इस्लाम शान्ति और प्रेम का धर्म
इस्लाम शान्ति और प्रेम का धर्म
इस्लाम प्रेम व कृपा का धर्म है और ईश्वर ने पवित्र क़ुरआन में अपने पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम को पूरी सृष्टि के लिए साक्षात कृपा बताया है। इस्लाम की दृष्टि में आदर्श समाज की स्थापना में प्रेम की सबसे बड़ी भूमिका है। इमाम अली अलैहिस्सलाम ने इस्लाम को ईश्वर से प्रेम पर टिका हुआ धर्म कहा है। वह नहजुल्बलाग़ा के भाषण क्रमांक 198 में कहते हैः इस्लाम ईश्वर का धर्म है जिसे उसने अपने लिए चुना है और उसके आधार को अपने प्रेम पर टिकाया है। प्रेम का स्रोत भावना है और यह भावना इतनी शक्तिशाली व प्रभावी है कि दिलों को एक दूसरे के निकट लाकर मानव समाज को बेहतरीन रूप देती है। इसलिए हम देखते हैं कि पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम तथा उनके पवित्र परिजनों के कथन में जगह जगह पर प्रेम व कृपा का उल्लेख किया गया है। उदाहरण स्वरूप सूरए आले इमरान की आयत क्रमांक 76 में ईश्वर कहता हैः ईश्वर तो सदाचारियों को दोस्त रखता है। इसी सूरे की आयत क्रमांक 134 में सदाचारियों के प्रति ईश्वर के प्रेम पर बल दिया गया है। इस आयत में ईश्वर कहता हैः ईश्वर भलाई करने वालों को दोस्त रखता है। क़ुरआन में एक और स्थान पर आया है कि ईश्वर धैर्यवानों को दोस्त रखता है। पैग़म्बरे इस्लाम एवं उनके पवित्र परिजनों के कथनों में धर्म को प्रेम की संज्ञा दी गयी है और कहा गया है कि धर्म, प्रेम के सिवा कुछ नहीं है। हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने कहाः क्या धर्म, प्रेम व स्नेह के सिवा कुछ और भी है?
ईश्वर से प्रेम, मुहब्बत का सबसे अच्छा व लाभदायक उदाहरण है। इस्लाम ने अपने अनुयाइयों के मन में प्रेम की भावना को सुदृढ़ करने के लिए बहुत सी शैलियों को पेश किया है। इस संदर्भ में इस्लाम में अनिवार्य और ग़ैर अनिवार्य उपासनाओं का उल्लेख किया गया है और इसी प्रकार ईश्वर से दुआ व प्रार्थना को उससे मित्रता को सुदृढ़ करने में प्रभावी बताया गया है। ईश्वर आले इमरान नामक सूरे की आयत क्रमांक 31 में पैग़म्बरे इस्लाम को आदेश देता है कि लोगों से अपना अनुसरण कराने के लिए ईश्वर के प्रेम पर भरोसा करें। ईश्वर कहता हैः हे पैग़म्बर कह दीजिए कि यदि ईश्वर से प्रेम करते हो तो मेरा अनुसरण करो ताकि ईश्वर भी तुम्हें दोस्त रखे और तुम्हारे पापों को क्षमा कर दे कि ईश्वर क्षमाशील व कृपालु है। इस आयत से स्पष्ट है कि पैग़म्बरे इस्लाम का अनुसरण ईश्वर से मित्रता की निशानी है और इस मित्रता का परिणाम यह है कि पाप क्षमा कर दिए जाते हैं और बंदा ईश्वर का प्रिय बन जाता है। यह मित्रता हर मित्रता से इतर किन्तु सभी मित्रता का स्रोत भी है। इस बारे में पैग़म्बरे इस्लाम का एक कथन हैः एक मोमिन के मन में दूसरे मोमिन के प्रति मित्रता, ईमान की बड़ी शाखाओं में है, जान लो कि जिसने ईश्वर के लिए मित्रता की, उसी के लिए शत्रुता की, उसी की ख़ातिर क्षमा किया और उसी की प्रसन्नता के लिए मना किया तो ऐसा व्यक्ति ईश्वर के चुने हुए बंदों में है।
हर मनुष्य के अस्तित्व में स्वाभाविक इच्छाएं ऐसे सोतों के समान हैं कि यदि उन्हें सही ढंग से नियंत्रित किया जाए तो व्यक्ति व समाज का कल्याण होगा। स्वाभाविक भावनाओं व इच्छाओं को नियंत्रित करने के लिए बुद्धि व प्रेम का सहारा लेना चाहिए। बुद्धि स्वाभाविक इच्छाओं के सैलाब के सामने अकेले प्रतिरोध नहीं कर सकती इस्लिए इस्लामी शिक्षाओं में ईश्वर से प्रेम को इच्छाओं को नियंत्रित करने के लिए एक उपकरण के तौर पर पेश किया गया है। पवित्र इस्लाम के नियम ने प्रेम की महाशक्ति से अपने अनुयाइयों के मन में ईश्वर से श्रद्धा रूपी ऐसी बाड़ बना दी है जो मज़बूत इच्छाओं के सामने प्रतिरोध करती है और निरंकुश भावनाओं को सरलता से नियंत्रित करती है। जो ईश्वर का सच्चा मित्र है वह उसके प्रेम में इतना खो जाता है कि मानो मिट गया है और उसके मन में किसी चीज़ों का प्रभाव नहीं रह जाता। ईश्वरीय दूत हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम अपने आश्चर्यचकित करने वाले सौंदर्य के कारण मिस्र के कुलीन वर्ग की बहुत सी महिलाओं के ध्यान का केन्द्र बने हुए थे किन्तु ईश्वर से सच्चे प्रेम ने उन्हें उन महिलाओं के बहकावे से बचाया यहां तक कि उन्होंने जेल में जीवन को महल के आरामदायक जीवन पर प्राथमिकता दी ताकि उनका दामन पाप से सुरक्षित रहे। आज भी ऐसे युवा मुसलमानों के मन में ईश्वर से प्रेम की ज्वाला दिखाई देती है जो बहुत सरलता से सांसार की बेहतरीन सुविधाओं से हाथ उठा लेते हैं ताकि अपने वैचारिक उद्देश्य तक पहुंच सकें।
ख़ुद को चाहने की भावना प्रकृति की मूल्यवान धरोहर है जिसे ईश्वर ने हर व्यक्ति को दिया है। इस भावना को समाज में प्रशिक्षण का सबसे अच्छा आधार माना जाता है और इसके परिणाम में आत्मसम्मान मिलता है। इसके साथ ही यह बात भी नहीं भूलनी चाहिए कि स्वंय को सीमा से अधिक चाहने से व्यक्ति में घमंड और आत्ममुग्धता पैदा होती है जिसे पुरा समझा जाता है।
यदि बच्चों में ख़ुद को चाहने की भावना सही ढंग से तृप्त हो जाए तो इसका बहुत अच्छा परिणाम निकलता है। इसलिए पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों ने इसके महत्व पर बल दिया है। माँ-बाप से अनुशंसा की गयी है कि अपने बच्चों का सम्मान करें और उनके साथ स्नेहपूर्ण व्यवहार अपनाएं। माँ-बाप का स्नेह बच्चे के शारीरिक व मानसिक विकास में बहुत प्रभावी होता है। बच्चों के स्वस्थ, सक्षम, लाभदायक, प्रभावीं एवं सम्मानीय व्यक्ति के निर्माण में माँ-बाप के स्नेह की भूमिका का इंकार नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार बच्चों के मन में ईश्वर का भय रखने और धार्मिक मूल्य बिठाने में भी माँ-बाप की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। अच्छे माँ-बाप के स्नेह से बच्चे के मन में सभी उच्च भावनाएं बैठ जाती हैं। बच्चों को स्नेह भरे शब्दों से संबोधित करने से बच्चे का मनोबल बढ़ जाता है और वे प्रफुल्लित महसूस करते हैं। इस्लाम में बच्चों का अच्छा नाम रखने और उनका समामान करने की बहुत अनुशंसा की गयी है।
माँ-बाप से प्रेम व्यक्ति के नैतिक व आध्यात्मिक विकास में बहुत प्रभावी होता है। इस्लाम की दृष्टि में माँ-बाप के आदेश का पालन और उनके साथ भलाई पर इतना बल दिया गया है कि ईश्वर ने माँ-बाप क साथ भलाई को अपनी उपासना व आदेशापालन की श्रेणी में रखा है। जैसा कि सूरए असरा की आयत क्रमांक 23 में ईश्वर कहता हैः तुम्हारे पालनहार का आदेश है कि उसके सिवा किसी को मत पूजो और अपने माँ-बाप के साथ भलाई करो।
माँ-बाप के साथ भलाई और उनके साथ स्नेहपूर्ण व्यवहार क एक परिणाम आयु में वृद्धि के रूप में सामने आता है। जिन लोगों से उनके माँ-बाप प्रसन्न होते हैं उनकी आयु बढ़ जाती है और यह ईश्वर की ओर से उन लोगों को उपहार है जो अपने माँ-बाप के साथ स्नेहपूर्ण व्यवहार अपनाते हैं और अपने बचपन, किशोर अवस्था और जवानी में माँ-बाप के स्नेह व परीश्रम को नहीं भूलते। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम का कथन हैः जो भी अपने माँ-बाप के साथ भलाई करता है ईश्वर उसकी आयु बढ़ाता है। माँ-बाप से स्पेन ही एक और विभूति आजीविका में वृद्धि भी है। जिन लोगों को अपने हक़ में माँ-बाप की दुआओं का सौभाग्य प्राप्त होता है उनक लिए ईश्वर अपनी कृपा के द्वार खोल देता है और उनका जीवन सुखद हो जाता है किन्तु बड़े खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि आज के औद्योगिक व मशीनी जीवन में इंसान ने ख़ुद को इतना उलझा लिया हे कि इससे न केवल यह कि वह दिन प्रतिदिन अकेला होता जा रहा है बल्कि वह रोज़गान व व्यवसास में व्यस्तता के कारण अपने माँ-बाप को ओल्ड हाउस भेज रहा है। ऐसा व्यक्ति यह भूल जाता है कि माँ-बाप को वृद्धावस्था के बच्चों की ओर से अधिक स्नेहपूर्ण व्यवहार की आवश्यकता होती है। इस प्रकार के लोग यह नहीं समझते कि माँ-बाप की देखभाल की ओर से उनकी लापरवाही स्वंय उनकी आजीविका के कम होने और उनके अधिक से अधिक मुसीबत में फंसने का कारण बनती है।
मनुष्य सामाजिक प्राणी है और उसे दूसरों के प्रेम व ध्यान की आवश्यकता होती है। मित्रता का स्तर और दूसरों के प्रति स्नेहपूर्ण व्यवहार सामाजिक जीवन को जारी रखने एवं इसे सुदृढ़ करने के लिए आवश्यक है क्योंकि दूसरों के प्रति स्नेहपूर्ण व्यवहार मनुष्य को मानसिक दृष्टि से स्वस्थ रखने में प्रभावी भूमिका निभाता है। यही कारण है कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम ने जब मक्के से मदीना पलायन किया तो सबसे पहले ईश्वर के आदेश के आज्ञापालन को ध्रव की भांति महत्व देने के साथ मुसलमानों के बीच आपस में बंधुत्व स्थापित किया। इस संदर्भ में सबसे पहले पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम ने औस और ख़ज़रज नामक दो क़बीलों के बीच मेल-जोल स्थापित कराया कि इन दोनों क़बीलों के बीच लंबे समय से ख़तरनाक लड़ाइयों का क्रम जारी था। मक्के से पलायन करने वाले मुसलमानों और मदीने के मुसलमानों के बीच बंधुत्व की स्थापना इस्लामी समाज की हर इकाई के बीच स्नेहपूर्ण व्यवहार स्थापित करना पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम का दूसरा महत्वपूर्ण क़दम था। तत्कालीन इस्लामी समाज में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम के क्रियाकलाप यह दर्शाते हैं कि इस्लामी समाज में लोगों के बीच मित्रता पर किस सीमा तक ध्यान दिया गया है।
प्रिय पाठकों! प्रेम व स्नेह जैसे इतने व्यापह विषय पर कार्यक्रम के सीमित समय में पूरी तरह चर्चा करना संभव नहीं है। संक्षेप में यह कहते हुए कि कार्यक्रम का अंत कर रहे हैं कि मनुष्य का लोक-परलोक का कल्याण निष्ठापूर्ण प्रेम व स्नेह पर निर्भर है। वह मुनष्य कल्याण प्राप्त करेगा जो ईश्वर और उसके प्राणियों से सच्चा स्नेह करेगा।
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