दो मिनट में अहकाम सीखें 3

 

ईश्वरीय अहकाम इन्सान की शक्ति के अनुसार हैं

इस्लामी अहकाम आसान हैं कुछ नमूनों की तरफ़ हम इशारा करते हैं

1. वाजिब होना इंसान की शक्ति और क़ुदरत की हद भर है।

2. बीमार, विवश ... आदि के लिए नमाज़ रोज़ा आदि में सहूलत का दिया जाना।

3. यात्री के लिए नमाज़ में कंसेशन का होना।

4. बीमारी कुछ वाजिबों के समाप्तो होने का कारण बन जाती है, जैसे रोज़ा रखना, ग़ुस्ल करना, जुमे की नमाज़ में जाना, जिहाद में जाना आदि।

5. वह महिलाए जो मासिक धर्म में है उनके लिए नमाज़ का वाजिब ना होना।

6. किसी चीज़ की नजासत का मापदंड उसकी अपवित्रता का विश्वास होना है, और किसी चीज़ के नजिस होने के बारे में छानबीन करना वाजिब नहीं है।

7. कुछ अहकाम में आसानी के लिए तबदील करने की सहूलियत का होना जैसे जिसके लिए पानी हानिकारक हो उसको तयम्मुम करनी के अनुमति दी गई है कि वह वूज़ू या गुस्ल के बदले तयम्मुम कर सकता है।

8. वह व्यक्ति जिसने पिछले रमज़ान का रोज़ा बीमारी के कारण ना रखा हो और अगर उसकी बीमारी दूसरे साल तक बाक़ी रहे तो उस पर रोज़ों की क़ज़ा का ना होना।

9. वह मक़रूज़ जिसके पास पैसा ना हो उसको छूट देना।

10. इस्तिनजा के पानी (वह पानी जिसको शौच में प्रयोग किया जाता है) का कुछ शर्तों के साथ पवित्र होना चाहे वह क़लील ही क्यों ना हो।

11. शरीर पर लगे हुए घाव के ख़ून को साफ़ करना अगर सख़्त हो तो उसको साफ़ करने का वाजिब ना होना।

12. वह सारे अहकाम जो तौज़ीहुल मसाए में क्रमानुसा बयान किए गए हैं और हर एक में कुछ छूट दी गई है। जैसे अगर कोई इंसान दस लोगों को खाना ना खिला सकता हो तो तीन रोज़े रखे आदि।

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वुज़ू की क़िस्में

वुज़ू तीन प्रकार का होता है

1. वाजिब वुज़ू जैसे नमाज़ या क़ुरआन की लिखावट को छूने के लिए किया जाने वाला वुज़ू।

2. मुस्तहेब वुज़ू जैसे क़ुरआन और दुआ आदि पढ़ने के लिए किया जाने वाला वुज़ू।

3. हराम वुज़ू जैसे जनाबत के ग़ुस्ल के बाद किया जाने वाला वुज़ू।

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वह स्थान जहां पर सूरा (अलहम्द के बाद का दूसरा सूरा) पढ़ना आवश्यक नहीं है

1. अगर नमाज़ के लिए समय कम हो तो दूसरा सूना नहीं पढ़ना चाहिए।

2. अगर इंसान इस बात पर विवश हो कि सूरा ना पढ़े जैसे उसको डर हो कि अगर सूरा पढ़ेगा तो चोर या कोई जानवर या कोई दूसरी चीज़ उसके हानि पहुंचाएगी, तो ऐसी सूरत में सूरा नहीं पढ़ना चाहिए।

3. अगर किसी कार्य के लिए जल्दी हो तो दूसरा सूरा छोड़ा जा सकता है।

4. अगर किसी बीमारी के कारण दूसरा सूरा ना पढ़ सकता हो तो सूरा छोड़ा जा सकता है।

5. नमाज़ों की तीसरी और चौथी रकअत में अगर अलहम्द का सूरा पढ़े तो उसके बाद दूसरा सूरा नहीं है।

6. नमाज़े एहतियात में दूसरा सूरा नहीं है।

7. जमाअत की नमाज़ में उस सूरत में जब वह तीसरी या चौथी रकअत में जमाअत में समिलित हो और उसके पास केवल अलहम्द का सूरा पढ़ने का समय और अगर वह दूसरा सूरा पढ़े तो वह इमाम के रुकूअ को ना पा सकता हो तो दूसरा सूरा नहीं पढ़ना चाहिए।

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वह स्थान जहां रुकूअ की अधिकता नमाज़ को बातिल नहीं करती है

रुकूअ नमाज़ का रुक्न है और उसमें जानबूझ कर या भूले से कमी या अधिकता हो जाए तो नमाज़ बातिल हो जाती है, लेकिन निम्नलिखित स्थानों पर नमाज़ बातिल नहीं होती

1. नमाज़े जमाअत में इमाम का साथ पाने के कारण अगर रूकूअ में ज़्यादती हो जाए, जैसे भूले से कोई इमाम से पहले रुकूअ से सर उठा ले तो उसके लिए ज़रूरी है कि दोबारा रुकूअ में चला जाए, या भूले से इमाम से पहले रुकूअ में चला जाए तो उसके लिए आवश्यक है कि वह वापस खड़ा हो और इमाम के साथ दोबारा रुकूअ में जाए, और इन रुकूअ की अधिक्ता नमाज़ को बातिल नहीं करती है।

2. मुस्तहेब नमाज़ों में अगर भूले से रुकूअ ज़्यादा हो जाए तो नमाज़ बातिल नहीं है।

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वह स्थान जहां पर उचित है कि नमाज़ देर से पढ़ी जाए

मुस्तहेब है कि इन्सान नमाज़ को अव्वले वक़त पर पढ़े लेकिन नमाज़ में देरी करना कुछ स्थानों पर बेहतर है जो यह हैं

1. ज़ोहर और अस्र की नमाज़ में देरी करना उसकी नाफ़ेला पढ़ने के लिए।

2. जिस पर क़ज़ा नमाज़ वाजिब हो उसके लिए क़ज़ा नमाज़ का पढ़ना।

3. जो व्यक्ति किसी कारण से तयम्मुम करता है अगरचे वह अव्वले वक़त पर नमाज़ पढ़ सकता है लेकिन उस के लिए उचित है कि देर करे ताकि उसका वह कारण समाप्त हो जाए (और वह वुज़ू करके नमाज़ पढ़े)

4. नमाज़े जमाअत की प्रतीक्षा में या मस्जिद आदि में मामूमीन की संख्या बढ़ने की प्रतीक्षा में।

5. अस्र और इशा की नमाज़ में देरी करना ताकि उसकी फ़ज़ीलत के समय पढ़ी जाए।

6. मग़रिब की नमाज़ में देरी करना उस व्यक्ति के लिए जो रोज़ा हो और भूक या प्यास की अधिकता हो या कोई दूसरा इन्सान उसकी प्रतीक्षा कर रहा हो।

7. सुबह की नमाज़ में देरी करना जिसकी सुबह होने के बाद भी नाफ़ेला ए शब में से कुछ बाक़ी बचा हो तो वह पहले उनको पढ़े फिर सुबह की नमाज़ पढ़े।

8. देर करना उसके लिए जिसे शौचालय जाना हो।

9. अगर नमाज़ में समय अधिक हो और क़र्ज़ देने वाला अपना क़र्ज़ा वापस मांगे तो अगर संभव हो तो पहले उसके क़र्ज़ को अदा करे फिर नमाज़ पढ़े। इसी प्रकार अगर कोई दूसरा ऐसा वाजिब कार्य आ जाए जिसको तुरन्त करना हो तो पहले उसके करे जैसे देखे कि अगर मस्जिद अपवित्र हो गई है तो पहले उसको पवित्र करे, और अगर ऐसी अवस्था में पहले नमाज़ पढ़ ले तो उसने पाप किया है लेकिन उसकी नमाज़ सही है।

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वह स्थान जहां नमाज़ को दोबारा पढ़ना वाजिब है

1. जिसने समय से पहले नमाज़ पढ़ ली हो।

2. जिसने क़िबले की तरफ़ पीठ करके या उसके दाहिने या बाएं तरफ़ चेहरा करके नमाज़ पढ़ी हो।

3. वह यात्री जिसको क़स्र नमाज़ पढ़नी हो लेकिन उसने पूरी नमाज़ पढ़ ली हो। या जहां पर उसको पूरी नमाज़ पढ़नी हो वहां पर क़स्र पढ़ ली हो।

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सजदा और उसके अहकाम

1. सजदे में वाजिब ज़िक्र भर शरीर का स्थिर होना आवश्यक है।

2. पहले सजदे के ज़िक्र से समाप्त होने के बाद, इतना बैठे कि शरीर स्थिर हो जाए फ़िर दूसरे सजदे में जाए।

3. अगर ज़िक्र समाप्त होने से पहले जानबूझ कर सजदे से सिर उठा ले, तो नमाज़ बातिल है।

4. अगर सजदे के ज़िक्र को पढ़ते समय सजदे के अंगों में से किसी एक को जानबूझ कर ज़मीन से उठा ले तो नमाज़ बातिल है, लेकिन जब ज़िक्र नहीं पढ़ रहा है तब अगर माथे के अतिरिक्त दूसरे अंगों को ज़मीन से उठा ले तो कोई आपत्ती नहीं है।

5. वह चीज़ें जिन पर सजदा सही है वह यह  हैं: मिट्टी, पत्थर, पक्की मिट्टी, गच, लकड़ी, घास आदि इसी प्रकार वह चीज़ें जो धरती से उगती है और जानवर उनको खाते हैं जैसे घास आदि उस पर भी सजदा सही है।

6. उस काग़ज़ पर सजदा करना जो रूई या उसी के भाति किसी चीज़ से बनाया गया हो सही है।

7. अगर पहले सजदे में सजदेगाह माथे से चिपक जाए तो दूसरे सजदे के लिए ज़रूरी है कि उसको माथे सो छुड़ाए और तब सजदा करे , और अगर बिना छुड़ाए सजदा कर ले तो उसकी नमाज़ बातिल है।

8. सजदेगाह एक दिरहम (सिक्के) के बराबर हो अगरचे कुछ फ़ोक़हा जैसे इमाम ख़ुमैनी ने यह भी कहा है कि अगर एक पोर भर हो तो भी सजदा सही है।

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आमाले नियाबती (किसी दूसरे की तरफ़ से किये जाने वाले कार्य)

1. हर इंसान को अपने कार्य और वाजिबात को स्वंय अंजाम देना चाहिए और अगर कोई दूसरा उसके स्थान पर करे तो यह काफ़ी नहीं है, लेकिन मृत्क की नियाबत में पैसा लेकर (इजारे पर) या बिना पैसा लिए कार्य अंजाम दिया जा सकता है।

2. तमाम मुस्तहेब कार्यों में नियाबत सही है, चाहे वह जीवित लोगों के लिए हो या मुर्दों के लिए, जैसे ज़ियारत, क़ुरआन की तिलावत, सदक़ा आदि में।

3. नियाबत के लिए शर्त यह है कि जो नाएब बन रहा है वह नियाबत की नियत रखता हो, और जिसका नाएब बन रहा है उसका नाम लेना आवश्यक नहीं है।

4. वाजिब कार्यों में एक इंसान दो या कई लोगों की तरफ़ से नियाबत नहीं कर सकता है, लेकिन मुस्तहेब कार्यों में एक इन्सान एक कार्य को करके उसका सवाब कई लोगों को हदिया कर सकता है।

5. नियाबत में मर्द होना शर्त नहीं है, महिलाएं भी नियाबत कर सकती है।

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