ईश्वरीय दिन

ईश्वरीय दिन

ईरान की इस्लामी लोकतांत्रिक व्यवस्था उस महान क्रान्ति का प्रतिफल है जिसकी प्रवृत्ति, जिसके लक्ष्य तथा जिसके व्यवहारिक होने की प्रक्रिया सब कुछ अदभुत् और अद्वितीय है। इस क्रान्ति की प्रवृत्ति को समझ पाने में पश्चिमी सरकारों की अक्षमता तथा इस क्रान्ति का वर्चस्ववादी शक्तियों के हितों और नीतियों से टकराव के कारण इस्लामी गणतंत्र व्यवस्था की स्थापना के समय से ही पश्चिमी देशों ने शत्रुतापूर्ण नीति अपनाई। इन शक्तियों ने ईरान के तथ्यों और ज़मीनी सच्चाई को झुठलाने का प्रयास किया। इन देशों ने ईरान की लोकतांत्रिक व्यवस्था को पश्चिम की लिबरल डेमोक्रेसी के आधार पर परखते हुए इसे अलोकतांत्रिक बताया। जबकि ईरान की इस्लामी क्रान्ति एक जनक्रान्ति है जो इस्लाम धर्म के उच्च राजनैतिक विचारों से प्रेरित है। जब इस्लामी क्रान्ति का शब्द प्रयोग किया जाता है, जिसे वर्तमान विश्व की अटल सच्चाई समझा जाता है, उसके तीन सिद्धांत और संदेश हैं।

पहला संदेश यह है कि इस्लाम को राजनीत से अलग नहीं रखा जा सकता। इस्लाम एसा धर्म है जो राजनैतिक विचारधारा से जुड़ा हुआ है और यदि राजनीति को इससे अलग कर दिया गया तो इसका अर्थ यह है कि इस्लाम धर्म का एक भाग रिक्त हो गया है।

दूसरा संदेश यह है कि इस्लाम की राजनैतिक विचारधारा अति उपयोगी व सैद्धांतिक विचारधारा है जिसके अपने नियम और निर्धारित फ्रेमवर्क है जिसके आधार पर क्रान्ति का आरंभ तथा सरकार का गठन किया जा सकता है।

तीसरा संदेश यह है कि ईरान की इस्लामी क्रांति एसी क्रान्ति है जो इस्लाम की राजनैतिक विचारधारा से प्रेरित है। इस्लाम शिक्षाओं में इस तथ्य पर बहुत अधिक बल दिया गया है कि राजनीति, ईश्वरीय धर्मों का अटूट भाग है यही कारण है कि ईश्वरीय दूतों ने सदैव धार्मिक शासन की स्थापना का प्रयास किया ताकि मानव समाज में ईश्वरीय मान्यताओं को विधिवत रूप से लागू किया जा सके। पैग़म्बरे इस्लाम को केवल इस लिए पैग़म्बर बनाकर नहीं भेजा गया कि एक जाति को अज्ञानता और अत्याचार से मुक्ति दिलाएं। पैग़म्बरे इस्लाम ने सभी कालों में समस्त मानवता की स्वतंत्रता का संदेश दिया। इसी लिए पैग़म्बरे इस्लाम ने परिपूर्ण इंसान के रूप में ईश्वरीय संदेश प्राप्त करने वाले की हैसियत से जो नियम और क़ानून परिचित करवाए वे किसी समय अथव स्थान विशेष तक सीमित नहीं हैं। इस्लाम के सारे धार्मिक, राजनैतिक और आर्थिक नियम प्रलय तक लागू और उपयोगी रहेंगे।

इस्लाम धर्म के नियमों का स्थाइत्व और इनका समय की दृष्ट से असीम होना इस बात की आवश्यकता और अनिवार्यता को रेखांकित करता है कि कोई व्यवस्था हो जो इन नियमों के प्रभुत्व को सुनिश्चित करे तथा इन्हें लागू करवाए।

अतः इस्लामी समाजों में इस्लामी शासन का होना आवश्यक है ताकि इस्लामी नियमों को लागू किया जा सके, वरना मुस्लिम समुदाय अराजकता की दिशा में आगे बढ़ने लगेगा तथा सभी मामले अस्त व्यस्त होकर रह जाएंगे। चूंकि इस्लामी समाज के अनुशासन की रक्षा पर इस्लामी शिक्षाओं और निर्देशों में बहुत अधिक बल दिया गया है और अराजकता और कुव्यवस्था को आलोचनीय ठहराया गया है अतः यह बात स्पष्ट है कि इस्लामी समाज की रक्षा धार्मिक शासन की स्थापना के बग़ैर संभव नहीं है। अतः इस्लाम धर्म के अनुसार शासन की स्थापना की अनिवार्यता में कोई संदेह नहीं है। इसके अलावा इस्लामी देश की सीमाओं की रक्षा तथा बाहरी शक्तियों के आक्रमणों और अतिक्रमणों की रोकथाम बुद्धि और धर्म की दृष्टि से अनिवार्य है और यह लक्ष्य इस्लामी शासन के गठन के बग़ैर संभव नहीं है। इस्लामी समाज में यदि विवादों के फ़ैसले इस्लाम के अनुरूप करने हैं तो इसके लिए भी इस्लामी शासन व्यवस्था का होना आवश्यक है। हमने जिन बिंदुओं की ओर संकेत किया वह मुस्लम समाज की मूल आवश्यकताओं में गिने जाते हैं और यह असंभव है कि तत्वदर्शी व सर्वज्ञानी ईश्वर इन आवश्यकताओं की उपेक्षा कर दे।

इस्लाम धर्म, इस्लामी शिक्षाओं और नियमों का गहरा ज्ञान रखने वाले इमाम ख़ुमैनी ने इन्हीं तर्कों तथा कुछ अन्य तार्किक, क़ुरआनी बिंदुओं तथा पैग़म्बरे इस्लाम के कथनों के आधार पर ईरान की जनता को एक अत्याचारी शासन के चंगुल से मुक्ति दिलाने के लिए विद्रोह किया तथा इस्लामी क्रान्ति की सफलता से पहले इराक़ के पवित्र नगर नजफ़ में आठ साल तक अपनी क्लासों में वेलायते फ़क़ीह के शासन से संबंधित विचारों पर बहस की। अलबत्ता इमाम ख़ुमैनी से पहले भी कुछ वरिष्ठ धर्मगुरुओं ने वेलायते फ़क़ीह के शासन के विषय को उठाया था किंतु कोई भी धर्मगुरू इस विषय को शासन की स्थापना के प्रारूप में ढालने के चरण तक नहीं पहुंचा। वेलायते फ़क़ीह के बारे में इमाम ख़ुमैनी की पुस्तक इस्लामी शासन के शीर्षक के साथ प्रकाशित हो चुकी है। इस्लाम की राजनैतिक व्यवस्था के अंतर्गत इमाम इस्लाम व्यवस्था के  नियमों को परिभाषित करने और उन्हें समस्त क्षेत्रों में लागू करने का दायित्व संभालता है। इमाम ख़ुमैनी इस इस्लाम को विशुद्ध इस्लाम ठहराते हैं और कहते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम के काल में ईश्वरीय नियमों और क़ानून को बयान करने तथा सभी क्षेत्रों में इन नियमों को लागू करवाने का दायित्व पैग़म्बरे इस्लाम पर था। पैग़म्बरे इस्लाम के बाद इस्लाम के नियमों को बयान करने और सभी क्षेत्रों में इन नियमों को लागू करवाने का दायित्व पैग़म्बरे इस्लाम से उनके उत्तराधिकारियों को स्थानान्तरित हो गया। यह दायित्व सौंपे जाने का आधार पवित्रता, न्याय और ज्ञान है।

चूंकि इमाम न्याय की दृष्टि से सर्वोच्च स्थान पर होते हैं, वे हर प्रकार की भूल और ग़लती से दूर होते हैं तथा इस्लामी शिक्षाओं और क़ानूनों को बयान करने और समझाने के लिए आवश्यक ज्ञान उनके पास संपूर्ण रूप में मौजूद होता है, यह ज्ञान उन्हें पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम से उन्हें मिलता है। इन हस्तियों पर ईश्वर की विशेष कृपा दृष्टि है अतः यही वे लोग हैं जो पैग़म्बरे इस्लाम के उत्तराधारी बनने और जनता का मार्गदर्शन करने के योग्य हैं। क़ुरआने मजीद में भी इस बात पर बल दिया गया है कि पैग़म्बरे इस्लाम के बाद इमाम, जनता का मार्गदर्शन करेंगे। ईश्वर क़ुरआने मजीद के सूरए निसा की आयत क्रमांक ५९ में कहता हैः

« یَا أَیُّهَا الَّذِینَ آمَنُوا أَطِیعُوا اللّهَ وَ أَطِیعُوا الرَّسُولَ وَ أُولِی الأَْمْرِ مِنْکُمْ ...»

अर्थातः हे वे लोग हो ईमान लाए हो ईश्वर, उसके पैग़म्बरे तथा उलिल अम्र का आज्ञापालन करो।

इस प्रकार सूरए निसा की आयत नम्बर ८३ में ईश्वर कहता हैः

«وَ إِذا جاءَهُمْ أَمْرٌ مِنَ الأَْمْنِ أَوِ الْخَوْفِ أَذاعُوا بِهِ وَ لَوْ رَدُّوهُ إِلَی الرَّسُولِ وَ إِلی أُولِی الأْمْرِ مِنْهُمْ لَعَلِمَهُ الَّذِینَ یَسْتَنْبِطُونَهُ مِنْهُمْ ... »

अर्थातः जब उन्हें शांति या भय की सूचना मिलती है तो जांच किए बिना ही उसे फैलाने लगते हैं जबकि उन्हें चाहिए कि यह ख़बर पैग़म्बर और ऊलिल अम्र के हवाले करें तो वे मामलों की जड़ से अवगत हो जांएगे।

इस प्रकार यह तथ्य सामने आ जाता है कि लोगों को देश के महत्वपूर्ण विषयों में ऊलिल अम्र लोगों अर्थात एसी हस्तियों की आवश्यकता होती है जो अपने ज्ञान से समाज का मार्गदर्शन करते हैं और जिन्हें समाज के लोगों पर संपूर्ण अधिकार होता है।

पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने अनेक कथनों में यह स्पष्ट कर दिया है कि उनके उत्तराधिकारी कौन लोग होंगे। इनमें एक महत्वपूर्ण कथन है जिसे हदीसे सक़लैन कहा जाता है। पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा कि मैं तुम्हारे बीच से चला जाउंगा किंतु दो महान चीज़ें तुम्हारे बीच छोड़ जाउंगा, एक ईश्वरी ग्रंथ क़ुरआन और दूसरे मेरे परिजन हैं। यदि तुम इनके पदचिन्हों पर चले तो कभी भ्रमित न होगे और यह दोनों प्रलय के दिन कौसर नामक हौज़ पर मुझसे मुलाक़ात करने तक कभी भी एक दूसरे से अलग नहीं होंगे।

क़ुरआन की इन आयतों और पैग़म्बरे इस्लाम के कथनों से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के बाद इस्लामी समाज के नेतृत्व का दायित्व इमामों पर है। अर्थात पैग़म्बरे इस्लाम के बाद इस्लामी शिक्षाओं और नियमों को बयान और लागू करने का दायित्व इमामों पर है जो पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों में हैं। दूसरे शब्दों में यह कहना चाहिए कि पैग़म्बरे इस्लमा के बाद समाज में न्याय की स्थापना  और समाज के मार्गदर्शन का दायित्व इमामों पर है जो उन सभी क्षेत्रों में पैग़म्बरे इस्लाम के उत्तराधिकारी हैं जिन क्षेत्रों में पैग़म्बरे इस्लाम ने इस्लाम धर्म के नियमों को लागू किया।

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