर मतभेद पाए जाते हैं और उनमें विभिन्न विरोधाभास मौजूद हैं और यही विषय सलफ़ियों के बीच विभिन्न गुटों के जन्म लेने का कारण बना है। इस कार्यक्रम में हम सलफ़ियों की वास्तविकता और वहाबी विचारधारा को स्पष्ट करने के प्रयास करेंगे।
सलफ़ी का शाब्दिक अर्थ होता है पूर्वजों का अनुसरण करना। किंतु प्रचलित भाषा में सलफ़ी उस मत या पंथ को कहा जाता है जो यह दावा करते हैं कि वे इस्लाम के अनुसरण में पूर्वजों का अनुसरण करते हैं और अपने व्यवहार कार्यों एवं आस्था में पैग़म्बरे इस्लाम (स) के साथियों और उनके साथियों के साथियों का अनुसरण करते हैं। इस रूढ़ीवादी पंथ का मानना है कि इस्लामी शिक्षाओं को उसी प्रकार से बताया जाए जिस प्रकार से पैग़म्बरे इस्लाम (स) के साथियों और उनके साथियों के साथियों के काल में बताया जाता था अर्थात इस्लामी शिक्षाओं को केवल क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम (स) की परंपरा के बारे में जो कुछ हम तक पहुंचा है उससे ही लिया जाए तथा धर्मगुरूओं को इस बात का अधिकार नहीं है कि वे क़ुरआन द्वारा बताए गए नियमों का गहराई से लोगों को अवगत कराने हेतु किसी प्रकार के तर्क प्रस्तुत करें।
सलफ़ियों की विचारधारा में तर्क को कोई स्थान प्राप्त नहीं है। वे लोग अपनी रूढ़ीवादी विचारधारा के औचित्य के लिए अपने दृष्टिगत कुछ गिनी-चुनी हदीसें और आयतें ही प्रस्तुत करते हैं। सलफ़ियों का यह मानना है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) के समस्त साथियों के कथन और उनका व्यवहार अनुसरण योग्य है चाहे वे ठीक हों या ठीक न हों। सलफ़ियों के एक धर्मगुरू का नाम इब्ने तैमिया है। इब्ने तैमिया पूर्ण रूप से तर्क एवं बुद्धि के प्रयोग का विरोधी है। उसका मानना है कि जीवन के किसी भी क्षेत्र में बुद्धि का प्रयोग न किया जाए। अपनी बात को सिद्ध करने के लिए इब्ने तैमिया पैग़म्बरे इस्लाम (स) के नाम पर गढ़े गए कथनों और क़ुरआन की आयतों के फेर-बदल किये गए अर्थों को प्रस्तुत करता है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार से बिन लादेन, एमन अज़्ज़वाहेरी और ज़रक़ावी जैसे अलक़ाएदा के नेता अपनी आतंकवादी कार्यवाहियों का औचित्य दर्शाने के लिए इसी प्रकार की हरकतें करते आए हैं और कर रहे हैं तथा पश्चिम के बहुत से इस्लाम विरोधी लेखक, उनके इन्हीं तर्कों को मुसलमानों के विरूद्ध प्रचारिक हथकंडे के रूप में प्रयोग करते हैं ताकि इस्लाम जैसे शांतिप्रेमी धर्म को संसार में हिंसक धर्म के रूप में दर्शाया जाए।
इब्ने तैमिया का यह मानना था कि उसने जिस प्रकार से इस्लाम को समझा है यदि कोई ठीक उसी ढंग से इस्लाम को नहीं समझता तो वह काफ़िर है और वह इस्लाम से दूर है अतः उसकी हत्या करना वैध है। वहाबियत के समर्थकों ने, जो स्वयं को इब्ने तैमिया का अनुयाई मानते हैं, इब्ने तैमिया की इसी हिंसक और भेदभावपूर्ण विचारधारा के आधार पर अबतक एसे हज़ारों लोगों की हत्याएं की हैं जो इब्ने तैमिया की हिंसक विचारधारा के विरोधी हैं। वहाबियों का यह हिंसक व्यवहार आज भी विश्व के बहुत से देशों में जारी है।
इब्ने तैमिया किसी भी प्रकार के बौद्धिक तर्क तथा शोध को स्वीकार नहीं करता था और उसके अनुसार आधुनिक आवश्यकताओं के संबन्ध में दृष्टिकोण देने की कोई आवश्यकता नहीं है बल्कि हर स्थिति में पुरानी बातों का ही अनुसरण किया जाए। आज हमारे और पैग़म्बरे इस्लाम (स) के साथियों के काल में बहुत दूरी पाई जाती है यहां तक कि इब्ने तैमिया के काल से भी हम बहुत दूर हो चुके हैं और हमारे समय की आवश्यकताएं भी उस काल की आवश्यकताओं से बहुत भिन्न हैं। दूसरे शब्दों में इब्ने तैमिया, वर्तमान काल के जीवन में प्रयोग की जाने वाली समस्त वस्तुओं का विरोध करता है।
उसके विचारों के अनुसार मुसलमानों को ग़ैर मुसलमानों के अविष्कारों और उनके द्वारा बनाई जाने वाली वस्तुओं का प्रयोग नहीं करना चाहिए चाहे वे मुसलमानों के हित में ही क्यों न हों। इब्ने तैमिया की विचारधारा के विपरीत पैग़म्बरे इस्लाम (स) का कथन है कि ज्ञान प्राप्त करो चाहे तुम्हें दूरस्थ क्षेत्रों की यात्रा करनी पड़े। इसी संबन्ध में हज़रत अली अलैहिस्सलाम का कथन है कि ज्ञान को अर्जित करो चाहे उसे मिथ्याचारी से ही क्यों न लेना पड़े। इन बातों के दृष्टिगत यह कहा जा सकता है कि इब्ने तैमिये की रूढ़ीवादी विचारधारा, एक ओर तो मुसलमानों की प्रगति को रोकती है और दूसरी ओर मुसलमानों के मध्य मतभेदों और हिंसा को प्रचलित करती है। इब्ने तैमिया, मुसलमानों और अन्य धर्मों के अनुयाइयों के बीच संपर्क को दुष्टतापूर्ण मानता है और वह उन्हें मारने पीटने यहां तक कि हत्या करने का पक्षधर है। वह कहता है कि बहुत से लोग जो यह कहते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) का कथन है कि जिस किसी ने भी ग़ैर मुसलमान को सताया उसने मुझको सताया, तो यह उनका कथन नहीं है और झूठ है बल्कि पैग़म्बर के इस कथन का कोई विश्वसनीय स्रोत मौजूद ही नहीं है। इसके पश्चात वह कहता है इस कथन का पैग़म्बरे इस्लाम (स) से कोई संबन्ध नहीं है और यह किसी विश्वसनीय स्रोत में मौजूद नहीं है इसलिए ग़ैर मुसलमानों को सताने में कोई आपत्ति नहीं है और इसमे कोई पाप भी नहीं है।
अपने इस निराधारा तर्क के आधार पर इस्लामी शिक्षाओं को नकारते हुए ग़ैर मुसलमानों के साथ हर प्रकार के संपर्क को वह रद्द करता है और धर्म की आड़ में ग़ैर मुसलमानों के विरूद्ध हिंसा तथा जनसंहार को वैध मानता है। वास्तविकता यह है कि इब्ने तैमिया के निकट इस्लाम का जो मापदंड है वह वास्तविक इस्लाम की शिक्षाओं से मेल नहीं खाता बल्कि उनसे बहुत दूर है। पैग़म्बरे इस्लाम (स) का हर वह कथन जो इब्ने तैमिया की रूढ़ीवादी एवं अतिवादी विचारधारा के विपरीत होता है उसे वह स्वीकार नहीं करता और इसी प्रकार पवित्र क़ुरआन की वे आयतें जो उसके विचारों से मेल नहीं खातीं उनकी वह अपने मनमाने ढंग से व्याख्या करता है। श्रोताओ, अभी तक जो कुछ बताया गया वह सलफ़ियों की कट्टरपंथी विचारधारा का मात्र एक छोटा सा उदाहरण है जिसने के सामने इस्लाम को एक रूढ़ीवादी एवं हिंसक धर्म के रूप में प्रस्तुत किया है। अलक़ाएदा और तालेबान इसी विचारधारा की उपज हैं जिन्होंने पूरे संसार में इस्लाम के नाम पर आतंक मचा रखा है।
जारी है.....
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