समाज का आधार इस्लामिक शिक्षा के अनुसार
समाज का आधार इस्लामिक शिक्षा के अनुसार
धार्मिक समाज में, मनुष्य अपने भविष्य की रचना का स्वंय ज़िम्मेदार होता है और उसे समृद्ध व स्वतंत्र संसार की रचना करना होता है। सुधार व न्याय प्रेम की भावना उसे उच्च लक्ष्यों के साथ जीवन व्यतीत करने और ईश्वरीय मान्यताओं के अनुरुप एक समाज की रचना की उसकी महत्वकांक्षाओं को व्यवहारिक बनाने के लिए प्रयास पर प्रोत्साहित करती है। यह आदर्श व महत्वकांक्षी समाज वही धार्मिक समाज होता है जो धर्म व ईश्वरीय दूतों के दृष्टिगत होता है।
समाज एक परिभाषा के अनुसार लोगों के उस गुट को कहा जाता है कि जो एक संस्कृति व शैली के अंतर्गत कि जो सब के लिए स्वीकारीय होती है, एकत्रित होते हैं ताकि स्वस्थ्य व सफलतापूर्ण जीवन व्यतीत कर सकें। यदि यह शैली और संस्कृति धार्मिक शिक्षाओं से निकली हो तो एसी स्थिति में धार्मिक समाज अर्थपूर्ण होता है। दूसरे शब्दों में धार्मिक समाज में धर्म , समाज के सदस्यों के कल्याण व सुरक्षा के लिए जीवन के कार्यक्रम निर्धारत करता है। निश्चित रूप यह भी नहीं भूलना चाहिए कि धार्मिक शिक्षाओं के साथ, बुद्धि भी इस प्रकार के समाज में मूल भूमिका निभाती है।
यह बुद्धि है जो धार्मिक शिक्षाओं को समझने में मनुष्य की सहायता करती है और उसे धार्मिक शिक्षाओं के निहित अर्थों से अवगत कराती है। इस लिए धार्मिक समाज में इस्लामी नियम और बुद्धि किसी भी दशा में एक दूसरे से अलग नहीं होते बल्कि दोनों एक साथ मिल कर मानव कल्याण में भूमिका निभाते हैं। क़ुरआन की दृष्टि में मानव समाज उस समय सुखदायी हो सकता है जब उस समाज के सदस्य पूरी लगन से ईश्वरीय आदेशों का पालन करते हों। क़ुरआने मजीद के सूरए अन्फाल की आयत नंबर २४ में कहा गया है कि हे ईमान वालो! ईश्वर व पैग़म्बर के बुलावे का उत्तर दो, जब वे तुम्हें किसी चीज़ की ओर बुलाएं जो तुम्हें जीवन प्रदान करती है और जान लो कि ईश्वर मनुष्य और उसके ह्रदय के मध्य बाधा बन जाता है और प्रलय के दिन उसके पास एकत्रित होगे।
यह आयत धर्म पर आस्था रखने वाले उन लोगों को संबोधित करती है जो पूरी सदभावना व शुद्ध इरादों के साथ उन आदेशों का पालन करते हैं जो ईश्वर और उसके दूत ने दिया हो। सूरए बक़रह की आयत नंबर अड़तीस में भी ईश्वर ने धर्म पर आस्था रखने वालों को यह शुभसूचना दी है कि वह उनका अभिभावक है और सदैव उनका जीवन के अंधकारों में प्रकाश की ओर मार्गदर्शन करता है। इस प्रकार से यदि मनुष्य धार्मिक शिक्षाओं का पालन करे तो सदैव स्वंय को ईश्वर की देखरेख में पाएगा और जीवन में समस्याओं की बंद गली में कभी नहीं फंसेगा।
धार्मिक समाज में बुद्धिजीवी, धार्मिक शिक्षाओं और सिफारिशों का पालन करते हैं इस प्रकार से धार्मिक समाज में हमें एसे तत्व और मापदंड दिखायी देते हैं जिनका स्रोत धार्मिक शिक्षाएं होती हैं। इन्ही में से एक मापदंड सत्य को आधार बनाना है। बुद्धि और धार्मिक नियम, मनुष्य को सत्य को आधार बनाने का निमंत्रण देते हैं। धार्मिक समाज का लक्ष्य, सोच व कर्म में सत्य का पालन है। धर्म की दृष्टि में सत्य धर्म का अटूट अंग होता है और जो भी उसके सामने खड़ा होता है उसे पराजय होती है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम का कथन है कि जो भी सत्य के मुक़ाबले में खड़ा होता है उसका विनाश हो जाता है। क़ुरआन मजीद के सूरए यूनुस की आयत नंबर ३५ में उन लोगों को नेतृत्व के योग्य बताया गया है जो सदैव सत्य के लिए प्रयासरत रहते हैं और सत्य के आधार पर काम करते हैं।
धार्मिक समाज का एक अन्य महत्वपूर्ण तत्व बुद्धिमत्ता है। जैसा कि हमने कहा कि मनुष्य, बुद्धि व विचार के बल पर धर्म की शिक्षाओं को समझता है और उन्हें अपनी जीवन शैली का नियम बनाता है। इमाम मोहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम का एक कथन है कि जब ईश्वर ने बुद्धि को अस्तित्व दिया तो उस से कहा कि सौगंध है मुझे अपने सम्मान व महानता की, मैने तुझ से अधिक श्रेष्ठ व प्रिय कोई रचना नहीं की और तुझे पूर्ण रूप से केवल उसी को दूंगा जो मेरी कृपा का पात्र होगा। निश्चित रूप से रोक टोक व आदेश सब कुछ तेरे ही लिए हैं। क़ुरआने मजीद ने अपने अधिकांश निर्देशों और शिक्षाओं में मनुष्य की बुद्धि को संबोधित किया है और यह मनुष्य को जो धरती पर ईश्वर का उत्तराधिकारी कहा जाता है उसका एक कारण मनुष्य की बुद्धि और उसकी चिंतन शक्ति है।
सत्य व बु्द्धि के अतिरिक्त न्यायप्रेम भी धार्मिक समाज का एक आधार है। धार्मिक समाज न्याय पर आधारित होता है। इस संदर्भ में सभी ईश्वरीय दूतों का सामाजिक कर्तव्य, भी मानव समाज के सभी क्षेत्रों में न्याय की स्थापना है। निश्चित रूप से केवल धार्मिक सिद्धान्तों पर विश्वास और धार्मिक नियमों का पालन ही समाज के लिए लाभ दायक नहीं होता जब तक कि उसका प्रभाव समाज पर न पड़े। न्याय की स्थापना धार्मिक शिक्षाओं के जीवित रहने का कारण बनती है। इस्लाम के दृष्टिगत न्याय, एक सार्वाजनिक न्याय है न कि केवल आर्थिक न्याय। समाज के सभी वर्गों में सामाजिक न्याय की स्थापना, सदैव ही धार्मिक समाज का महत्वपूर्ण उद्देश्य रहा है। इसके दो मूल सिद्धान्त हैं। सहयोग और सामाजिक संतुलन। धार्मिक समाज में समाज के सभी वर्गों के मध्य आम सहयोग और एकता का होना आवश्यक है। सहयोग और सहकारिता के सिद्धान्त के आधार पर सामाजिक दायित्व, योग्यताओं के आधार पर बांटे जाते हैं और दूसरी ओर, सामाजिक संतुलन के सिद्धान्त के आधार पर यह आवश्यक होता है कि हर सदस्य, अपनी योग्यता के आधार पर विशेष स्थान पर रखा जाए। क़ुरआने मजीद की दृष्टि में मनुष्य की परिपूर्णता की चरमसीमा, ईश्वरीय भय का मन में होना है और इस दशा तक पहुंचने के लिए न्याय महत्वपूर्ण साधन होता है।
धार्मिक समाज की एक अन्य मूल विशेषता, क़ानून को महत्व देना है। धार्मिक समाज में समाज के सभी सदस्य क़ानून के पालन को अपना धार्मिक कर्तव्य समझते हैं। इस्लाम लोक परलोक के कल्याण को ईश्वरीय नियमों में निहित मानता है कि जिसका आधार एकेश्वरवाद होता है और धार्मिक समाज के सभी नियम, इसी सिद्धान्त से निकलते हैं। इस्लामी नियमों में मनुष्य के सभी व्यक्तिगत व समाजिक और छोटे बड़े विषयों और समस्याओं पर ध्यान दिया गया है। जो विषय भी मनुष्य से संबंधित होता है परोक्ष या अपरोक्ष रूप से इस्लाम में उसके संदर्भ में एक क़ानून का वर्णन किया गया है। धार्मिक समाज में क़ानूनी संबंधों का आधार दो वस्तुओं पर होता है। एक ईश्वरीय नियम जो क़ुरआने मजीद, पैग़म्बरे इस्लाम के व्यवहार तथा उनके परिजनों के कथनों से लिया जाता है। और दूसरे वह नियम हैं जो इस्लाम और मुसलमानों के हितों को दृष्टिगत रखते हुए तथा समय व स्थान के अनुसार, इस्लामी शासक द्वारा बनाए जाते हैं। इस्लामी क्रांति के महान नेता इमाम खुमैनी ने धार्मिक समाज में नियमों के आधार के बारे में लिखा हैः इसलाम एक एसी सरकार की आधारशिला रखता है जिसमें न तनाशाही होती है और न ही किसी व्यक्ति विशेष की अपनी इच्छाएं पूरे समाज पर थोपी जाती हैं। और न ही संविधान व प्रजातंत्र की वह शैली होती है जो एसे नियमों पर आधारित हो जिन्हें कुछ लोगों ने बनाकर पूरे समाज पर थोपा हो। इस्लामी सरकार का प्रेरणास्रोत, ईश्वरीय संदेश होता है और हर क्षेत्र में ईश्वरीय नियमों पर ध्यान दिया जाता है और समाज के किसी भी नेता या अधिकारी को मनमानी करने की अनुमति नहीं होती।
निश्चित रूप से धार्मिक समाज में नियमों की रचना का उद्देश्य, मनुष्य को आध्यात्मिक व नैतिक परिपूर्णता तक पहुंचाना है ताकि इस प्रकार से ईश्वर से निकटता का उच्च उद्देश्य पूरा हो सके और ईश्वर का उत्तराधिकारी होने का अर्थ, मनुष्य में व्यवहारिक हो सके। इसी लिए धार्मिक समाज में एक अन्य विषय जिस पर ध्यान दिया गया है वह मनुष्य की नैतिकता और प्रतिष्ठा है। नैतिक शिष्टाचार, इस्लाम के सभी धार्मिक व नागरिक नियमों में उच्च स्थान रखता है। यहां तक कि दंडों और न्यायिक नियमों में भी मानव प्रतिष्ठा के सम्मान तथा नैतिकता पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया है। धार्मिक समाज में बनाए जाने वाले नियमों की एक अन्य विशेषता उनकी व्यापकता है। मनुष्य को अपने जीवन में जिन वस्तुओं की भी आवश्यकता होती है उनका धार्मिक नियमों में वर्णन किया गया है।
धार्मिक समाज की एक अन्य विशेषता, समाज में मनुष्य का स्थान और इस स्थान के बारे में उसकी सोच की शैली है। धार्मिक समाज में मनुष्य वास्तविक अर्थों में, यद्यपि अपने हितों की पूर्ति तथा कल्याण के लिए प्रयास करता है, किंतु अपनी सोच व कामों का आधार, सदभावना तथा ईश्वर को प्रसन्न करने पर रखता है। धार्मिक संस्कृति में मनुष्य, सृष्टि का मूल केन्द्र व ध्रुव होता है किंतु यह विशेषता, उससे भिन्न है जिसे पश्चिम में मानव को केन्द्र बनाया जाना कहा जाता है। इस बात में विश्वास कि मनुष्य हर वस्तु को आंकने का मापदंड होता है एक एसा सिद्धान्त है जिसे यूनान के दर्शन शास्त्र में पहले मिथ्या के रूप में प्रस्तुत किया गया था किंतु बाद में यूनान के सभी दार्शनिक मतों पर यह विचार धारा छा गयी। मनुष्य को ध्रुव व केन्द्र बनाने का यह चलन इतना आगे बढ़ा कि ईश्वर को भी मनुष्य का सेवक और उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति का एक साधन समझा जाने लगा जबकि इस्लाम में ईश्वर सृष्टि की रचना का स्रोत और मानव कर्म का केन्द्र बिन्दु समझा जाता है और ईश्वरीय नियमों द्वारा, मनुष्य के दायित्वों और वर्जनाओं का वर्णन करने का एकमात्र माध्यम बताया जाता है।
धार्मिक समाज में एकेश्वरवादी विचारधारा, बड़े बड़े मानसिक व नैतिक बदलाव का स्रोत होती है और व्यक्ति को सामाजिक मंच पर व्यापक परिवर्तनों के लिए तैयार करती है इस विचारधारा के अंतर्गत, मनुष्य, अपने भविष्य की रचना का ज़िम्मेदार होता है और उसे एक समृद्ध संसार बनाना होता है। सुधार व न्याय प्रेम की भावना उसे उच्च लक्ष्यों के साथ जीवन व्यतीत करने और ईश्वरीय मान्यताओं के अनुरुप एक समाज की रचना की उसकी महत्वकांक्षाओं को व्यवहारिक बनाने के लिए प्रयास पर प्रोत्साहित करती है। यह आदर्श व महत्वकांक्षी समाज वही धार्मिक समाज होता है जिस पर सभी ईश्वरीय दूतों के प्रयास केन्द्रित रहे हैं।
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