अरब सबकान्टीनेंट की भौतिक, समाजिक और सास्कृतिक स्तिथि
अरब सबकान्टीनेंट की भौतिक, समाजिक और सास्कृतिक स्तिथि
कुल या गोत्र (नस्ब) का महत्व अनपढ़ अरबों के बीच महानता की मुख्य कसौटी उनका कुल(नस्ब) हुआ करता था जो उनकी निगाह मे बहुत महत्व रखता था यहाँतक कि बहुत सारी अच्छाईयां “कुल या नस्ब” के कारन हुआ करती थीं। क़बाएली अरबों में नस्ल के आधार पर घमण्ड बहुत अधिक पाया जाता था जिसका एक नमूना वह आपसी कंप्टीशंस हैं जो उत्तरी अरब और दक्खिनी अरब के बीच पाए जाते थे। इसी कारन वह लोग अपने कुल की पहचान और सुरक्षा को महत्व देते थे। नोमान बिन मन्ज़र, केसरा के जवाब में कहता है- अरब के अतिरिक्त कोई भी उम्मत अपने कुल को नही पहचानती है और अगर उनके पुरखों के बारे में पूछा जाए तो जवाब नही दे पाते हैं लेकिन हर अरब अपने पुरखों को पहचानता है और परायों को अपने क़बीले का हिस्सा नही मानता और स्वयं दूसरे क़बीले में शामिल नही होता और अपने बाप के अलावा दूसरों से रिश्ता नही जोड़ता। इस प्रकार यह आश्चर्य की बात नही है कि, कुल या नस्ब को पहचानने का इल्म उस वक़्त एक सीमित इल्म था जिसका बहुत महत्व था और इस इल्म के जानकारों को एक विशेष स्थान प्राप्त था। आलूसी जो कि अरब के मामलों का अच्छा जानकार है कहता है- अरब के जाहिल अपने कुल की पहचान और सुरक्षा को बहुत महत्व देते हैं क्योंकि यह पहचान मुहब्बत का एक माध्यम था वह और उनके यहां इसकी अधिक ज़रूरत पड़ती थी क्योंकि उनके क़बाएल बिखरे हुए होते थे और जंग की आग लगातार उनके बीच भड़की हुई थी और लूट मार उनके यहां आम थी।
अरब क़बीले किसी ताक़त के अधीन नही रहना चाहते थे जो उनकी मदद करे इसलिए मजबूर होकर अपने कुल की रक्षा किया करते थे जिससे अपने दुश्मन पर कामयाब हो सकें क्योंकि रिश्तेदारों की आपसी मुहब्बत, सपोर्ट और दूसरों से भेदभाव की भावना अपने क़बीले की सहायता और आपसी मेलजोल का आधार बनती थी। इस्लाम हर प्रकार के घमण्ड और अपने आप को दूसरों से ऊंचा समझने की भावना का विरोध करता है, हम जानते हैं कि क़ुरान-ए-करीम क़ुरैश और अरबों के बीच अल्लाह ने भेजा था लेकिन इसका सम्बोधन केवल क़ुरैश या अरब नहीं हैं बल्कि इसका सम्बोधन पूरी इंसालियत है और इसमें मुसलमानों और मोमिनीन की ज़िम्मेदारियां और फ़र्ज़ बयान किए गए हैं। क़ुरान-ए-करीम क़ौमी भिन्नता को नेचुरल मानता है और इस भिन्नता की फ़िलास्फ़ी बताता है कि लोग एक दूसरे को पहचानें और ज़ात-पात या कुल के आधार पर घमण्ड करने की निन्दा करता है और बड़प्पन का पैमाना तक़वा (सदाचार) को बताता है।
ऐ लोगों! हमने तुमको एक मर्द और एक औरत से पैदा किया है और फिर तुम में शाखाएं और क़बीले बनाए हैं जिससे कि आपस मे एक दूसरे को पहचान सको बेशक तुम में ख़ुदा के अनुसार अधिक इज़्ज़तदार वही है जो अधिक गुनाहों से बचने वाला है और अल्लाह हर चीज़ को जानने वाला है।
पैग़म्बर-ए-इस्लाम ने नस्ली व ख़ानदानी घमण्ड व श्रेष्ठता का बहुत अधिक विरोध किया है। जिसके कुछ नमूने यह हैं-
1.मक्के पर जीत के अवसर पर जब क़ुरैश का असली क़िला तबाह हो गया तो आप ने फ़रमाया- ऐ लोगों! ख़ुदावन्दे आलम ने इस्लाम के नूर के माध्यम से, जिहालत के ज़माने मे प्रचलित घमण्ड व अभिमान को समाप्त कर दिया। जान लो कि तुम आदम की नस्ल से हो और आदम मिट्टी से पैदा हुए हैं। ख़ुदा का सबसे अच्छा बन्दा वह है जो मुत्तक़ी (सदाचारी) हो किसी के बाप का अरबी होना कोई महत्व नही रखता, यह केवल ज़बानी बात है, किसी का कुल उसे सम्मानित नही बना सकता।
2.हुज्जतुलविदा के अवसर पर पैग़म्बर-ए-इस्लाम (स) ने विस्तारपूर्वक अपने उपदेश मे फ़रमाया कोई अरबी अजमी पर श्रेष्ठता नही रखता केवल तक़वे (सदाचार) से ही आदमी सम्मानित कहलाता है।
3.एक दिन आपने क़ुरैश के सम्बन्ध में बातचीत के दौरान , जनाब सलमान की बातों का समर्थन किया और क़ुरैश की ग़लत सोच के मुक़ाबले में रूहानी तरक़्की को आधार मानते हुए फ़रमाया, ऐ क़ुरैश! हर इंसान का दीन ही उसका कुल है और हर आदमी का एख़लाक़ और कैरेक्टर ही उसकी मर्दानगी है और हर एक की बुनियाद उसकी अक़्ल और समझदारी है।
क़बाएली लड़ाईयां
अगर अरबों के बीच किसी की हत्या हो जाती थी तो इसकी ज़िम्मेदारी हत्यारे के निकट सम्बन्धियों पर लागू होती थी और क्योंकि हत्यारे का क़बीला उसके समर्थन में तैयार और आतुर दिखाई देता था, इसलिए बदले के लिए लड़ाईयां होती थीं और बहुत ख़ून बहाया जाता था। और यह लड़ाईयां जो आमतौर पर छोटी छोती बातों पर होती थीं कई सालों तक चलती रहती थीं जैसा कि “जंग बसूस” जोकि दो क़बीलों बनी बक्र और बनी तग़लब के बीच (यह दोनों क़बीले रबिया से थे) छिड़ी और चालीस साल तक जारी रही और इस लड़ाई की वजह यह थी कि पहले क़बीले का ऊंट जो कि बसूस नाम की औरत का था बनी तग़लब की चराहगाह मे चरने के लिए चला गया तो उसे उन लोगों ने मार डाला। इस प्रकार “दाहिस और ग़बरा नामी” दो ख़ूनी लड़ाईयां क़ैस बिन ज़हीर (क़बीलए बनी क़ैस का सरदार) और हज़ीफ़ा इब्ने बद्र (क़बीलए बनी फ़ज़ारह का सरदार) के बीच एक घुड़दौड़ के सम्बन्ध मे शुरू हुई और लम्बे समय तक चलती रही।
दाहिस और ग़बरा नाम के दो घोड़े थे जिसमें से एक क़ैस का और दूसरा हज़ीफ़ा का था। क़ैस ने दावा किया कि उसका घोड़ा दौड़ मे जीता है और हज़ीफ़ा ने दावा किया कि उसका घोड़ा दौड़ मे बाज़ी ले गया है , इसी छोटी सी बात पर दोनों के बीच लड़ाई छिड़ गई और बहुत अधिक ख़ून बहाया गया और लोगों की जानें ली गईं। और इस प्रकार की घटनाएं “अय्यामुल अरब” के नाम से मशहूर हुईं और इनके बारे में किताबें लिखी गई हैं। कभी-कभी कुछ ऊंट मुआवज़े या क्षतिपूर्ति के रूप में देकर मरने वाले के परिवार से सुलह कर ली जाती थी। और हर क़बीले के बड़े बूढ़े इस तरह के विवाद मे रास्ता निकालते और उसको लोगों के सामने पेश करते थे लेकिन वह इसको क़ौम पर थोपते नही थे और अधिकतर क़बीले वाले इन सुझावों को उस समय स्वीकार करते थे जब लम्बी लड़ाईयों से थक जाते और निराश हो जाते थे और मजबूरी में इन सुझावों को स्वीकार कर लेते थे और सुलह कर लेते थे। अगर हत्यारों का गुट, दोषियों को बदले के लिए मारे गए इंसान के सगे सम्बन्धियों के हवाले कर देता तो यह लड़ाई न होती लेकिन उनकी निगाहों में ऐसा करना उनकी इज़्ज़त व सम्मान के ख़िलाफ़ था इसी आधार पर वह अपने लिए ठीक समझते थे कि दोषी को ख़ुद सज़ा दें।
क्योंकि उनकी निगाह में इज़्ज़त और सम्मान की सुरक्षा सबसे अधिक ज़रूरी थी और वह अपने सभी कामों में इस बात का दिखावा किया करते थे। उनके बीच जो क़ानून और रिवाज चलन मे थे वह लगभग हिजाज़ के शहरों अर्थात ताएफ़, मक्का और मदीने में भी लागू होते थे। क्योंकि इन शहरों के बाशिन्दे भी अपने समाज में घुमन्तू क़बीलों के जैसे आज़ादी से रहते थे और किसी को फ़ालो नही करते थे। ख़ानाबदोश घुमक्कड़ों में भेदभाव और अपनी नाक ऊंची रखने की आदत हद से बढ़ी हुई थी लेकिन मक्के मे काबे के सम्मान और बिजनेस का केन्द्र होने की वजह से हालात इतने बुरे नही थे।
क़ुरान-ए-करीम इस प्रकार के भेदभाव और बदले की भावना का विरोध करता है और मदद और समर्थन का पैमाना, सच्चाई और अदालत रखता है और ज़ोर देता है कि मुसलमानों को चाहिए कि वे वह अदालत और न्याय को पूरी ताक़त से स्थापित करें चाहे यह न्याय या अदालत माता पिता और रिश्तेदारों के ख़िलाफ़ ही क्यों न हो।
ऐ ईमान वालों! न्याय और इंसाफ़ के साथ खड़े हो जाओ और अल्लाह के लिए गवाही दो चाहे अपनी आत्मा या अपने मांबाप और रिश्तेदारों के ख़िलाफ़ ही क्यों न हो।
जिसके लिए गवाही देना है वह अमीर हो या ग़रीब अल्लाह दोनों के समर्थन का तुमसे अधिक अधिकारी है इसलिए ख़बरदार! इच्छाओं के आगे सर न झुकाना जिससे कि इंसाफ़ न कर सको और अगर तोड़ मरोड़ से काम लिया या पूरी तरह किनारे हो गए तो याद रक्खो कि अल्लाह तुन्हारे कामों को अच्छी तरह जानता है। बद्दू अरब अपने क़बीले को छोड़कर दूसरों से दोस्ती और मुहब्बत नही करते थे उनकी सोच का दायरा केवल अपने क़बीले तक सीमित होता था यह लोग इतना अधिक भेदभाव करते थे और अपने क़बीले के लिए अन्धी भक्ति रखते थे और दुनिया की सारी चीज़ें केवल अपने लिए चाहते थे और सबसे अधिक अपना और अपने रिश्तेदारों का फ़ायदा चाहते थे जैसा कि इनमें से किसी ने इस्लाम के ज़माने मे अपनी असभ्य सभ्यता से प्रभावित होकर इस तरह से दुआ कि, ऐ ख़ुदा! मुझपर और मोहम्मद (स) पर दया कर और हमारे अतिरिक्त किसी पर दया न करना। इनमें रेगिस्तानी ज़िन्दगी के कारन जो महरूमी पाई जाती थी इसकी वजह से वह विनाश और तबाही किया करते थे क्योंकि इनका इलाक़ा नेमतों से वन्चित था और वह इस कमी को लूट मार के माध्यम से पूरा करते थे।
डकैती और विनाश को न केवल यह कि बुरा काम नही समझते थे बल्कि (जैसे आज के दौर मे एक शहर या प्रदेश पर क़ब्ज़ा कर लेने को गर्व समझते हैं) अपने लिए घमण्ड की बात और बहादुरी समझते थे। क़बीलों के बीच जो होड़ पाई जाती थी वह भी लड़ाई और तबाही का कारन बनती थी और अधिकतर मतभेद और झगड़े चराहगाहों पर क़ब्ज़ा कर लेने की वजह से होते थे। और कभी क़बीले के सरदार के चुनाव पर भी रिश्तेदारों के बीच जंग व ख़ून ख़राबा होता था। उदाहरण के लिए अगर बड़ा भाई सरदारी के पद पर आसीन हो और मर जाए तो उसके दूसरे भाई अपनी उम्र के अनुसार क़बीले की सरदारी की चाहत ऱखते थे और मरने वाले की औलाद अपने बाप के स्थान पर सरदारी पर अपना अधिकार समझती थी इसी वजह से अक्सर क़बीलों और रिश्तेदारों के बीच जोकि नस्ल और रहने की जगह के हिसाब से बहुत क़रीब थे, बहुत अधिक मतभेद और झगड़े होते थे।
शायर भी अपनी शायरी के माध्यम से झगड़े की आग भड़काया करते थे। वह शायरी मे अपने क़बीले की बड़ाई बयान करते और दूसरे क़बीले की बुराईयां करते थे और लोगों के दिमाग़ में पिछली बातों की याद को ज़िन्दा करके उनके दिलों में मैल और लड़ाई की भावना पैदा करते थे। अधिकतर उनके बीच लड़ाईयां बहुत छोटी-छोटी बातों पर होती थीं। जिस समय झगड़े की आग भड़कती थी तो दोनों क़बीले एक दूसरे की जान के प्यासे हो जाते थे और एक दूसरे को मिटा देने की चिन्ता में लग जाते थे।
जंगलीपन, वहशीपन, असभ्यता और जिहालत इनके लूटमार और लड़ाईयों की दूसरी वजहें थीं। इब्नेख़लल्दून की निगाह में इस क़ौम के लोग वहशी थे और उनके बीच बर्बरता इतनी अधिक पाई जाती हो कि जैसे उनके ख़ून व आदत में रचबस गई हो, उदाहरण के लिए खाने की देग बनाने के लिए उन्हें पत्थर की ज़रूरत पड़ती थी तो उसके लिए इमारतों को तोड़ देते थे ताकि खाने की देग इन पत्थरों से बनाएं या महलों और बड़ी इमारतों को इसलिए वीरान कर देते थे ताकि इसकी लकड़ी से ख़ैमा बनायें या उससे इमारतें और ख़ैमों के खंभे तय्यार करें। लूट खसोट की आदत इनमें इतनी अधिक पाई जाती थी कि जो भी चीज़ वह दूसरे के हाथों में देखते थे उसे लूट लिया करते थे। उनकी रोज़ियां नेज़ों के बल पर प्राप्त होती थीं दूसरों का माल चोरी करने से कभी नही चूकते थे बल्कि उनकी निगाह अगर किसी के माल या दौलत पर पड़ती थी तो उसे वह लूट लिया करते थे। उनकी आमदनी का एक माध्यम लूट और डकौती हुआ करता था जिस समय वह किसी क़बीले पर अटैक करते थे तो उनके ऊंटों को लूट लिया करते थे और उनकी औरतों और बच्चों को क़ैदी बना लिया करते थे। दूसरा क़बीला भी घात में बैठा इसी ताक मे लगा रहता था और उसे भी जब अवसर मिलता यही हरकत कर बैठता था।
और जब दूसरों से दुश्मनी नहीं होती थी तो आपस मे एक दूसरे से लड़ते थे। जैसा कि क़त्तामी(बनीउमय्या के पहले दौर का शायर) अपनी शायरी मे इस बात का उल्लेख करता है- हमारा काम पड़ोसियों और दुश्मनों पर अटैक और लूटमार था और अगर हमें कभी कोई न मिलता तो अपने भाई का माल लूट लिया करते थे।
उस ज़माने में जो लड़ाईयां औस और ख़ज़रज नाम के दो क़बीलों के बीच बदले और इन्तेक़ाम के लिए शुरू हुई थीं वह मदीने में इतनी अधिक बढ़ गई थी कि किसी में हिम्मत नही थी कि वह अपने इलाक़े या उन इलाक़ों मे कि जहां शान्ति थी को छोड़कर कहीं और जा सके। इन लड़ाईयों ने अरब की ज़िन्दगी को पंगु और उनकी हालत को पस्त कर दिया था। क़ुरान-ए-मजीद इनकी इस बुरी हालत को याद दिलाकर ,इस्लाम की छाया में जो उनके बीच भाईचारा स्थापित हुआ उसके बारे में इस प्रकार से उल्लेख करता है-
“और अल्लाह की नेमत को याद करो कि तुम लोग आपस में दुश्मन थे और उसने तुम्हारे दिलों में मुहब्बत पैदा कर दी तो तुम उसकी नेमत से भाई-भाई बन गए और तुम जहन्नम के किनारे पर थे तो उसने तुम्हें नजात दी और अल्लाह इसी तरह अपनी आयतें बयान करता है कि शायद तुम सीधे रास्ते पर चलने लगो”
हराम महीने
केवल हराम महीनों (ज़ीक़ाद, ज़िलहिज, मोहर्रम और रजब) में जोकि हज़रत इबराहीम अलैहिस्सलाम और हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम की पुरानी सुन्नत की याद और उनकी बची हुई शिक्षाओं में से थी, उन महीनों के सम्मान में अरबों के बीच आपस में लड़ाई बंद करने (पवित्र समझौते) का क़ानून पाया जाता था। और उनको अवसर मिलता था कि वह कुछ दिन शान्ति से रहें और बिजनेस और काबे की ज़ियारत कर सकें। अगर इन महीनों मे कोई लड़ाई हो जाती तो उसको बुलफ़ुज्जार (आग और गुनाह वाली लड़ाई) कहते थे।
अरब के समाज में औरत
जाहिल और अनपढ़ अरबों में जिहालत और ख़ुराफ़ात का एक स्पष्ट नमूना, औरत के बारे में उनकी सोच थी। उस काल के समाज में औरत इंसानियत की कसौटी, सोशल राईट्स, और आज़ादी से बिलकुल वन्चित थी। और उस समाज में गुमराही और समाज के वहशीपन की वजह से लड़की और औरत का वजूद बदनामी व अपमान का कारन समझा जाता था। वह लड़कियों को विरासत में हिस्सा नही देते थे। उनका कहना था कि विरासत के अधिकारी केवल वह लोग हैं जो तलवार चलाते हैं और अपने क़बीले की रक्षा करते हैं। एक रवायत के अनुसार अरब में औरत की तुलना उस माल व दौलत से की जाती थी जो पति के मरने के बाद (पुत्र न होने पर) पति के दूसरे माल व दौलत की तरह सौतेली औलाद के पास ट्रांस्फ़र हो जाती थी।
इतिहास गवाह है कि पति के मरने के बाद उसका बड़ा लड़का अगर उस औरत को रखने का इच्छुक होता था (अर्थात अपनी बीवी बनाना चाहता था) तो उसके ऊपर एक कपड़ा डाल देता था और इस तरीक़े से मीरास के तौर पर औरत उसे मिल जाया करती थी इसके बाद अगर वह चाहता था तो उसे बिना किसी महेर के, केवल बाप की दौलत के मालिक होने के आधार पर उसकी बीवी से शादी कर लेता था और अगर शादी का इच्छुक न होता तो दूसरों से उसकी शादी कर देता था और उस औरत का महेर ख़ुद ले लेता था। और उसके लिए यह भी सम्भव था कि उसे हमेशा के लिए दूसरे मर्दों से शादी करने से रोक दे, यहाँतक कि वह मर जाय और उसके माल का मालिक बन जाए।
चूंकि बाप की बीवी से शादी करना उस समय क़ानून के अनुसार मना नही था इसलिए क़ुरान-ए-करीम ने उनको इस काम से मना किया। इसलाम के आने के बाद क़ुरान के जानकारों के अनुसार एक आदमी जिसका नाम “ अबूक़ैस बिन सलत” था जब वह मर गया तो उसके लड़के ने चाहा कि अपने बाप की बीवी के साथ शादी करे तो अल्लाह की तरफ़ से यह आयत नाज़िल हुई..........
तुम्हारे लिए हलाल नही है कि तुम औरत को मीरास में लो। ( सूरा निसा आयत 22)
इस समाज में बहु विवाह बिना किसी रुकावट के चलन में था।
औरत की ट्रेज्डी
यह बात मशहूर है कि अरबों में सबसे बुरी परंपरा यह थी कि वह लड़कियों को ज़िन्दा गाड़ देते थे। क्योंकि लड़कियां ऐसे समाज में जो तहज़ीब और कल्चर से दूर, अत्याचार और बर्बरता में डूबा हुआ हो, मर्दों की तरह लड़कर अपने क़बीले की रक्षा नहीं कर सकती थीं क्योंकि लड़ने की सूरत में यह सम्भव था कि लड़कियां दुश्मन के हाथ लग जाएँ और इनसे ऐसी औलादें पैदा हों जो क़बीले के लिए अपमान की वजह बन जाएँ इस लिए वह लड़कियों को ज़िन्दा गाड़ देते थे। और कुछ लोग ग़रीबी की वजह से भुखमरी के डर से ऐसा करते थे।
लड़कियां अरब समाज में मनहूस समझी जाती थीं क़ुरान-ए-करीम ने उनकी इस ग़लत सोच को इस तरह से बयान किया है-
“और जब उनमें से किसी को लड़की की ख़ुशख़बरी दी जाती है तो उसका चेहरा काला हो जाता है और वह ख़ून के घूंट पीने लगता है, क़ौम से मुंह छिपाता है कि बहुत बुरी ख़बर सुनाई गई है अब इसको अपमान के साथ ज़िन्दा रखे या मिट्टी में मिला दे बेशक यह लोग बहुत बुरा फ़ैसला कर रहे हैं”
औरत को वंचित करने और दबाने की बातें उस ज़माने के अरबी साहित्य में बहुत अधिक मिलती हैं। उस समय की अरब दुनिया में यह बात प्रचलित थी कि जिसके यहाँ लड़की होती थी उससे यह लोग कहते कि- अल्लाह तुमको इस लड़की से मिलने वाली बेइज़्ज़ती से बचाए रक्खे और इसके ऊपर होने वाले ख़र्चों को पूरा करे और क़ब्र को दामाद का घर बना दे।
एक अरब शायर ने इस बारे में कहा है-
जिस बाप के यहाँ लड़की पैदा हो और यह उसे ज़िन्दा रक्खना चाहे तो उस बाप के लिए तीन दामाद हैं।
1.वह घर जिसमें वह रहती है।
2. उसका पति जो उसकी रक्षा करता है
3. वह क़ब्र जो उसको अपने अन्दर छिपा लेती है। लेकिन इनमें सबसे बेहतर क़ब्र है।
कहते हैं कि एक आदमी जिसका नाम अबू हम्ज़ा था केवल इस वजह से अपनी बीवी से नाराज़ हो गया और पड़ोसी के यहां जाकर रहने लगा कि उसके यहाँ लड़की पैदा हुई थी। इस लिए उसकी बीवी अपनी बच्ची को लोरी सुनाते हुए शायरी की ज़बान में कहती है-
अबू हम्ज़ा को क्या हो गया है जो हमारे पास नही आता है और पड़ोसी के घर में रह रहा है वह केवल इस लिए नाराज़ है कि हमने लड़का नही जना। ख़ुदा की क़सम यह काम मेरे बस में नही है, जो भी वह हमको देता है हम उसे ले लेते हैं। हम ज़मीन की तरह हैं कि खेत में जो बोया जाएगा वही उगेगा।
वास्तव में अगर देखा जाए तो उस माँ की बातें इस समाज और सिस्टम के ख़िलाफ़ एक विरोध और प्रोटेस्ट है।
सबसे पहला क़बाला जिसने इस ग़लत परंपरा की आधारशिला रक्खी वह “बनी तमीम” का क़बीला था। कहा जाता है कि इस क़बीले ने नोमान बिन मन्ज़र को टैक्स देने से इन्कार कर दिया जिसके नतीजे में इनके बीच लड़ाई हुई जिसमें बहुत सारी लड़कियां और औरतें क़ैदी बना ली गईं जिस समय बनी तमीम के दूत क़ैदियों को छुड़ाने के लिए नोमान के दरबार में हाज़िर हुए तो उसने यह अधिकार ख़ुद इन औरतों को दे दिया कि चाहें तो ईराक़ में रहें और चाहें तो बनी तमीम के पास चली जाएँ। क़ैस बिन आसिम जोकि क़बीले का सरदार था उसकी लड़की भी क़ैदी बनाई गई थी और उसने एक दरबारी से शादी कर ली थी इस लिए उसने दरबार में रुकने का फ़ैसला कर लिया, क़ैस इस बात से बहुत नाराज़ हुआ और उसने उसी वक़्त फ़ैसला कर लिया कि अब से वह अपनी लड़कियों को मार डालेगा, और उसने यह काम कर दिखाया। इसके बाद धीरे धीरे यह परंपरा दूसरे क़बीलों में भी प्रचलित हो गई, कहा जाता है कि इस जुर्म में क़ैस, असद, हज़ील, और बकर बिन वायल नाम के क़बीले शामिल थे। लेकिन यह परंपरा बहुत अधिक चलन में नही थी कुछ क़बीले और कुछ लोग इस काम का विरोध करते थे, इनमें से जनाब अब्दुल मुत्तलिब जो पैग़ंबर-ए-इस्लाम के दादा थे और वह इस काम के बहुत बड़े विरोधी थे और कुछ लोग जैसे ज़ैद बिन उमर और सआसा बिन नाजिया, लड़कियों को उनके बाप से भुखमरी के डर से ज़िन्दा गाड़ते वक़्त ले लेते थे और उनको अपने पास रखते थे। और कभी लड़कियों के बदले में उनके बाप को ऊंट दे दिया करते थे। लेकिन इतिहास गवाह है कि, यह परंपरा चलन में थी, क्योंकि-
1.सआसा बिन नाजिया ने इस्लाम के ज़माने में पैग़ंबर (स) से कहा था कि मैंने अज्ञानता और बेख़बरी के दौर में 280 लड़कियों को ज़िन्दा ज़मीन में गाड़ने से बचाया है।
2.क़ैस बिन आसिम ने अपने आप से वादा करने के बाद अपनी 12 या 13 लड़कियों को मार डाला।
3.पैग़ंबर-ए-इस्लाम (स) ने पहले समझौते (पैमान-ए-अक़बा-बेसत के बारह्वें साल) में जोकि मदीने के एक गुट के साथ किया था, समझौते की एक शर्त यह थी कि लड़कियों को ज़िन्दा दफ़न न करेंगे।
4.मक्के पर जीत के बाद पैग़ंबर-ए-अकरम (स) ने ख़ुदा के हुक्म से इस शहर की मुस्लिम औरतों से बैअत (अल्लाह के प्रति वफ़ादारी) लेते वक़्त यह शर्त रक्खी थी कि अपनी लड़कियों को मारने से बचें।
5.क़ुरान-ए-करीम ने बहुत सी जगहों पर इस परमपरा की बहुत निन्दा की है। इस लिए इन घटनाओं से पता चलता है कि यह मुद्दा उस समाज की सबसे बड़ी मुश्किल थी जिसके बारे में क़ुरान-ए-करीम ने बार बार चेताया है।
“और ख़बरदार! अपनी औलाद को भुखमरी के डर से मार न डालो कि हम उन्हें भी रोज़ी देते हैं और तुन्हें भी रोज़ी देते हैं बेशक उनकी हत्या कर देना बहुत बड़ा गुनाह है।“
“अवश्य ही वे लोग घाटे में हैं जिन्हों ने मूर्खता में बिना जाने बूझे अपनी औलाद को मार डाला”
अपनी औलाद की ग़रीबी की वजह से हत्या न करना कि हम तुम्हें भी आजीविका (रिज़्क़) दे रहे हैं और उन्हें भी”
“और जब ज़िन्दा दफ़न की गई लड़कियों के बारे में सवाल किया जाएगा कि उन्हें किस गुनाह में मारा गया”
नई टिप्पणी जोड़ें