अकेलापन और इस्लाम

अकेलापन और इस्लाम

इस्लामी जीवन शैली में मनुष्य को अकेला नहीं छोड़ा गया है और अकेलेपन की निंदा की गयी है। चूंकि इस्लाम धर्म की कुछ उपासनाएं ऐसी हैं जो सामूहिक रूप से अंजाम दी जाती हैं और लोगों के मध्य प्रेम व स्नेह तथा सहृदयता का कारण बनती हैं।

प्रत्येक दशा में इस्लाम धर्म ने मनुष्य के लिए ईश्वर से एकांत में संपर्क स्थापित करने के लिए विभिन्न अवसरों को दृष्टिगत रखा है। वास्तव में यह एकांतवास अकेले रहने के अर्थ में नहीं है बल्कि मनुष्य का अपने प्रिय पालनहार से अधिक से अधिक संपर्क में रहने का बेहतरीन क्षण है। एकांत में ईश्वर से अपने दिल की बातें करना, एक बेहतरीन अवसर है ताकि मनुष्य जो भौतिक जीवन के होहल्ले में डूब चुका है, स्वयं को उससे निकाले और ईश्वर से एकांत में मिलने के लिए कुछ समय निकाले और ईश्वर के प्रेम व स्नेह के अथाह सागर से जुड़ जाए। इस एकांतवास में मनुष्य, अपनी आस्थाओं, शिष्टाचारों और कर्मों की समीक्षा कर सकता है और स्वयं की अच्छी पहचान कर सकता है और स्वयं को पहचान कर अपने पालनहार की बेहतरीन पहचान प्राप्त कर सकता है।

 

पैग़म्बरे इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम ने भी अपने विभूती भरे जीवन में भी कुछ क्षणों को एकांत में ईश्वर से दुआ व अपने दिल की बात करने के लिए विशेष किया था। प्रसिद्ध विद्वान अल्लामा मजलिसी अपनी पुस्तक बेहारुल अनवार में लिखते हैं कि हज़रत सुलैमान अलैहिस्सलाम कुछ समय के लिए मस्जिदुल अक़सा में एकांतवास में गये और उनके लिए उस स्थान पर ख़ाने पीने का प्रबंध किया गया और वह वहां पर पूरी दुनिया से कटकर ईश्वर की उपासना में लीन रहते थे।

 

हज़रत मरियम अलैहिस्सलाम भी जब उन्हें फ़रिश्ते से भेंट का सौभाग्य प्राप्त हुआ तो वह लोगों से दूर हो गयीं ताकि एकांत में जाएं और हर प्रकार के शोर शराबे से दूर ईश्वर से अपने दिल की बातें बयान करें। यही कारण है कि वह सबसे शांत और सबसे उचित क्षेत्र पूर्वी बैतुल मुक़द्दस की ओर चली गयीं।

हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम भी इस बात के बावजूद कि उनके कंधों पर मार्गदर्शन के ईश्वरीय दायित्व का भारी बोझ था, कुछ समय निकाल कर एकांत में ईश्वर से मिलने के लिए तूर पर्वत पर गये और कहा कि हे मेरे पालनहार मैं तेरी ओर आ गया हूं ताकि तू मुझसे राज़ी हो जा।

ईश्वर की याद और उसके स्मरण में ध्यान केन्द्रित करने का सबसे महत्त्वपूर्ण मार्ग यह है कि मनुष्य, अपने और ईश्वर के मध्य दुआ और दिल की बात बयान करने के लिए समय निकाले। इसीलिए ईश्वरीय दूतों और इस्लाम धर्म के महापुरुषों विशेषकर पैग़म्बरे इस्लाम की जीवनियों पर दृष्टि डालने से यह बात समझ में आ जाती है कि इन महापुरुषों ने ईश्वर से एकांत में अपने दिल की बात करने और उससे दुआ करने के लिए समय निकाला। पैग़म्बरे इस्लाम सल्ललाहो अलैह व आलेही व सल्लम की हिरा गुफा में उपासना, इस प्रकार के प्रकाशमयी व पवित्र संपर्क का बेहतरीन उदाहरण है। पैग़म्बरे इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम ने अज्ञानता के काल में जब हर प्रकार की बुराई अपने चरम पर थी, इस गुफा के एक कोने में अपने प्रिय ईश्वर से अपने दिल की बातें बयान करते थे और उपासना तथा चिंतन मनन करते थे।

 

ईश्वर से स्नेह व प्रेम, ईश्वर की महान विभूतियों में से एक है जिसमें ईश्वर के कुछ विशेष बंदे ही शामिल हैं। यही कारण है कि ईश्वर को अनीसुल मोमेनीन अर्थात मोमेनीन का साथी कहा गया है। ईश्वर से एकांत में अपने दिल की बात कहने का एक साधन एतेकाफ़ है। मस्जिद में कम से कम तीन रहकर उपासना करने को एतेकाफ़ कहते हैं। इन तीन दिनों में मनुष्य को रोज़े रखने पड़ते हैं और सांसारिक सुखभोग व आनंदों से दूर रहना पड़ता है। एतेकाफ़ आत्मा की शुद्धि व अनन्य ईश्वर से अधिक स्नेह का बेहतरीन अवसर है और वास्तव में सांसारिक बंधनों से आंखें बंद करने और ईश्वर की शरण में जाने के अर्थ में है। वह नमाज़ें पढ़ना जो अनिवार्य तो नहीं होती बल्कि उनका पारितोषिक बहुत अधिक होता है, दुआएं और क़ुरआन पढ़ना जैसी बहुत सी उपासनाएं, एक प्रकार से सृष्टिकर्ता के साथ एकांतवास है और सृष्टि व सृष्टिकर्ता के मध्य एक पुल की भांति है कि इस मध्य रात में पढ़ी जाने वाली नमाज़ का विशेष स्थान है जिसमें नमाज़ पढ़ने वाला रात के अंधेरे में अपने पालनहार से दिल की बात कहता है।

 

समस्त ईश्वरीय धर्म ने लोगों को सामाजिक जीवन का प्रोत्साहन देते हुए यह भी कहा है कि लोग ईश्वर से एकांत में बातें करने के लिए कुछ समय निकालें। यह इस बात को दर्शाती है कि मनुष्य को किस सीमा तक इस अवसर की आवश्यकता है ताकि वह भौतिक चिंताओं व तनावों से दूर रहें। मनुष्य के अस्तित्व का ढांचा इस प्रकार है कि दूसरों से संपर्क के समय मानसिक व आत्मिक, व्यवहारिक व नैतिक दृष्टि से प्रभावित होता है और कभी कभी अनुचित लोगों से संपर्क के समय मनुष्य की शांति छिन जाती है और ईश्वर और उसके मध्य संबंध में रुकावट बन जाता है। मनुष्य को इस बात की आवश्यकता होती है कि लोगों की नज़रों से दूर कुछ क्षणों को ईश्वर से एकांत के लिए विशेष करे और उससे प्रेम व स्नेह और बातचीत को विस्तृत करे और अथाह प्रेम के साथ उसके पास आए क्योंकि ईश्वर हर कृपालु से अधिक कृपालु है। अपने बंदे की आवाज़ सुनता है और उसकी मांगों का उत्तर देता है और कभी भी उसे अकेला व बिना शरण के नहीं छोड़ता। यह अध्यात्मिक एकांत मनुष्य के लिए बहुत आनंददायक होता है।

 

निसंदेह ईश्वर से दिल की बातें बताने के महत्त्वपूर्ण प्रभाव होते हैं। बयान करने वाले मनुष्य को सदैव इस बात का आभास होता है कि कृपा और दया की छत्रछाया में वह शक्ति का सबसे बड़ा स्रोत है। इस आधार पर दूसरी समस्याएं उस पर विजयी नहीं हो सकतीं और दूसरी ओर उसे ऐसी आत्म शक्ति प्रदान करती है कि वह अपनी दिनचर्या की समस्याओं पर विजयी हो और परिपूर्णता की ओर अग्रसर रहे।

जो ईश्वर की याद में लीन रहता है निश्चित रूप से ईश्वर उसकी सहयता और उसका मार्गदर्शन करता है और उसके दुखों को दूर करता है और समस्याओं में उसे अकेला नहीं छोड़ता।

ईश्वरीय मार्ग पर चलने वाले, ईश्वर की पहचान और उससे निकट होने को एकांतवास की छत्रछाया में तय करते हैं। ईश्वर उस व्यक्ति पर विशेष दृष्टि रखता है जो एकांत में अपने दिल की बातों से उसे अवगत कराता है और उससे अपना दुखड़ा बयान करता है। यदि व्यक्ति इस चरण पर पहुंच जाए तो वह अपने जीवन में असंमजस और हैरानी का शिकार नहीं होता और उसके साथ सदैव एक ऐसा प्रकाश होता है जो जीवन के समस्त चरणों में उसकी सहायता करता है।  

 

कभी कभी कुछ लोग एकांतवास का सही अर्थ न समझने के कारण इसे संसार से कट कर रहना समझ बैठते हैं और इस प्रकार वह सीमा से अधिक बढ़ जाते हैं। इस्लाम धर्म ने दुनिया से कट जाने को कभी भी अपने अनुयाइयों के लिए पसंद नहीं किया है और पैग़म्बरे इस्लाम भी सामाजिक जीवन से कट कर रहने के बहुत विरोधी थे। इस प्रकार से कि उन्होंने अपने कुछ साथियों की जो अपने परिवार से कट कर अलग रहते थे, निंदा व आलोचना की। इस्लाम धर्म में एकांतवास के लिए कुछ शर्तें निर्धारित की गयी हैं। ईश्वर से एकांत में बातें करना या एकांतवास, उसी स्थिति में स्वीकार्य है जब अत्याचार या भ्रष्टा से दूरी या मनुष्य के अस्तित्व के अध्यात्मिक आयाम को सृदृढ़ करने या अपने बीच पायी जाने वाली कुछ बुराईयों को समाप्त करने के लिए हो। एक साथ नमाज़ पढ़ना, जुमे की नमाज़, हज, मुसलमान भाइयों से भेंट करना, लोगों के मध्य मतभेद को दूर करना, मुसलमानों की समस्याओं को दूर करना और सगे संबंधियों से मेल जोल जैसी धार्मिक शिक्षाएं, समाज और लोगों से पूर्ण रूप से कट कर रहने से पूर्ण विरोधाभासी हैं।

समाज के अलग थलग करने के कुछ चरण हैं। कभी इस बात की आवश्यकता होती है कि मनुष्य कभी समाज से दूर रहता है और कभी समाज में तो उपस्थित रहता है किन्तु उसके विचार, उसकी आस्थाएं और बुरे संस्कार, समाज से उसे दूर कर देते हैं। आवश्यक नहीं है कि यह दूरी समाज से दूर रहने का कारण बने किन्तु कुछ लोगों से ही संपर्क को सीमित कर देना भी समाज से कट कर रहने के अर्थ में हो सकता है। ईरान के समकालीन बुद्धिजीवी व धर्मगुरू आयतुल्लाह हसन ज़ादे आमुली का कहना है कि कटकर रहने का अर्थ, बुरे लोगों से मिलना जुलना बंद कर देना और बुरे लोगों से साथ उठना बैठना है अर्थात पापियों के साथ उठने बैठने और उनसे दूर रहने को कहा गया है वरन् इस्लाम धर्म नेक व अच्छे लोगों के साथ उठने बैठने पर बल देता है।

नई टिप्पणी जोड़ें