सलाम और इस्लाम में उसका महत्व
सलाम और इस्लाम में उसका महत्व
सामान्यतः जब दो लोग आपस में मिलते हैं और उनकी एक-दूसरे पर दृष्टि पड़ती है तो एसे में सामान्यतः मित्रता दर्शाने की पहला चिन्ह सलाम होता है। उसके बाद हाथ मिलाया जाता है। वास्तव में इस्लाम के मानव निर्माण और मैत्री बढ़ाने वाले कार्यक्रमो में से एक, दूसरों को सलाम करना है। सलाम, आपसी द्वेष को समाप्त करके उसके स्थान पर प्रेम उत्पन्न करता है। सलाम के साथ ही हाथ मिलाना, एक-दूसरे के अधिक निकट होने का कारण बनता है। सलाम करके हम सामने वाले को यह विश्वास दिलाते हैं कि हम तुम्हारी भलाई और कुशलक्षेम के इच्छुक हैं अर्थात हम तुम्हारे हितैषी हैं। इसी प्रकार हाथ मिलाना, मित्रता की एक अन्य निशानी है। यह कार्य हृद्यों को एक-दूसरे से निकट करता है और परस्पर प्रेम को बढ़ाता है। दो हाथों के मिलने से हृदय भी निकट आते हैं। अब देखना यह है कि इस प्रेम का रहस्य कहां छिपा है?
सूरए हशर की आयत संख्या २३ में कहा गया है कि सलाम, ईश्वर के नामों में से एक नाम है। इस आधार पर हर प्रकार की अच्छाई का स्रोत ईशवर ही है। सलाम के महत्व को इस बात से समझा जा सकता है कि वह ईश्वर जो हर प्रकार की कृपा और दया का सृष्टिकर्ता है स्वयं अपने बंदों पर सलाम भेजता है। एसा सलाम जो अपने साथ विभूतियां लिए हुए है। पवित्र क़ुरआन के एक ईरानी वरिष्ठ व्याख्याकार तथा दर्शनशास्त्री आयतुलल्लाह जवादी आमोली “अदबे फ़नाए मुक़र्रेबान” नामक पुस्तक में सलाम के अध्याय में कहते हैं कि ईश्वर का उत्तम उपहार, जो उसके दूतों और उसके सदाचारी बंदों के लिए है वह सलाम है। ईश्वर का यह सलाम कभी बिना किसी माध्यम के होता है जैसे हज़रत नूह और हज़रत इब्राहीम पर भेजा गया सलाम और कभी यह उसके किसी दूत या महापुरूष के माध्यम से होता है जैसाकि हज़रत मूसा की आवाज़ में उसने इसे अपने अच्छे बंदों तक पहुंचाया। जैसे सूरए ताहा की आयत संख्या ४७ में ईश्वर कहता है कि सलाम हो उसपर जो मार्गदर्शन का अनुसरण करे। यह सलाम केवल संसार तक सीमित नहीं है बल्कि प्रलय के दिन ईश्वर के साथ भेंट में भी वह उत्तम उपहार, जो उसके बंदों को दिया जाएगा वह यही सलाम ही है। फ़रिश्ते भी स्वर्गवासियों का स्वागत करते हुए उन्हें ईश्वर की अनुकंपाओं का निमंत्रण देंगे ठीक वैसे ही जैसे मृत्यु के समय उनकी आत्माओं को सलाम के साथ उनके शरीरों से निकालते हैं। वास्तव में ईश्वर के सदाचारी दास जब भी किसी से मिलते हैं सलाम करते हैं, फ़रिश्तों की ओर से और अपने स्वर्ग के साथियों और मित्रों को भी। मूल रूप से सलाम के अतिरिक्त उनके कानों को कोई और आवाज़ “दारुस्सलाम” में भाती नहीं और वे हर प्रकार के बुरे तथा अनुचित कार्यों से बहुत दूरे हैं। पवित्र क़ुरआन में सूरए अनआम की आयत संख्या १२७ में स्वर्ग को दारुस्सलाम कहा गया है। ऐसे ही लोगों के लिए उनके पालनहार के निकट दारूस्ससलाम अर्थात शांति का ठिकाना है। दारुस्सलाम का अर्थ होता है ईश्वर का घर। सलाम, ईश्वर के पवित्र नामों में से एक नाम है और स्वर्ग के सम्मान के लिए उसे इस नाम से पुकारा गया है। जैसा कि काबे को बैतुल्लाह कहा जाता है। दारुस्सलाम से तातपर्य एसा घर है जो पूर्ण रूप से सुरक्षित है और उसमें रहने वाले हर दृष्टि से सुरक्षित हैं अर्थात वहां पर सुरक्षा ही सुरक्षा और शांति है क्योंकि स्वर्ग में निर्धन्ता, दुख, पीड़ा, बीमारी, मृत्यु, बुढ़ापा या किसी भी प्रकार की कोई समस्या पाई ही नहीं जाती।
सलाम करना, लोगों के बीच प्रेम उत्पन्न करने के साथ ही उनके बीच विनम्रता की भी निशानी है जो हर प्रकार के घमण्ड को नकारती है। विनम्र स्वभाव के स्वामी, न केवल यह कि क्षति नहीं उठाते हैं बल्कि वे लोगों के बीच लोकप्रियता प्राप्त करते हैं। पैग़म्बरे इस्लाम के परपौत्र इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैं कि विनम्रता की निशानियों में से यह है कि जब भी किसी से भेंट हो तो उसे सलाम करो। पैग़म्बरे इस्लाम की यह परंपरा थी कि वे हर एक को पहले सलाम किया करते थे। वे बच्चों को भी सलाम करते थे और इसमें भी वे ही पहल करते थे। वे कहते थे कि जबतक मैं जीवित हूं उस समय तक बच्चों को सलाम करना कभी भी नहीं छोड़ूंगा ताकि यह कार्य मेरे पश्चात परंपरा में परिवर्तित हो जाए। पैग़म्बरे इस्लाम का यह गुण, उनकी अच्छी आदतों और सदगुणों का भाग था जो विनम्रता के कारण था। मुसलमनों को इस प्रशंसनीय कार्य को करने के लिए अधिक से अधिक प्रेरित करने हेतु और सामाजिक संबन्धों को सुदृढ़ करने के उद्देश्य से पैग़म्बरे इस्लाम कहते हैं कि सलाम करने और उसका जवाब देने के बदले में ७० अच्छाइयां मिलती हैं जिनमें से ६९ अच्छाइयां, सलाम करने वाले को प्राप्त होती हैं और मात्र एक, उसका जवाब देने वाले को मिलती है। इसी प्रकार से सलाम के बारे में उनका एक अन्य कथन यह है कि कंजूस वह है जो सलाम करने मे कंजूसी करे।
सलाम, वास्तव में एक प्रकार का सम्मान है। इसका अर्थ होता है सामने वाले के लिए अच्छे जीवन की कामना करना। सूरए नूर की आयत संख्या ६१ में ईश्वर कहता, है कि जब घर के भीतर प्रविष्ट हो तो एक-दूसरे को सलाम करो। इस आयत में सलाम को ईश्वरीय सुरक्षा एवं शांति कहा गया है जिसे पवित्र और शुभ बताया गया है। इसी प्रकार से इस आयत से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सलामुन अलैकुम से तातपर्य है सलामुल्लाहे अलैक अर्थात तुमपर अल्लाह का सलाम हो या यह कि ईश्वर तुमको सुरक्षित रखे। इसीलिए सलाम करने को एक प्रकार की मित्रता की घोषणा और शांति समान माना गया है। इस्लाम का यह नियम, सामाजिक संबन्धों को बनाने और उन्हें प्रगाढ़ करने के लिए है। समस्त समाजों में प्रचलित विचारधाराओं के अनुरूप किसी न किसी रूप में सलाम प्रचलित है। कुछ समाजों में एक-दूसरे से मिलते समय झुक कर उनका अभिनंदन और अभिवादन किया जाता है तो कहीं पर सिर हिलाकर तो कहीं पर हाथ हिलाकर तो कुछ स्थानों पर अपनी टोपी को थोड़ा सा उठाकर एक-दूसरे का अभिनंदन करते हैं और एक-दूसरे के प्रति मित्रता व्यक्त करते हैं। इस्लाम में भी यह अभिनंदन, सलाम करने और उसके पश्चात सामान्यतः हाथ मिलाने के रूप में दिखाई देता है। इस बारे में पैग़म्बरे इस्लाम कहते हैं कि जब भी तुम एक-दूसरे से मिलो तो सलाम करके उनसे हाथ मिलाते हुए भेंट करो। वे स्वयं भी बड़ी प्रसन्नचित मुद्रा के साथ दूसरों को सलाम किया करते थे। पैग़म्बरे इस्लाम जब भी किसी से हाथ मिलाते थे तो अपना हाथ दूसरे के हाथ में इतनी देर तक दिये रहते थे कि सामने वाला स्वयं अपना हाथ पीछे खींचे। इस कार्य से वे अपने हार्दिक प्रेम को प्रदर्शित करते थे। इसका कारण यह है कि प्रेम, मनुष्य के भीतर छिपी हुई एसी चीज़ है जिसे व्यक्त किय जाना चाहिए और इसे स्पष्ट करके ही इसकी विभूतियों से लाभ उठाया जा सकता है। इस छिपे हुए ख़जाने की स्पष्टतम अनुकंपा, मित्रता की सुदृढ़ता और संबन्धों का प्रगाढ़ होना है। यही कारण है कि मुसलमानों को चाहिए कि एक-दूसरे के साथ भेंट में वे प्रसन्नतापूर्ण ढंग से अपनी भावनाओं को व्यक्त करें।
जिस प्रकार से सलाम करना, सामाजिक संबन्घों को सुदृढ़ करने का एक महत्वपूर्ण कारक है उसी प्रकार से इस संबन्ध में कुछ कार्य एसे भी हैं जो शत्रुता एवं द्वेष का कारण बनते हैं। उदाहरण स्वरूप दूसरों से सलाम और अपने सम्मान की आशा बांधना, धीमी आवाज़ में सलाम करना और सलाम का जवाब न देना आदि। सामाजिक संबन्धों में इन कार्यों की विध्वंसकारी भूमिका होती है और यह शत्रुता तथा द्वेष का कारण बनते हैं। इसीलिए इस्लाम ने अपने अनुयाइयों से सिफ़ारिश की है कि वे सदैव ऊंची आवाज़ में सलाम करें और यदि कोई उनको सलाम करे तो उसका जवाब इस प्रकार से दें कि सलाम करने वाला उसे सुन सके। इसका अर्थ यह है कि दूसरों से भेंट में, किसी सभा में उपस्थित होते समय, घर पहुंचते समय या अपने कार्यस्थल पहुंचते समय ऊंची आवाज़ में सलाम करना चाहिए। इसका कारण यह है कि हो सकता है धीमी आवाज़ में किये जाने वाले सलाम को लोग किसी कारणवश न सुन सकें और सलाम करने वाले को असभ्य या धमण्डी समझा जाए। इसी प्रकार से किसी के सलाम का उत्तर यदि धीमी आवाज़ में दिया जाए और वह उसे न सुन सके तो हो सकता है कि वह यह सोचे कि शायद हममे कोई कटुता उत्पन्न हो गई है या कोई समस्या उत्पन्न हो गई है या फिर यह कि सामने वाला इतना आत्ममुग्ध और घमण्डी हो गया है कि सलाम का जवाब भी नहीं देता। इस प्रकार की भ्रांतियों के निवारण का मार्ग, इस्लाम के उसी नियम पर कटिबद्धता है अर्थात ऊंची आवाज़ में सलाम करना। इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम का कहना है कि तुममें से जो भी किसी को सलाम करे उसे ऊंची आवाज़ में सलाम करना चाहिए। दूसरा महत्वपूर्ण विषय यह है कि इस्लाम की दृष्टि से सलाम करना यद्यपि अनिवार्य नहीं है किंतु उसका जवाब देना अनिवार्य है। यह कार्य बहुत ही प्रेम और उत्साह के साथ किया जाना चाहिए। इसका कारण यह है कि सलाम, ईश्वर के नेक बंदे की ओर से एक उपहार है जिसका उससे भी अच्छे ढंग से जवाब दिया जाए। इस प्रकार से प्रेम की अभिव्यक्ति, पवित्र क़ुरआन की शिक्षा का भाग है जिसका उत्तर बहुत ही अच्छे ढंग से दिया जाना चाहिए। सूरए नेसा की आयत संख्या ८६ में ईश्वर कहता हैः और जब कभी तुम्हें सलामती की दुआ दी जाए तो तुम भी जवाब में उससे बेहतर या कम से कम उस जैसी ही दुआ दो। निःसन्देह, ईश्वर हर चीज़ का हिसाब रखने वाला है।
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