ईर्ष्या, बीमारी और उसका इलाज
ईर्ष्या, बीमारी और उसका इलाज
ईर्ष्या का अर्थ होता है किसी अन्य व्यक्ति को प्राप्त अनुकंपाओं की समाप्ति की इच्छा रखना। ईर्ष्यालु व्यक्ति यह नहीं चाहता कि कोई दूसरा व्यक्ति भी अनुकंपा या समृद्धि का पात्र बने। यह भावना धीरे-2 ईर्ष्यालु व्यक्ति में अक्षमता व अभाव की सोच का कारण बनती है और फिर वह हीन भावना में ग्रस्त हो जाता है। ईर्ष्या में प्रायः एक प्रकार का भय भी होता है क्योंकि इस प्रकार का व्यक्ति यह सोचता है कि दूसरे ने वह स्थान, पद या वस्तु प्राप्त कर ली है जिसकी प्राप्ति की वह स्वयं इच्छा रखता था। ईर्ष्यालु व्यक्ति सदैव इस बात का प्रयास करता है कि अपने प्रतिद्वंद्वी की उपेक्षा करके या उसकी आलोचना करके उसे मैदान से बाहर कर दे ताकि अपनी स्थिति को मज़बूत बना सके। वस्तुतः ईर्ष्या करने वालों की मूल समस्या यह है कि वे दूसरों की अच्छाइयों और प्रसन्नता को बहुत बड़ा समझते हैं और उनके जीवन की कठिनाइयों व समस्याओं की अनदेखी कर देते हैं। ईर्ष्यालु लोग, दूसरे व्यक्ति के पूरे जीवन को दृष्टिगत नहीं रखते और केवल उसके जीवन के वर्तमान भाग को ही देखते हैं जिसमें प्रसन्नता होती है। कुल मिला कर यह कि ईर्ष्यालु लोगों के मन में अपने और दूसरों के जीवन का सही चित्र नहीं होता और वे वर्तमान स्थिति के तथ्यों को बदलने का प्रयास करते हैं।
जैसा कि हमने कहा इस्लामी शिक्षाओं में ईर्ष्या जैसे नैतिक अवगुण की बहुत अधिक आलोचना की गई है और क़ुरआने मजीद की आयतों तथा पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम और उनके परिजनों के कथनों में लोगों को इससे दूर रहने की सिफ़ारिश की गई है। इन कथनों में ईर्ष्या को लोक-परलोक के लिए अत्यंत हानिकारक बताया गया है। उदाहरण स्वरूप कहा गया है कि ईर्ष्या, धर्म को तबाह करने वाली, ईमान को समाप्त करने वाली, ईश्वर से मित्रता की परिधि से बाहर निकालने वाली, उपासनाओं के स्वीकार न होने का कारण और भलाइयों का अंत करने वाली है। ईर्ष्या, विभिन्न प्रकार के पापों का मार्ग भी प्रशस्त करती है। ईर्ष्यालु व्यक्ति सदैव अवसाद व तनाव में ग्रस्त रहता है। उसके आंतरिक दुखों व पीड़ाओं का कोई अंत नहीं होता। इस्लामी शिक्षाओं में इस बात पर बहुत अधिक बल दिया गया है कि ईर्ष्यालु व्यक्ति कभी भी मानसिक दृष्टि से शांत व संतुष्ट नहीं रहता। वह ऐसी बातों पर दुःखी रहता है जिन्हें परिवर्तित करने की उसमें क्षमता नहीं होती। वह अपनी वंचितता से दुःखी रहता है जबकि उसके पास न तो दूसरे से वह अनुकंपा छीनने की क्षमता होती है और न ही वह उस अनुकंपा को स्वयं प्राप्त कर सकता है।
कभी-2 ईर्ष्या उन चीज़ों से लाभान्वित होने की शक्ति भी ईर्ष्यालु से छीन लेती है जो उसके पास होती हैं और वह उनसे आनंद उठा सकता है। इस प्रकार का व्यक्ति मानसिक संतोष से वंचित होता है और यह बात विभिन्न प्रकार के जटिल मानसिक एवं शारीरिक रोगों में उसके ग्रस्त होने का कारण बनती है। इस प्रकार से कि आंतरिक अवसाद, दुःख व चिंता धीरे-2 ईर्ष्यालु व्यक्ति को शारीरिक दृष्टि से कमज़ोर बना देती है और उसका शरीर विभिन्न प्रकार के रोगों में ग्रस्त होने के लिए तैयार हो जाता है। यही कारण है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम, ईर्ष्या से दूरी को स्वास्थ्य का कारण बताते हैं क्योंकि ईर्ष्या, शरीर को स्वस्थ नहीं रहने देती। मानसिक संतोष, सुखी मन और चिंता से दूरी ऐसी बातें हैं जो ईर्ष्यालु व्यक्ति में नहीं हो सकतीं। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने कहा है कि ईर्ष्यालु, सबसे कम सुख उठाने वाला व्यक्ति होता है।
अब प्रश्न यह है कि धार्मिक शिक्षाओं में ईर्ष्या के उपचार के क्या मार्ग दर्शाए गए हैं? इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि इस्लाम ने ईर्ष्या के उपचार के लिए विभिन्न मार्ग सुझाए हैं। इसके उपचार का पहला चरण यह है कि मनुष्य, अपने जीवन तथा आत्मा व मानस पर ईर्ष्या के हानिकारक परिणामों के बारे में चिंतन करे और यह देखे कि ईर्ष्या से उसके लोक-परलोक को क्या नुक़सान होता है? ईर्ष्या के उपचार के लिए पहले उसके कारणों को समझना चाहिए ताकि उन्हें समाप्त करके इस रोग का सफ़ाया किया जा सके। ईर्ष्या का मुख्य कारण बुरे विचार रखना है। सृष्टि की व्यवस्था और ईश्वर के बारे में नकारात्मक सोच, ईर्ष्या उत्पन्न होने के कारणों में से एक है क्योंकि ईर्ष्यालु व्यक्ति दूसरों पर ईश्वर की अनुकंपाओं को सहन नहीं कर पाता या यह सोचने लगता है कि ईश्वर उससे प्रेम नहीं करता और इसी लिए उसने अमुक अनुकंपा उसे प्रदान नहीं की है।
यही कारण है कि धार्मिक शिक्षाओं में दूसरों के बारे में सकारात्मक व भले विचार रखने पर बहुत अधिक बल दिया गया है। ईश्वर, उसके गुणों तथा उसके कार्यों पर ईमान को मज़बूत बनाना, ईर्ष्या को रोकने का एक अन्य मार्ग है। अर्थात मनुष्य को यह विश्वास रखना चाहिए कि ईश्वर ने जिस व्यक्ति को जो भी अनुकंपा प्रदान की है वह उसकी दया, न्याय व तत्वदर्शिता के आधार पर है। ईश्वर की कृपाओं और इस बात पर ध्यान कि उसकी अनुकंपाओं से लाभान्वित होने में सीमितता उन तत्वदर्शिताओं के कारण है जो ईश्वर ने इस संसार के संचालन के लिए दृष्टिगत रखी हैं, ईर्ष्यालु के भीतर पाए जाने वाले नकारात्मक विचारों को नियंत्रित कर सकता है। यदि मनुष्य इस विश्वास तक पहुंच जाए कि ईश्वर के ज्ञान व तत्वदर्शिता के बिना किसी पेड़ तक से कोई पत्ता नहीं गिरता तो फिर वह इस निष्कर्ष तक पहुंच जाएगा कि हर व्यक्ति द्वारा किसी न किसी अनुकंपा से लाभान्वित होने का अर्थ यह है कि उसे किसी कर्म का पारितोषिक दिया गया है, ईश्वर की ओर से उसकी परीक्षा ली जा रही है या फिर कोई अन्य बात है जिससे वह अवगत नहीं है और केवल जानकार ईश्वर ही है जो यह जानता है कि वह क्या कर रहा है। इस बात पर ध्यान देने से व्यक्ति के भीतर संतोष की भावना उत्पन्न होती है और जो चीज़ें उसे प्रदान की गई हैं उन पर वह संतुष्ट रहता है जिसके परिणाम स्वरूप, दूसरों को प्राप्त अनुकंपाओं से उसे ईर्ष्या नहीं होती।
मनुष्य को इसी प्रकार यह प्रयास करना चाहिए कि वह बुरी अंतरात्मा के बजाए सुंदर अंतर्मन का स्वामी हो। उसे अन्य लोगों के पास मौजूद वस्तुओं के बारे में स्वयं को हीन भावना में ग्रस्त करने के स्थान पर अपने स्वाभिमान और प्रतिष्ठा पर ध्यान केंद्रित रखना चाहिए। स्वार्थ और आत्ममुग्धता के बजाए ईश्वर की पहचान, ईश्वर से प्रेम तथा विनम्रता और शत्रुता के बजाए मित्रता से काम लेना चाहिए। ईर्ष्या से मुक़ाबला करने का एक अन्य मार्ग यह कि व्यक्ति सभी लोगों से प्रेम करे और उन्हें बुरा भला कहने के स्थान पर उनकी सराहना करे, इस प्रकार से कि उसके और अन्य लोगों के संबंधों में स्नेह, मित्रता व दयालुता की ही छाया रहे। जो कुछ लोगों के पास है उस पर ध्यान न देना और ईश्वर ने हमें जो कुछ दिया है केवल उन्हीं चीज़ों पर ध्यान देना, ईर्ष्या से मुक़ाबले के आंतरिक मार्गों में से एक है। यदि मनुष्य यह देखे कि उसके पास वह कौन कौन सी भौतिक व आध्यात्मिक अनुकंपाएं हैं जो दूसरों के पास नहीं हैं और वह प्रयास व परिश्रम करके इससे भी अधिक अनुकंपाएं प्राप्त कर सकता है तो यह बात ईर्ष्यालु व्यक्ति की इस बात में सहायता करती है कि वह अपने भीतर ईर्ष्या की जड़ों को समाप्त कर दे।
जिस व्यक्ति से ईर्ष्या की जा रही है वह भी ईर्ष्या को समाप्त करने में सहायता कर सकता है। जब इस प्रकार का व्यक्ति, ईर्ष्यालु व्यक्ति से प्रेम करेगा तो वह भी अपने रवैये में परिवर्तन लाएगा और मित्रता के लिए उचित मार्ग प्रशस्त हो जाएगा। इस प्रकार ईर्ष्या और बुरे विचारों का मार्ग बंद हो जाएगा। क़ुरआने मजीद के सूरए फ़ुस्सेलत की 34वीं आयत में लोगों के बीच पाए जाने वाले द्वेष को समाप्त करने के लिए यही पद्धति सुझाई गई है। इस आयत में ईश्वर कहता है। (हे पैग़म्बर!) अच्छाई और बुराई कदापि एक समान नहीं हैं। बुराई को भलाई से दूर कीजिए, सहसा ही (आप देखेंगे कि) वही व्यक्ति, जिसके और आपके बीच शत्रुता है, मानो एक घनिष्ठ मित्र (बन गया) है।
ईर्ष्या को समाप्त करने का एक अन्य मार्ग यह है कि जब जीवन में ऐसे लोगों का सामना हो जिनकी संभावनाएं और परिस्थितियां बेहतर हैं तो तुरंत ही उन लोगों के बारे में सोचना चाहिए कि जिनकी स्थिति हमसे अच्छी नहीं है। इस प्रकार हमें यह समझ में आ जाएगा कि यद्यपि हम अपनी बहुत सी इच्छाओं को प्राप्त नहीं कर सके हैं किंतु अभी भी हमारी स्थिति विश्व के बहुत से लोगों से काफ़ी अच्छी है। वस्तुतः हम ऐसी बहुत सी चीज़ों की अनदेखी कर देते हैं या उन्हें भुला देते हैं जो प्राकृतिक रूप से हमारे पास हैं या फिर हमने उन्हें प्राप्त किया है। उदाहरण स्वरूप स्वास्थ्य, जवानी, ईमान, अच्छा परिवार, घनिष्ठ मित्र और इसी प्रकार की दूसरी बहुत सी चीज़ें और बातें हैं जिनकी हम अनदेखी कर देते हैं। यदि हम इन पर ध्यान दें तो हमें पता चलेगा कि हमारे पास कितनी अधिक संभावनाएं और विशेषताएं हैं जिनके वास्तविक मूल्य व महत्व को हम इस लिए भूल चुके हैं कि हम उनके आदी हो चुके हैं। अलबत्ता इस वास्तविकता को भी स्वीकार करना चाहिए कि जीवन में संपूर्ण परिपूर्णता का अस्तित्व नहीं होता। जीवन, अच्छी व बुरी बातों का समूह है। यदि किसी के पास कोई ऐसी संभावना है जो आपके पास नहीं है तो इसके बदले में आपके पास भी कोई न कोई ऐसी विशेषता है जो दूसरों के पास नहीं है।
ईर्ष्या को समाप्त करने का एक अन्य मार्ग यह है कि उन लोगों के व्यक्तित्व की विशेषताओं और सोचने के तरीक़े को पहचाना जाए जो ईर्ष्यालु नहीं हैं। ऐसे लोग जो वास्तव में आपकी सफलता से प्रसन्न होते हैं। अब आप प्रयास कीजिए कि उस तर्क को समझने का प्रयास कीजिए जिसके अंतर्गत वे आपकी प्रगति से प्रसन्न होते हैं। उनके व्यक्तित्व की विशेषताओं को पहचानें और अपने बारे में उनकी सोच की शैली पर ध्यान दें। इन लोगों की सोच की क्या विशेष शैली और क्या विशेषता है? किस प्रकार वे ईश्वर की शक्ति व तत्वदर्शिता पर इतना ठोस ईमान रखते हैं? और किस प्रकार वे हृदय से दूसरों से प्रेम कर सकते हैं और उनकी सफलता की कामना कर सकते हैं? इस प्रश्नों के बारे में सोचें और ध्यान दें कि उन्होंने किस प्रकार यह शांति व संतोष प्राप्त किया है?
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