इस्लामिक लोकतंत्र-१

इस्लामिक लोकतंत्र-१

ईरान की इस्लामी क्रान्ति ने इस विचार को ग़लत सिद्ध कर दिया कि समाज जब विकास और तर्क की ओर बढ़ता है तो धर्म से उसकी दूरी बढ़ने लगती है। इस क्रान्ति में लोगों का ज्ञान जैसे जैसे बढ़ा धर्म की ओर उनका रुजहान भी उतना ही बढ़ता गया। इस रुजहान को इस्लामी गणतंत्र ईरान के संस्थापक स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी की अतुल्य लोकप्रियता से समझा जा सकता है जो महान धार्मिक नेता थे।

ईरान की इस्लामी लोकतांत्रिक व्यवस्था से गहरा द्वेष रखने के कारण पश्चिमी सरकारें अपने विषैले प्रोपगंडों में इस व्यवस्था को अलोकतांत्रिक दर्शाने तथा इस व्यवस्था के अधीन होने वाले चुनावों को दिखावटी प्रक्रिया ज़ाहिर करने का प्रयास करती हैं। जबकि यदि ईरान की इस्लामी क्रान्ति की प्रवृत्ति और ईरान की राजनैतिक प्रक्रिया की समीक्षा की जाए तो साबित होता है कि ईरान की इस्लामी लोकतांत्रिक व्यवस्था मध्यपूर्व के क्षेत्र की सबसे अधिक जन-केन्द्रित व्यवस्था तथा विश्व स्तर पर आदर्श लोकतांत्रिक व्यवस्था है। इस कार्यक्रम में हम ईरान की लोकतांत्रिक व्यवस्था के स्तंभों से आपको परिचित कराने का प्रयास करेंगे ताकि आप इस्लामी लोकतंत्र का संपूर्ण परिचय प्राप्त कर सकें।

इससे पहले हमने सरकार की आवश्यकता इसके प्रकारों तथा इस्लामी क्रान्ति की प्रवृत्ति के बारे में पाए जाने वाले अलग अलग दृष्टकोणों की समीक्षा की। इस क्रान्ति ने पश्चिम के राजनेताओं और विचारकों के मन में यह महत्वपूर्ण प्रश्न उत्पन्न किया कि ईरान की इस्लामी क्रान्ति की प्रवृत्ति क्या है।? इस बारे में भी कई विचार पेश किए गए हैं। एक विचार में इसे आर्थिक व भौतिक कारकों से प्रभावित क्रान्ति बताया गया है जबकि दूसरी क्रान्ति में राजनीति तथा स्वतंत्रताप्रेम की भावना को इस क्रान्ति का मूल कारक बताया गया है, तीसरा विचार यह है कि ईरान की इस्लामी क्रान्ति धार्मिक आस्थाओं और सिद्धांतों के आधार पर अस्तित्व में आई। ईरान की इस्लामी क्रान्ति का गहराई से अध्ययन करने वाले एक समूह का कहना है कि अन्य बहुत सी क्रान्तियों के विपरीत ईरान की इस्लामी क्रान्ति बहुआयामी है और इसमें तीनों प्रकार के कारकों का प्रभाव रहा है और यह क्रान्ति तीनों ही कारकों से प्रभावित होकर आगे बढ़ी और सफल हुई।

महान धार्मिक विचारक शहीद मुर्तज़ा मुतह्हरी इस बारे में कहते हैं कि बहुत से विचारक यह बात स्वीकार करते हैं कि ईरान की इस्लामी क्रान्ति अतुल्य है, अतः इसकी कोई नज़ीर और उदाहरण नहीं मिल सकता। हमारे विचार में यह क्रान्ति इस्लामी है किंतु इस्लाम से तात्पर्य केवल वह आध्यात्म नहीं है जो धर्मों में आम तौर पर तथा इस्लाम धर्म में विशेष रूप से पाया जाता है। इस्लामी होने से केवल यह भी तात्पर्य नहीं है कि इसमें धार्मिक परम्पराओं की स्वतंत्रता है तथा पूरी आज़ादी से धार्मिक कार्यों को अंजाम दिया जा सकता है। हमारे आंदोलन की सफलता का रहस्य यह था कि इसने केवल अध्यात्म का सहारा नहीं लिया बल्कि इसने भौतिकवाद और राजनीति को भी विशुद्ध करके अपने भीतर जगह दी। शहीद मुर्तज़ा मुतह्हरी ईरान की इस्लामी क्रान्ति की प्रवृत्ति के विशेष इस्लामी अर्थ के बारे में अपना तर्क देते हुए उदाहरण पेश करते हैं कि जैसे वर्गों के बीच अंतर को समाप्त करने के लिए संघर्ष इस्लाम धर्म की मूल शिक्षाओं में शामिल है किंतु इस संघर्ष का आध्यात्म से गहरा रिश्ता है। दूसरी ओर इस्लाम के सभी नियमों में स्वतंत्रता की भावना बहुत स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। महान इस्लामी बुद्धिजीवी शहीद मुतह्हरी शाही शासन के विरुद्ध धर्मगुरुओं के संघर्ष और आंदोलनों का हवाला देते हुए अपना विचार व्यक्त करते हैं कि  इस्लाम को न्यायप्रेमी, भेदभाव विरोधी और वर्गीय अंतर को नकारने वाले धर्म के रूप में प्रचारित करवाने पर इन धर्मगुरुओं का आग्रह और इसके लिए उनका संघर्ष इस बात का कारण बना कि शाही शासन के विरुद्ध संघर्ष के दौरान जनता की आर्थिक व राजनैतिक इच्छाओं एवं मांगों में इस्लामी रंग उत्पन्न हो गया।

अर्थात आरंभ से ही ईरान के इस आंदोलन ने कम्युनिस्ट और लिबरल आदंलनों से अपने अंतर को स्पष्ट कर दिया था। शहीद मुतह्हरी इस बारे में कहते हैं कि इस आंदोलन में शहरी, ग्रामीण, ग़रीब, धनवान, मज़दूर, कृषक, व्यापारी, गैर व्यापारी, बुद्धिजीवी और आम मनुष्य, सबने बढ़ चढ़कर भाग  लिया और यह इस आंदोलन की इस्लामी प्रवृत्ति का परिणाम था क्योंकि इस्लाम से हर किसी का गहरा रिश्ता था।

ईरान की इस्लामी क्रान्ति ने समाजशास्त्र तथा राजनीतिशास्त्र के क्षेत्र में अनेक दृष्टिकोणों और विचारों को ग़लत सिद्ध कर दिया। इनमें से हम कुछ का उल्लेख करेंगे। ईरान में इस्लामी क्रान्ति के सफल होने से क्रान्ति के बारे में मार्क्सवादी विचारधारा पर प्रश्न चिन्ह लग गया क्योंकि इस विचारधारा में क्रान्ति के लिए जिन चरणों का उल्लेख किया गया है वह इस महान क्रान्ति में नहीं देखे गए। मार्क्सवादी विचारधारा का कहना है कि समाजों के आगे बढ़ने की प्रक्रिया कृषि से पूंजीवाद की ओर होती है और फिर क्रान्ति के बाद मार्क्सवादी समाज के गंतव्य पर पहुंचती है। ईरान की इस्लामी क्रान्ति में इस प्रक्रिया के विपरीत, अभियान पारम्परिक ढांचे से आगे बढ़ा और ग़ैर कम्युनिस्ट क्रान्ति पर जाकर रुका। ईरान की इस्लामी क्रान्ति ने मार्क्सिस्टों के इस विचार को  भी ग़लत साबित कर दिया कि धर्म अफ़ीम है।

ईरान की इस्लामी क्रान्ति ने दर्शा दिया कि इस्लाम धर्म न केवल यह कि राष्ट्रों के विकास और उन्नति के मार्ग में रुकावट नहीं बनता बल्कि धर्म तो अत्याचारियों के विरुद्ध उठ खड़े होने और स्वतंत्रता और न्याय की मांग को ऊंची आवाज़ में उठाने की प्रेरणा देता है। मार्क्सवादी विचारकों का वह गुट जो क्रान्ति  के बारे में मार्क्सवादी विचारधारा में सुधार करने का प्रयास कर रहा था उसने भी ईरान की इस्लामी क्रान्ति के सामने क़लम रख दिया और अपने राय की कमज़ोरी को स्वीकार किया। अमरीका के मार्क्सवादी विचारक थेडा स्कोकपोल का कहना था कि राजनैतिक क्रान्ति सरकार को बदलकर और सामाजिक ढांचे में कोई परिवर्तन किए गए बग़ैर अस्तित्व में आती है इसमें वर्गों के बीच के विवादों की कोई भूमिका नहीं होती। उनका मानना है कि सामाजिक क्रान्ति, समाज में तीव्र गति से वर्गीय ढांचे और शासन व्यवस्था के मूल परिवर्तन का नाम है। यह परिवर्तन समाज के निचले वर्ग की ओर से आरंभ होता है। यह क्रान्ति विशेष सामाजिक व अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में उत्पन्न होती है। जैसे अंतर्राष्ट्रीय राजनैतिक दबाव, या युद्ध में किसी सरकार की पराजय। किंतु ईरान की क्रान्ति ने यह प्रमाणित कर दिया कि वर्गों के बीच तनाव और खिंचाव के बग़ैर केवल इस्लाम की वैचारिक एवं सांस्कृतिक शक्ति के माध्यम से अस्तित्व में आई और सफलता के चरण तक पहुंची है। रोचक बात यह है कि ईरान की इस्लामी क्रान्ति जब सफल हुई उस समय अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियां किसी भी क्रान्ति के लिए अनुकूल नहीं बल्कि प्रतकूल थीं। इसके बावजूद ईरान की इस्लामी क्रान्ति सफल हुई और उसने सामाजिक ढांच और अंतर्राष्ट्रीय समीकरणों को प्रभावित किया।

जो विचारक क्रान्तियों को विश्व के आर्थिक सिस्टम के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं उन्होंने ईरान की इस्लमी क्रान्ति की सफलता के बाद संस्कृति, धर्म, नेतृत्व तथा विचारधारा जैसे कारकों पर अधिक ध्यान देना आरंभ किया। विलायते फ़क़ीह नामक एक नया विचार राजनैतिक विचारधारा के परिप्रेक्ष्य में उभरकर सामने आया जिसके कारण इस क्षेत्र में बहुत अधिक अध्ययन किया गया। आज भी जब तक इस विशेष विचार को सही प्रकार से न समझ लिया जाए इस्लामी शासन व्यवस्था को ठीक प्रकार समझना संभव नहीं है। इस्लमी क्रान्ति के बाद समाजशास्त्र से जुड़े विचारों पर जो प्रभाव पड़ा वह भी बहुत महत्वपूर्ण और ध्यानयोग्य है। इससे पहले तक समाज को अंधविश्वासों से मुक्त कराने और तर्कसंगत जीवन शैली को प्रचलित करने के प्रयासों के मार्ग में धर्म को रुकावट समझा जाता था।

ईरान की इस्लामी क्रान्ति ने इस विचार को ग़लत सिद्ध कर दिया कि समाज जब विकास और तर्क की ओर बढ़ता है तो धर्म से उसकी दूरी बढ़ने लगती है। इस क्रान्ति में लोगों का ज्ञान जैसे जैसे बढ़ा धर्म की ओर उनका रुजहान भी उतना ही बढ़ता गया। इस रुजहान को इस्लामी गणतंत्र ईरान के संस्थापक स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी की अतुल्य लोकप्रियता से समझा जा सकता है जो महान धार्मिक नेता थे।

इस्लामी क्रान्ति ने भुला दिए गए प्राकृतिक तत्वों की ओर ध्यान केन्द्रित करवाया तथा मानव विचारधारा में धर्म को स्पष्ट स्थान दिलाया। इसके परिणाम स्वरूप धर्म, अध्यात्म, इंसान तथा संसार के बारे में राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तरों पर नई सोच और नया दृष्टिकोण परिचित करवाया। ईरान की इस्लामी क्रान्ति ने विश्व के भौतिकवादी मतों से हटकर आध्यात्मिक एवं धार्मिक मतों के आधार पर एक नई विचारधारा पेश की। इस शैली के नतीजे में ज्ञान, वातावरण तथा शैलियों के लिए नए आधार सामने आए। यह क्रान्ति केवल समाज, राजनैतिक व्यवस्था एवं अर्थ व्यवस्था में होने वाले परिवर्तनों तक सीमित नहीं रही बल्कि इसने व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन के परिवर्तन को अपनी मूल विशेषता के रूप में विश्व के सामने पेश किया। इस क्रान्ति ने मार्गदर्शन का रास्ता खोलकर तथा महान शिक्षाओं को पेश करके आध्यात्मिक समाज एवं परिपूर्ण मानव का नया रूप दिखाया।

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