सच का बोल बाला, झूठे का मुंह...

सच का बोल बाला, झूठे का मुंह...

हम लोगों में से संभवतः सभी ने कभी न कभी अपने जीवन में झूठ का सहारा लिया होगा किंतु प्रश्न यह है कि हम क्यों कभी झूठ बोलने पर विवश हो जाते हैं? जबकि अधिकाशं लोगों को इससे कष्ट होता है। मनोवैज्ञानिक झूठ बोलने के कारण बताते हुए कहते हैं कि हम लड़ाई झगड़े से बचना चाहते हैं, हम दूसरों को अप्रसन्न या क्रोधित नहीं करना चाहते, हम किसी की भावनाओं को आहत नहीं करना चाहते, या किसी की छवि को खराब या किसी की भावना को कमज़ोर करना चाहते हैं, हम दूसरों की नज़रों में सम्मानीय बनना चाहते हैं, अधिक शक्ति पाना चाहे हैं, अपने बारे में हम कटु वास्तविकता का सामना नहीं करना चाहते, हम अपनी गलतियों को स्वीकार नहीं करना चाहते, हम चाहते हैं कि फिलहाल मामला रफा दफा हो जाए ताकि शायद भविष्य को सब कुछ ठीक हो जाए। इसी प्रकार कभी कभी लोग इस लिए भी झूठ बोलते हैं ताकि उन्हें कमज़ोर या मूर्ख न समझा जाए। इसी प्रकार दंड व अपमान का भय तथा कामना की पूर्ति न होने की चिंता आदि एसे कारक हैं जिसके अंतर्गत मनुष्य झूठ बोलने पर विवश हो जाता है।

यहां पर ध्यान देने योग्य बिन्दु यह है कि झूठ बोलने में सच बोलने की तुलना में अधिक परिश्रम करना पड़ता है। झूठे को सब से पहले स्वंय को झूठे वातावरण के अनुसार ढालना और फिर उसी झूठ के अनुसार जीवन व्यतीत करना होता है। अर्थात पहले उसे स्वंय को अपने झूठ के अनुरुप ढालना होता है और यह झूठे के जीवन का अत्यन्त तनावपूर्ण कार्य होता है। इसके साथ ही झूठ खुलने का भय भी उसकी व्याकुलता को बढ़ाता है। इसी लिए झूठ बोलना न केवल यह कि सामाजिक सिद्धान्तों के विपरीत है बल्कि झूठे लोग प्रायः स्वंय भी असामाजित तत्वों में बदल जाते हैं। इस में किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि झूठ, काम संबंधी , पारिवारिक संबंधों तथा मित्रों से मेल जेल को प्रभावित करता है और इस प्रकार के सभी संबंधों के लिए अत्याधिक घातक समझा जाता है। इसके अतिरिक्ति झूठ व्यक्ति बल्कि समाज का मानसिक संतुलन बिगाड़ देता है इसी लिए धार्मिक शिक्षाओं में झूठ को अत्याधिक निंदनीय बुराई, पाप और बहुत सी बुराईयों की जड़ा कहा गया है और इसके कुप्रभावों के दृष्टिगत झूठ को धर्म में अत्याधिक बुरा काम , नैतिक बुराई तथा महापाप की संज्ञा दी गयी है। धार्मिक शिक्षाओं के अनुसार, झूठ लोक परलोक में झूठे को ईश्वरीय कृपा से वंचित कर देता है।

चूंकि सृष्टि की रचना, सत्य के आधार पर है और पूरे ब्रहमाण्ड में सत्य का नियम लागू है, झूठ, प्रकृति व सृष्टि के विपरीत धारा का काम है और यहां तक कि सत्य प्रेमी मानव प्रवृत्ति भी उसे नापसन्द करती है। इसी लिए जहां कहीं भी झूठ व दोमुखापन होता है वहां सामान्य परिस्थतियां नहीं रहती। कुरआन  के महान समीक्षक, अल्लामा सैयद मुहम्मद हुसैन तबातबाई इस संदर्भ में कहते हैंः झूठ चाहे जितना मनमोहक व मज़बूत हो, सत्य व न्याय पर आधारित सृष्टि की व्यवस्था के प्रतिकूल होता है और बाकी नहीं रहता और झूठा अन्ततः एसा काम कर बैठता है जिससे वास्तविकता स्पष्ट हो जाती है, क्योंकि हर घटना के साथ, कई कारकों, प्रभावों तथा विभिन्न बातों का अटूट संबंध होता है और झूठ बोलने वाले को उन सब का ज्ञान नहीं होता और झूठ चूंकि सत्य के विरुद्ध होता है इस लिए अन्ततः विश्व में उपस्थित वास्तविकताओं के किसी न किसी भाग से टकरा जाता है और इस प्रकार से उसका झूठ होना स्पष्ट हो जाता है क्योंकि विश्व व्यवस्था, सत्य व वास्विकता पर स्थापित है और सृष्टि से सभी स्तंभ, सत्य के आधार पर एक दूसरे से जुड़े हैं। ईश्वर ने कुरआन में कहा है कि निश्चित रूप ईश्वर उसका मार्गदर्शन नहीं करता जो झूठा और अत्याधिक इन्कार करने वाला हो।

इस आयत में ईश्वर ने झूठे को, अपनी कृपा व मार्गदर्शन से दूर बताया है। हमें पता है कि मार्गदर्शन और पथ भ्रष्टता ईश्वर के हाथ में है इस अर्थ में कि जब स्वंय मनुष्य के कर्मों के कारण मार्गदर्शन और पथभ्रष्टता का वातावरण अनुकूल हो जाता है तो ईश्वर हरेक को उसकी योग्यता के अनुसार पारितोषिक देता है। मार्गदर्शन चाहने वालों का हाथ थामता है और उन्हें उनकी गंतव्य तक पहुंचा देता है तथा बुराईयों की राह पर क़दम बढ़ाने वालों को अपनी कृपा की छत्रछाया से दूर कर देता है ताकि वह अंधकारों में भटकते रहें और किसी भी दशा में कल्याण के गतंव्य तक न पहुंचे। और इस प्रकार की पथभष्टता का वातावरण बनाने वाला सब से अधिक प्रभावशाली कारक, झूठ है।

प्रत्येक बुद्धिमान मनुष्य, इस बात से अप्रसन्न होता है कि उससे झूठ बोला जाए और यही चीज़ झूठ के बुरे होने और प्रवृत्ति के विपरीत होने का चिन्ह है। इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम कहते हैं कि बुद्धिमान व्यक्ति कभी भी झूठ नहीं बोलता,  भले ही उसकी इच्छा पूर्ति उसी झूठ पर निर्भर हो। झूठ लोगों को गलत दिशा में ले जाना तथा उन्हें असत्य स्वीकार करने पर तैयार करने का प्रयास है कि जो एक प्रकार की नीचता  व धोखा है। इसी लिए हज़रत अली अलैहिस्सलाम फरमाते हैं कि झूठ नीचता व धोखा है। इस्लामी कथनों में झूठ को पापों की कुंजी कहा गया है। इमाम हसन अस्करी अलैहिस्सलाम कहते हैं : समस्त बुराइयों को एक कमरे में बंद कर दिया गया है और उसकी चाभी झूठ है।  झूठ और अन्य पापों का एक दूसरे से संबंध इस दृष्टि से है कि जो झूठ बोलता है वह स्वंय को अपमान से बचाने के लिए सब कुछ करने पर तैयार हो जाता है। दूसरे शब्दों में झूठ, मनुष्य को अन्य पापों का मार्ग दिखाता है। पापी मनुष्य कभी सच नहीं बोलता क्योंकि सच बोलने से उसकी प्रतिष्ठा दांव पर लग जाएगी इसी लिए पापी मनुष्य अपने पापों पर पर्दा डालने के लिए प्रायः झूठ का सहारा लेता है।

झूठ और पापों के मध्य संबंध के बारे में महापुरुषों के कथनों में बारम्बार संकेत किया गया है। उदाहरण स्वरूप हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि, किसी को धर्म पर ईमान के स्वाद का उस समय तक पता नहीं चल सकता जब तक कि वह झूठ को छोड़ न दे, यहां तक कि हंसी मज़ाक में भी।

निश्चित रूप से ईमान, झूठ व दोमुखे पन के साथ एक ह्रदय में नहीं रह सकता। पैगम्बरे इस्लाम ने झूठ को अनेकेश्वरवाद की श्रेणी में रखा है। वे कहते हैं कि क्या मैं आप लोगों को महापाप के बारे में बताऊं? सब से बड़ा पाप अनेकेश्वरवाद, माता पिता से दुर्व्यवहार और झूठ बोलना है।  झूठ का एक अन्य प्रभाव विश्वास गंवाना होता है। हमें भली भांति मालूम है कि किसी भी समाज की पूंजी, एक दूसरे पर विश्वास होता है और जो वस्तु इस पूंजी का नाश करती है वह झूठ और धोखा है। इसी प्रकार एक झूठा व्यक्ति किसी भी दशा में अन्य लोगों का विश्वस्त नहीं हो सकता। इस्लामी शिक्षाओं में झूठ से बचने और सच बोलने पर जो इतना बल दिया गया है उसका मूल कारण भी यही है। इस्लामी शिक्षाओं व निर्देशों में कहा गया है कि महान इस्लामी हस्तियों ने झूठों सहित कुछ विशेष प्रकार के लोगों से मेल जोल रखने से कड़ाई से रोका है। क्योंकि झूठे लोगों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि झूठे से मित्रता करने से बचो कि वह मृगतृष्णा की भांति होता है दूर की वस्तु को तुम्हारी नज़र में निकट और निकट वस्तु को तुम्हारे लिए दूर कर देगा।

कुरआने मजीद भी झूठों को ईमान व आस्था वाला नहीं समझता और उन्हें ईश्वर का इन्कार करने वालों की सूचि में गिनता है। जैसा कि सूरए निहल की आयत नबंर १०५ में कहा गया है कि केवल वही लोग ईश्वर पर झूठ बांधते हैं जो ईश्वर के चिन्हों में विश्वास नहीं रखते और असली झूठे वही लोग हैं।  इस आयत का कारण यह है कि कभी कभी कुरआने मजीद में कुछ निर्देशों में बदलाव आ जाता था और पुराने नियम के स्थान पर नया नियम आ जाता था। जिसे बहाना बना कर पैगम्बरे इस्लाम के शत्रुओं ने उन पर यह आरोप लगाया कि वे झूठ बोलते हैं या फिर यह कहते थे कि पैगम्बरे इस्लाम का कोई शिक्षक है जो उन्हें यह आयातें सिखाता है। कुरआने मजीद इस प्रकार के सभी आरोपों का उत्तर देते हुए कहता है कि पैगम्बर, ईश्वरीय संदेशों को जो उन्हें रूहुलकुदुस नामक विशेष फरिश्ते से प्राप्त होता है, लोगों तक पहुंचाते हैं और उनकी हर बात से सच्चाई व सत्यता झलकती है। झूठ वह लोग बोलते है जिन्हें ईश्वर में विश्वास नहीं होता। अर्थात, ईमान और झूठ एक साथ नहीं रह सकता। और वास्तविक ईमान वाले लोगों की ज़बान पर सच के अलावा कुछ नहीं आता।

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