हमारी लाइफ़ स्टाइल पर मीडिया का प्रभाव

हमारी लाइफ़ स्टाइल पर मीडिया का प्रभाव

उपभोग, नए युग के मनुष्य के व्यवहार में सबसे स्पष्ट दिखाई देने वाली वस्तु है और इसके माध्यम से आज के समाज की सोच को समझा जा सकता है। शैली, चयन पर निर्भर होती है और चयन, सूचनाओं तथा संपर्क की प्रक्रिया के फल पर निर्भर होता है। संचार माध्यम ये सूचनाएं लोगों तक पहुंचाते हैं कि विभिन्न क्षेत्रों में किसी व्यक्ति के पास क्या विकल्प हैं और वह क्या चयन कर सकता है। वे अपनी इन अर्थपूर्ण सूचनाओं के माध्यम से लोगों की मान्यताओं, सोच, आकांक्षाओं, चयन और व्यवहार और वस्तुतः उनकी लाइफ़ स्टाइल के संबंध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अलबत्ता संचार माध्यमों के संबंध में लोगों का रुझान एकसमान नहीं होता बल्कि संचार माध्यमों से जिसका लगाव जितना अधिक होगा उतना ही उस पर संचार माध्यमों का प्रभाव भी अधिक होगा।

लाइफ़ स्टाइल पर प्रभाव डालने वाले तत्वों में संस्कृति की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस संबंध में संस्कृति, उपभगों की वस्तुओं के बारे में लोगों की पसंद, शैली, पहचान और उन्हें स्वीकार करने की क्षमता पर सीधा प्रभाव डालती है और जीवन शैली को पूर्णतः भिन्न बना सकती है। इस बीच टेलीविजन सबसे महत्वपूर्ण तत्व के रूप में विभिन्न आयु के लोगों के व्यवहार को बनाता बिगाड़ता है। बहुत से परिवार अपने प्रतिदिन के समय का एक भाग टीवी देख कर बिताते हैं और मनोरंजन के साथ ही उसके समाचारों और सूचनाओं से भी लाभ उठाते हैं। इसी प्रकार टीवी श्रंखलाएं भी बहुत से लोगों का मनोरंजन करते हुए उनके रिक्त समय को भर देती है और उन्हें निरंतर टीवी के सामने बैठने पर बाध्य कर देती हैं।

स्पष्ट है कि टीवी के इन सभी कार्यक्रमों में बड़ी सूक्ष्मता के साथ प्रभावी शैलियों को प्रयोग किया जाता है किंतु मान्यताओं और जीवन शैली का स्थानांतरण टीवी श्रंखलाओं के माध्यम से और जनमत को पसंद आने वाली कहानियों में छिपा कर किया जाता है। इसके बाद ये दर्शक होते हैं जो प्रस्तुत की गई जीवन शैली और मान्यताओं का अनुसरण करके उन्हें अपना लेते हैं। वे कलाकारों के पहनावे, साज-सज्जा, घरों, स्थानों, गाड़ियों और खाने पीने की वस्तुओं को पसंद करते हैं और उन्हें अपने जीवन में अपनाने और प्रयोग करने का प्रयास करते हैं।

टेलीविजन प्रयास करता है कि मनुष्य के जीवन की पुनर्रचना करे और इस पुनर्रचना में वह वास्तविकताओं का अनुसरण करता है किंतु जीवन के नए काल्पनिक चित्र प्रस्तुत करता है जो उसकी वास्तविकताओं से भिन्न होते हैं। टीवी केवल इस बात का प्रयास करता है कि वह जिस संसार का चित्रण करता है वही विश्वसनीय दिखाई दे और दर्शक यह मान ले कि यह वही वास्तविक संसार है। टेलीविजन का लक्ष्य वे लोग होते हैं जो बिना किसी प्रतिरोध के संचार माध्यमों के साथ हो जाते हैं बल्कि उसके साथ अपनाइयत का भी प्रदर्शन करते हैं। यही वह समय होता है जब समाचार और चर्चा जैसे गंभीर कार्यक्रमों के विपरीत, श्रंखलाओं का संदेश अधिक प्रभावी होता है और वह देखने वाले की जीवन शैली को बदल देता है।

जीवन शैली को परिवर्तित करने हेतु टेलीविजन की एक पुरानी शैली, दिखाए जाने वाले कार्यक्रम के विभिन्न भागों में किसी एक विशेष वस्तु का प्रदर्शन है। एक श्रंखला की विभिन्न कड़ियों में किसी उपभोग वस्तु या ऐसे ही किसी अन्य प्रतीक को दिखाना उस वस्तु के प्रचार का बहुत अधिक अवसर प्रदान करता है। उदाहरण स्वरूप किसी फ़िल्म या टीवी श्रंखला का मुख्य कलाकार एक विशेष मार्क का पेय पीता है या किसी विशेष माडल की गाड़ी में बैठता या फिर एक विशेष कंपनी का लेपटाप प्रयोग करता है तो इससे उस पेय, गाड़ी या लेपटाप कंपनी का प्रचार होता है। ऐसे दृश्यों के लिए उत्पादन कंपनियां, बहुत अधिक पैसे ख़र्च करती हैं और कार्यक्रमों के माध्यम से लोगों को अपनी उपभोग वस्तु से परिचित करवाती हैं।

टेलीवीजन के प्रचार की एक अन्य शैली भी है जिसमें शायद इतना खुल कर प्रचार न किया जाए किंतु यह अधिक प्रभावी होती है। इस शैली में टीवी, उपभोग की जीवन शैली और दर्शकों को उपभोग की वस्तुएं ख़रीदने के लिए प्रेरित करने का एक माध्यम होता है। यदि कोई टीवी देखता है तो वह उस जीवन शैली को अपनाने पर बाध्य होगा और उपभोग के जीवन की सराहना करेगा। इस शैली में आवश्यकता की परिभाषा भी बदल जाती है और कभी भी प्रथम व द्वितीय श्रेणी की आवश्यकताओं का स्थान आपस में बदल जाता है और झूठी आवश्यकता अस्तित्व में आ जाती है। अतः वह व्यक्ति प्रयास करता है कि अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करे और चूंकि टीवी द्वारा उत्पन्न की गई झूठ आवश्यकताओं को वह अपने लिए प्राथमिक आवश्यकताएं समझता है इस लिए उपभोग की संस्कृति में ग्रस्त हो जाता है और अनावश्यक वस्तुओं के लिए अधिक पैसे ख़र्च करता है।

जर्मनी के प्रख्यात समाजशास्त्री हर्बर्ट मारकोज़े का कहना है कि संचार मीडिया के प्रचार के परिणाम स्वरूप सामने आने वाला उपभोग, मनुष्य में एक द्वितीय प्रवृत्ति उत्पन्न करता है और उसे पहले से अधिक, समाज में प्रचलित हित साधने के वातावरण पर निर्भर कर देता है। विभिन्न वस्तुओं का उभोग और उन्हें निरंतर बदलते रहना जो वस्तुतः उस पर थोपी गई होती हैं, उसे जीवन को खोने की सीमा तक भी ले जा सकता है और ख़तरे की कल्पना से भी बढ़ कर उसके निकट कर सकता है। पश्चिमी समाजों की वर्तमान स्थिति इस दावे को बल प्रदान करती है कि जीवन स्तर के ऊपर जाने के बाद कम ही लोग अपनी ख़रीदारी की क्षमता पर ध्यान देते हैं। इस बीच टेलीविजन के कार्यक्रम विशेष कर टीवी धारावाहिक, धनाड्य लोगों के जीवन का चित्रण करके हर सामाजिक व आर्थिक स्तर के परिवारों तक इन्हें पहुंचा देते हैं।

अमरीकी लेखक सेबियान गोंज़ालेस, अमरीकी समाज में उपभोग की संस्कृति की आलोचना करते हुए लिखते हैं कि हम सभी अमरीकी प्राचीन काल से एक अलिखित सामाजिक समझौते पर विश्वास करते आए हैं जिसके आधार पर जब आप कोई फ़िल्म देखने के लिए सिनेमा हाल में जाते हैं तो फिर दर्शकों को विज्ञापन दिखाने की कोई आवश्यकता नहीं होगी क्योंकि पूरी फ़िल्म ही विज्ञापन है। यही कारण है कि केबल से प्रसारित होने वाले चैनलों को काफ़ी लोकप्रियता प्राप्त है क्योंकि उनमें विज्ञापन नहीं होते जबकि उनमें दिन रात फ़िल्मों एवं टीवी धारावाहिकों के माध्यम से वस्तुओं का प्रचार किया जाता है। उदाहरण स्वरूप किसी फ़िल्म या धारावाहिक के एक दृश्य में कोई महिला रसोई में बर्तन धो रही होती है। अब आप उसके घर को देखिए, निश्चित रूप से आपको ऐसी वस्तुएं दिख जाएंगी जो केवल संभ्रांत लोगों के घरों में ही होती हैं किंतु फ़िल्में और टीवी के धारावाहिक, चरित्रों के माध्यम से आपको अपनी ओर आकृष्ट कर लेते हैं और न केवल उनका जीवन बल्कि उनका खान-पान, व्यायाम, वस्त्र पहनने की शैली और इसी प्रकार की अन्य बातें आपके मन पर अमिट प्रभाव डालती हैं।

फ़िल्म व टीवी धारावाहिक बनाने का उद्योग मेकअप, लाइटिंग, संकलन, वस्त्रों की डिज़ाइनिंग, स्पेशल इफ़ेक्ट्स और संगीत इत्यादि के माध्यम से बड़ी दक्षता के साथ फ़िल्मों व धारावाहिकों को दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत करता है। इनमें चेहरों के अंतर के साथ कहानी लगभग एक समान होती है और उसे इतना दोहराया जाता है कि दर्शक स्वयं को उसका एक भाग समझ कर वैसी ही जीवन शैली अपनाने लगता है। इस परिस्थिति का मुक़ाबला करने के लिए लोगों की सांस्कृतिक शक्ति और इस प्रकार के ख़तरों के संबंध में लोगों के ज्ञान में वृद्धि की आवश्यकता की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है। लोगों को यह समझाना अत्यंत आवश्यक है कि उनकी लाइफ़ स्टाइल में परिवर्तन, उनकी आर्थिक स्थिति से अधिक संचार माध्यमों के प्रचारों से उत्पन्न होने वाली उनकी सोच में परिवर्तन पर निर्भर है।

प्रिय पाठको उपभोग, नए युग के मनुष्य के व्यवहार में सबसे स्पष्ट दिखाई देने वाली वस्तु है और इसके माध्यम से आज के समाज की सोच को समझा जा सकता है। शैली, चयन पर निर्भर होती है और चयन, सूचनाओं तथा संपर्क की प्रक्रिया के फल पर निर्भर होता है। संचार माध्यम ये सूचनाएं लोगों तक पहुंचाते हैं कि विभिन्न क्षेत्रों में किसी व्यक्ति के पास क्या विकल्प हैं और वह क्या चयन कर सकता है। वे अपनी इन अर्थपूर्ण सूचनाओं के माध्यम से लोगों की मान्यताओं, सोच, आकांक्षाओं, चयन और व्यवहार और वस्तुतः उनकी लाइफ़ स्टाइल के संबंध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अलबत्ता संचार माध्यमों के संबंध में लोगों का रुझान एकसमान नहीं होता बल्कि संचार माध्यमों से जिसका लगाव जितना अधिक होगा उतना ही उस पर संचार माध्यमों का प्रभाव भी अधिक होगा।

लाइफ़ स्टाइल पर प्रभाव डालने वाले तत्वों में संस्कृति की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस संबंध में संस्कृति, उपभगों की वस्तुओं के बारे में लोगों की पसंद, शैली, पहचान और उन्हें स्वीकार करने की क्षमता पर सीधा प्रभाव डालती है और जीवन शैली को पूर्णतः भिन्न बना सकती है। इस बीच टेलीविजन सबसे महत्वपूर्ण तत्व के रूप में विभिन्न आयु के लोगों के व्यवहार को बनाता बिगाड़ता है। बहुत से परिवार अपने प्रतिदिन के समय का एक भाग टीवी देख कर बिताते हैं और मनोरंजन के साथ ही उसके समाचारों और सूचनाओं से भी लाभ उठाते हैं। इसी प्रकार टीवी श्रंखलाएं भी बहुत से लोगों का मनोरंजन करते हुए उनके रिक्त समय को भर देती है और उन्हें निरंतर टीवी के सामने बैठने पर बाध्य कर देती हैं।

स्पष्ट है कि टीवी के इन सभी कार्यक्रमों में बड़ी सूक्ष्मता के साथ प्रभावी शैलियों को प्रयोग किया जाता है किंतु मान्यताओं और जीवन शैली का स्थानांतरण टीवी श्रंखलाओं के माध्यम से और जनमत को पसंद आने वाली कहानियों में छिपा कर किया जाता है। इसके बाद ये दर्शक होते हैं जो प्रस्तुत की गई जीवन शैली और मान्यताओं का अनुसरण करके उन्हें अपना लेते हैं। वे कलाकारों के पहनावे, साज-सज्जा, घरों, स्थानों, गाड़ियों और खाने पीने की वस्तुओं को पसंद करते हैं और उन्हें अपने जीवन में अपनाने और प्रयोग करने का प्रयास करते हैं।

टेलीविजन प्रयास करता है कि मनुष्य के जीवन की पुनर्रचना करे और इस पुनर्रचना में वह वास्तविकताओं का अनुसरण करता है किंतु जीवन के नए काल्पनिक चित्र प्रस्तुत करता है जो उसकी वास्तविकताओं से भिन्न होते हैं। टीवी केवल इस बात का प्रयास करता है कि वह जिस संसार का चित्रण करता है वही विश्वसनीय दिखाई दे और दर्शक यह मान ले कि यह वही वास्तविक संसार है। टेलीविजन का लक्ष्य वे लोग होते हैं जो बिना किसी प्रतिरोध के संचार माध्यमों के साथ हो जाते हैं बल्कि उसके साथ अपनाइयत का भी प्रदर्शन करते हैं। यही वह समय होता है जब समाचार और चर्चा जैसे गंभीर कार्यक्रमों के विपरीत, श्रंखलाओं का संदेश अधिक प्रभावी होता है और वह देखने वाले की जीवन शैली को बदल देता है।

लाइफ़ स्टाइल को परिवर्तित करने हेतु टेलीविजन की एक पुरानी शैली, दिखाए जाने वाले कार्यक्रम के विभिन्न भागों में किसी एक विशेष वस्तु का प्रदर्शन है। एक श्रंखला की विभिन्न कड़ियों में किसी उपभोग वस्तु या ऐसे ही किसी अन्य प्रतीक को दिखाना उस वस्तु के प्रचार का बहुत अधिक अवसर प्रदान करता है। उदाहरण स्वरूप किसी फ़िल्म या टीवी श्रंखला का मुख्य कलाकार एक विशेष मार्क का पेय पीता है या किसी विशेष माडल की गाड़ी में बैठता या फिर एक विशेष कंपनी का लेपटाप प्रयोग करता है तो इससे उस पेय, गाड़ी या लेपटाप कंपनी का प्रचार होता है। ऐसे दृश्यों के लिए उत्पादन कंपनियां, बहुत अधिक पैसे ख़र्च करती हैं और कार्यक्रमों के माध्यम से लोगों को अपनी उपभोग वस्तु से परिचित करवाती हैं।

टेलीवीजन के प्रचार की एक अन्य शैली भी है जिसमें शायद इतना खुल कर प्रचार न किया जाए किंतु यह अधिक प्रभावी होती है। इस शैली में टीवी, उपभोग की जीवन शैली और दर्शकों को उपभोग की वस्तुएं ख़रीदने के लिए प्रेरित करने का एक माध्यम होता है। यदि कोई टीवी देखता है तो वह उस जीवन शैली को अपनाने पर बाध्य होगा और उपभोग के जीवन की सराहना करेगा। इस शैली में आवश्यकता की परिभाषा भी बदल जाती है और कभी भी प्रथम व द्वितीय श्रेणी की आवश्यकताओं का स्थान आपस में बदल जाता है और झूठी आवश्यकता अस्तित्व में आ जाती है। अतः वह व्यक्ति प्रयास करता है कि अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करे और चूंकि टीवी द्वारा उत्पन्न की गई झूठ आवश्यकताओं को वह अपने लिए प्राथमिक आवश्यकताएं समझता है इस लिए उपभोग की संस्कृति में ग्रस्त हो जाता है और अनावश्यक वस्तुओं के लिए अधिक पैसे ख़र्च करता है।

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