अहंकार और उनके नुक़सान 2
अहंकार और उनके नुक़सान 2
अहंकार मनुष्य के भीतर अप्रिय अवगुणों से में एक है और यह वह अवगुण है जिसकी इस्लामी शिक्षा व संस्कृति में निंदा की गयी है। पवित्र कुरआन की विभिन्न आयतें और पैग़म्बरे इस्लाम एवं उनके पवित्र परिजनों के कथनों में इस बात के सूचक हैं कि जहां यह मनुष्य के भीतर एक अप्रिय व निंदनीय विशेषता है वहीं यह मनुष्य के परिपूर्णता के मार्ग की सबसे बड़ी रुकावट है। इस प्रकार से कि अहंकार को समस्त बुराइयों का स्रोत समझा जाता है। श्रोताओ यदि आपको याद हो तो पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि मनुष्य के भीतर इस अप्रिय विशेषता के अस्तित्व में आने के विभिन्न कारण हैं। ज्ञान में श्रेष्ठता, धन सम्पत्ति और शक्ति से समृद्ध होना, सामाजिक स्थिति, पद व स्थान यहां तक कि उपासना भी मनुष्य में अहं व अहंकार उत्पन्न होने का कारण बन सकती है।
अहंकार का मुख्य अर्थ धोखा खाना है। अर्थात मनुष्य भौतिक यहां तक कि आध्यात्मिक विशिष्टता से समृद्ध हो जाने के कारण धोखा खा जाता है। पवित्र क़ुरआन में आया है कि “आद” जाति शक्ति और सम्भावना से सम्पन्न होने के कारण अहंकार का शिकार हो गया और उस जाति के लोग कहते थे कि हमसे शक्तिशाली कौन है? इसी कारण उन्होंने लोक- परलोक में अपने अपमान की भूमिका प्रशस्त कर ली।
अहंकार का एक कारण तुच्छता का आभास है कि जिसका आभास अहंकारी व्यक्ति अपने भीतर करता है। वह उस कार्य को करके जो उसके योग्य नहीं है लोगों से अपनी आंतरिक तुच्छता को छिपाना चाहता है और उसका सारा प्रयास अपनी कमी की भरपाई करना व छिपाना होता है। हज़रत इमाम जाफरे सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैं” कोई भी बड़े होने की बात नहीं करता किन्तु उस अपमान के कारण है जिसका आभास वह स्वयं के भीतर करता है”
प्रशिक्षा मामलों के विशेषज्ञ एवं मनोवैज्ञानिक इस बिन्दु पर बल देते हैं कि हर प्रकार के अहंकार की जड़ आत्मिक असुरक्षा की भावना है और उसका स्रोत तुच्छता की भावना का आभास है।
अज्ञानता भी मनुष्य के भीतर अहं का कारण बनती है। कभी एसा भी होता है कि मनुष्य अपनी वास्तविकता से अनभिज्ञ होने के कारण स्वयं को उन विशेषताओं व गुणों से समृद्ध समझने लगता है जो उसके भीतर नहीं हैं और वह अहं का शिकार हो जाता है। इस स्थिति में मनुष्य स्वयं से बहुत अधिक प्रेम करने के कारण दूसरों को अपने से नीचा समझने लगता है और अहं के कारण वह वास्तविकता को नहीं समझ पाता और सदैव पथभ्रष्टता एवं गुमराही के मार्ग में क़दम बढ़ाता है। इस्लाम की नैतिक शिक्षाओं में बल देकर कहा गया है कि मुसलमान व्यक्ति को अहं से बचना चाहिये और इस बात का प्रयास करना चाहिये कि कभी भी अहं की बीमारी से ग्रस्त न हो क्योंकि यह वह बीमारी है जो मनुष्य की परिपूर्णता की दिशा में सबसे बड़ी रुकावट है।
यहां पर प्रश्न यह उठता है कि इस खतरनाक बीमारी अहं के उपचार का तरीका क्या है। हमें क्या करना चाहिये कि इस बीमारी से ग्रस्त न हों? इस्लाम की नैतिक शिक्षाओं में अनुशंसा की गयी है कि यदि मनुष्य संभावनाओं आदि से सम्पन्न व समृद्ध हो जाये तो उसे चाहिये कि अहं से बचने के लिए विन्रता अपनाये। यानी दूसरों से नम्र भाव से पेश आये। मनुष्य को कभी भी इस बात पर अहंकार नहीं करना चाहिये कि वह इस प्रकार के भौतिक एवं आध्यात्मिक परिपूर्णता से समृद्ध है और साथ ही उसे इस संभावना का प्रयोग सही मार्ग में करना चाहिये। इस आधार पर अहं के मुक़ाबले में विन्रमता है और अहं से उपचार का तरीक़ा दूसरों से विन्रमता से पेश आना है।
ईश्वरीय धर्म इस्लाम में मनुष्य के भीतर विनम्रता की विशेषता को मज़बूत करने के लिए बहुत अनुशंसा की गयी है। इन अनुशंसाओं को पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के सदाचरण में भी भलिभांति देखा जा सकता है।
नैतिक व शिष्टाचारिक विषय के विद्वानों एवं विशेषज्ञों ने अहंकार से मुकाबले के लिए विचार और व्यवहार दो मार्गों की समीक्षा की है। अर्थात सबसे पहले मनुष्य इस बात को समझे कि उसका पूरा अस्तित्व महान व सर्वसमर्थ ईश्वर की असीमित दया का ही परिणाम है और उसकी कृपा के बिना उसके अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती और क्षण भर के लिए भी उसे इस बात से निश्चेत नहीं होना चाहिये। वह इस बारे में सोचे कि वह क्या है? यदि महान ईश्वर की कृपा व दया न हो तो क्या होगा? मनुष्य इस बात को याद करे कि जब वह इस दुनिया में आया था तो बहुत कमजोर व अक्षम था और उसके अंदर छोटे से छोटे कार्य करने की भी शक्ति नहीं थी। यही नहीं जब वह बूढ़ा हो जायेगा और अगर उसके हाथ- पैर स्वस्थ भी हों तब भी छोटी सी दूरी तय करने के लिए उसे कई बार उठना- बैठना और सांस लेना पड़ेगा। कभी मनुष्य अपनी कमियों एवं दोषों के बारे में विचार करे तो अहंकार की आग व भावना कम हो जायेगी। अलबत्ता इस प्रकार की सोच से मनुष्य की प्रतिष्ठा को आघात नहीं पहुंचना चाहिये। मनुष्य की प्रतिष्ठा के मुकाबले में अपमान व तुच्छता की भावना है। मनुष्य की प्रतिष्ठा एक अच्छी व वांछित चीज़ है और मोमिन व्यक्ति अर्थात महान ईश्वर पर गहरी आस्था रखने वाले व्यक्ति को चाहिये कि वह अपनी प्रतिष्ठा की सुरक्षा करे और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरों के समक्ष स्वयं को अपमानित व गिराना नहीं चाहिये। अलबत्ता मनुष्य के लिए शोभनीय यह है कि वह वास्तविकता प्रेमी बने और स्वयं के बारे में न्याय से काम ले अर्थात मनुष्य को चाहिये कि वह स्वयं को उतना ही समझे जितना कि वह है और स्वयं को उससे कम न समझे जितना है और स्वयं को उससे अधिक भी न समझे जितना कि वह है। यदि मनुष्य स्वयं को उतना समझता है जितना वह नहीं है तब भी उसके लिए हानिकारक है या मनुष्य स्वयं को उससे भी कम व तुच्छ समझे जितना वह है तो भी उसके लिए हानिकारक है। विशेषकर मनुष्य को इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि अहंकार मनुष्य को उच्च लक्ष्यों तक पहुंचने से रोक देता है। उसका कारण भी स्पष्ट है। चूंकि अहंकारी व्यक्ति दूसरों से पूछने व विचार विमर्श करने और दूसरों के दृष्टिकोणों से लाभ उठाने को अपने लिए अपमान की बात समझता है और स्वयं को दूसरों के विचारों से लाभ उठाने की अनुमति नहीं देता है और उसकी यही आदत इस बात का कारण बनती है कि अहंकारी व्यक्ति बहुत सी मूल्यवान बातों से दूर रह जाता है।
इस्लामी शिक्षाओं में इस बात की अनुशंसा की गयी है कि मनुष्य को इस बात का प्रयास करना चाहिये कि उसके अंदर लेशमात्र भी अहं घुसने न पाये और अहंकार के स्थान पर नम्र स्वभाव की आदत डालनी चाहिये। हज़रत इमामबाक़िर अलैहिस्सलाम कहते हैं” आसमान में दो फरिश्ते हैं जो बंदों के मुअक्किल हैं कि जो विन्रता करे उसे ऊंचा उठायें और जो अहंकार करे उसे नीचा व तुच्छ कर दें”
इसी प्रकार इस्लामी शिक्षाओं में इस बात की भी अनुशंसा की गयी है कि मनुष्य अतीत के लोगों के अंत के बारे में सोच- विचार करे और देखे कि अहंकार के कारण उनका अंत क्या हुआ, वे कहां थे? और कहां चले गये? यदि मनुष्य के पास शक्ति, धन दौलत या कोई विशिष्टता है तो उसे यह सोचना चाहिये कि यह सब एक ही घटना में हाथ से जा सकती हैं । अगर अहंकार का कारण शारीरिक शक्ति है तो मनुष्य को यह बात नहीं भूलनी चाहिये कि छोटा सा हार्टअटैक होने से उसकी सारी शक्ति जा सकती है और वह अपंग हो सकता है और यह भी संभव है कि उसके पास स्वयं के पास से एक मक्खी भी हांकने की शक्ति न रहे जाये। जो लोग धन -दौलत या मित्रों के अधिक होने के कारण अहंकार का शिकार हो जाते हैं उन्हें इस बिन्दु पर ध्यान देना चाहिये कि यह सब उनके अस्तित्व से बाहर की चीज़ें हैं और जो चीज़ें मनुष्य के अस्तित्व से बाहर हैं वह उनके अहंकार का कारण नहीं बन सकतीं।
जो मनुष्य व्यक्तित्व का स्वामी हो वह किस प्रकार गाड़ी व घर जैसी चीज़ पर अहंकार कर सकता है? वह किस प्रकार अपनी प्रतिष्ठा और व्यक्तित्व को इस प्रकार की चीज़ों में देखता है? यह चीज़ें तुच्छतम व्यक्ति के पास भी हो सकती हैं। उसके बहुत से धन को चोर बड़ी सरलता से ले एक ही बार में ले जा सकते हैं। जो चीज़ इतनी अस्थिर है वह किस प्रकार इतने सारे अहंकार व निश्चेतना का कारण बन सकती है? अगर व्यक्ति का अधिक ज्ञान उसके अहंकार का कारण है तो यह बहुत ही खतरनाक आत्मिक बीमारी है और इसी कारण इसका उपचार भी बहुत कठिन है। विद्वान व्यक्ति को यह सोचना चाहिये कि दूसरों की अपेक्षा उसका ज्ञान जितना अधिक है उसकी ज़िम्मेदारी भी दूसरों की अपेक्षा अधिक है। इस बात को नहीं भूलना चाहिये कि प्रलय के दिन उसका हिसाब दूसरों की अपेक्षा बहुत कठिन होगा इस प्रकार की स्थिति के साथ वह किस प्रकार अहंकार कर सकता है? जब भी मनुष्य इस प्रकार की चीज़ों के बारे में अधिक सोचेगा तो वह अहंकार करना छोड़ देगा।
आचरण व व्यवहार के माध्यम से भी अहंकार के उपचार के बारे में बहुत अनुशंसायें की गयी हैं। मनुष्य को चाहिये कि वह नम्र भाव अपनाये और दूसरों से नम्रता से पेश आये और कार्यों को नम्र भाव से अंजाम दे ताकि नैतिक विशेषताएं उसके अस्तित्व की गहराइयों में घर कर जायें। मनुष्य को चाहिये कि वह साधारण वस्त्र पहने, साधारण खाना खाये, अपने नौकरों, सेवकों और अधीनस्थ लोगों के साथ एक ही दस्तरखान पर बैठकर खाना खाये, दूसरों को सलाम करने में पहल करे, रास्ता चलने में दूसरों से आगे न बढ़े, छोटे- बड़े लोगों के साथ उठना- बैठना करे, बुरे और अहंकारी लोगों के साथ उठने -बैठने से बचे और काम करने में दूसरों की अपेक्षा अपने लिए किसी विशिष्टता को न मानें। सारांश यह कि हर वह काम व बात करे जो नम्रता का सूचक हो उसे अंजाम देना चाहिये। पैग़म्बरे इस्लाम के पावन जीवन के बारे में आया है कि ईश्वर के निकट पैग़म्बरे इस्लाम का स्थान बहुत ऊंचा होने के बावजूद वह ज़मीन पर बैठकर दासों के साथ खाना खाते थे। पैग़म्बरे कहते हैं” मैं बंदा हूं और दासों की भांति खाना खाता हूं”
नहजुल बलाग़ा नामक पुस्तक में हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने भाषण नम्बर १६० में पैग़म्बरे इस्लाम के बारे में इस प्रकार कहते हैं” पैग़म्बरे इस्लाम ज़मीन पर किसी फर्श के बिना बैठते थे, खाना खाते थे, दासों की भांति विन्रमता से ज़मीन पर बैठते थे, अपने हाथ से अपने जूते को सिलते थे, सवारी पर कुछ बिछाये बिना बैठते थे और कभी अपने पीछे दूसरों को बिठाते थे”
ईश्वरीय दूतों, पैग़म्बरों और महान हस्तियों की जीवनी का अध्ययन करके और उनका अनुसरण करके अपने अंदर से अहंकार जैसी घातक बीमारी का उपचार किया जा सकता है। इस्लामी इतिहास में आया है कि लुक़मान हकीम ने अपने बेटे से कहा” खेद है उस पर जो अहंकार करे। वह किस तरह स्वयं को बड़ा समझता है जो मिट्टी से पैदा किया गया है और वापस मिट्टी में ही जायेगा? क्या वह नहीं जानता कि वह कहां जा रहा है?
क्या वह इस बात को नहीं जानता कि उसे स्वर्ग की ओर जाना चाहिये ताकि उसे मुक्ति व कल्याण मिल जाये क्या वह इस बात को नहीं जानता कि नरक की ओर नहीं जाना चाहिये ताकि वह स्पष्ट घाटे व नुकसान से बच जाये”
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