एकता इस्लाम की निगाह में
एकता इस्लाम की निगाह में
मुसलमानों की धार्मिक, एतिहासिक और राजनैतिक आवश्यकताओं में से एक महत्वपूर्ण आवश्कयता, इस्लामी एकता है। इस्लामी एकता, मुसलमानों के सम्मान और हर क्षेत्र में उनकी सफलता का एक महत्वपूर्ण तत्व भी है। एकता के मुक़ाबले में मतभेद है जिसकी किसी भी दृष्टि से प्रशंसा नहीं की जा सकती। मतभेद से इस्लामी समाज को नाना प्रकार की क्षति होती है और इससे केवल इस्लाम के शत्रुओं को ही लाभ होता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि बुद्धि और धार्मिक शिक्षाओं की दृष्टि से एकता नितांत आवश्यक है। मुसलमानों को यह बात बिल्कुल भी नहीं भूलनी चाहिए कि पैग़म्बरे इस्लाम ने उनके बीच बंधुत्व उत्पन्न करने के लिए अपने जीवन में अथक प्रयास किये हैं। सूरए आले इमरान की आयत संख्या 103 में ईश्वर कहता है किः अपने ऊपर ईश्वर की उस विभूति को याद करो जब तुम एक-दूसरे के शत्रु थे तो उसने तुम्हारे दिलों में एक-दूसरे के लिए प्रेम जगाया तो तुम उसकी विभूति की छाया में एक-दूसरे के भाई बन गए।
वर्तमान समय में इस्लामी जगत की ज्वलंत समस्याओं में से एक, उनके बीच पाया जाने वाला गंभीर मतभेद है। इस्लामी जगत में पाया जाने वाला मतभेद एक ओर तो इस समाज के पिछड़ेपन का कारण है और दूसरी ओर यही विषय वर्चस्ववादियों के वर्चस्व का भी कारण बना हुआ है। शत्रुओं के हाथों फ़िलिस्तीन और अफ़ग़ानिस्तान जैसे इस्लामी देशों का अतिग्रहण तथा कई अन्य इस्लामी देशों में जातीय एवं सांप्रदायिक मतभेदों के कारण यह देश बहुत पिछड़ गए हैं। यह सब मुसलमानों की ओर से एकता के प्रति निश्चेतता का परिणाम है। इस्लाम के समस्त पंथों में चाहे जितना भी मतभेद पाया जाता हो किंतु मूल रूप में उनमें किसी भी प्रकार का मतभेद नहीं है। उदाहरण स्वरूप एककेश्वर पर विश्वास, पैग़म्बरे इस्लाम का अन्तिम दूत होना, पवित्र, क़ुरआन का एक होना, काबे का एक होना और पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों का अनुसरण आदि।
इस बारे में इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई कहते हैं कि एकता से हमारा उद्देश्य, परस्पर समन्वय है ताकि मुसलमान भाई एक-दूसरे के मुक़ाबले में न उठ खड़े हों और शत्रु की बंदूक़ की नाल मित्रों की ओर न मुड़ने पाए। एकता संदेश के रूप में हमारा मानना यह है कि मुसलमानों को चाहिए कि वे एकजुट हो जाएं और वे एक-दूसरे से शत्रुता न करें। उनका केन्द्र बिंदु ईश्वर की किताब, पैग़म्बरे इस्लाम की परंपरा और धार्मिक शिक्षाएं होनी चाहिए। यह वह बात है जिसे हर न्यायप्रिय बुद्धिमान स्वीकार करता है।
वह बात जो समस्त इस्लामी पंथों और धर्मों यहां तक कि आसमानी धर्मों में एकता उत्पन्न करने के लिए संयुक्त बिंदु का काम कर सकती है वह एकेश्वरवाद है। यह विषय समस्त पैग़म्बरों की शिक्षाओं का आधार रहा है। सूरए आले इमरान की 64वीं आयत में ईश्वर समस्त लोगों को संबोधित करते हुए कहता हैः उस बात की ओर आओ जो हमारे और तुम्हारे बीच समान रूप से मान्य है। यह कि हम ईश्वर के अतिरिक्त किसी और की उपासना न करें और किसी को उसका समकक्ष न ठहराएं और हममें से कुछ लोग, कुछ दूसरों को ईश्वर के स्थान पर पालनहार न मानें।
यह आयत एकता के लिए एक खुला निमंत्रण है। पवित्र क़ुरआन समस्त आसमानी धर्मों के अनुयाइयों को संबोधित करते हुए कहता है कि हमारे और तुम्हारे बीच में संयुक्त बिंदु एकेश्वरवाद है। यह आसमानी किताब मनुष्यों से चाहती है कि वे जातिगत एवं अन्य मतभेदों को अनदेखा करते हुए एकजुट हो जाएं और संयुक्त नियमों की ओर ध्यान दें।
पवित्र क़ुरआन, एकेश्वर की उपासना के बारे में मुसलमानों को संबोधित करते हुए सूरए मोमिनून की आयत संख्या 52 में कहता है कि यह राष्ट्र एकल राष्ट्र है और मैं तुम्हारा पालनहार हूं अतः मेरा विरोध करने से बचो।
एकल राष्ट्र का मानदंड, एकेश्वरवाद पर आस्था रखना है। दूसरी ओर इस आयत में राष्ट्र की एकता को एकेश्वरवाद के साथ रखा गया है। एकता कोई उपदेश या प्रस्ताव नहीं है बल्कि यह एक दायित्व है अर्थात जिस प्रकार से मुसलमान इस बात के लिए कटिबद्ध है कि वे एकेश्वरवाद के आधार पर ही ईश्वर की उपासना करेंगे उसी प्रकार से उन्हें एकता बनाए रखने के लिए भी सदैव प्रयासरत रहना चाहिए।
दूसरी ओर पवित्र क़ुरआन भी, इस्लामी जगत में एकता के कारक के रूप में समस्त मुसलमानों को एकता स्थापित करने और मतभेद से बचने का निमंत्रण देता है। पवित्र क़ुरआन सूरए आले इमरान की आयत संख्या 103 में कहता है कि तुमसब ईश्वर की रस्सी को मज़बूती से पकड़ लो।
इस आधार पर इस्लामी राष्ट्रों के बीच एकता, क़ुरआनी आदेश है जबकि धर्म की दृष्टि से मतभेद, हानिकारक शैतानी कार्य है। सूरए अनफ़ाल की आयत संख्या 46 में ईश्वर, मतभेद के परिणामों की ओर संकेत करते हुए कहता है कि मतभेद न करो अन्यथा तुम कमज़ोर न हो जाओगे और तुम्हारी शक्ति तथा भव्यता नष्ट हो जाएगी।
पवित्र क़ुरआन एक मूल क़ानून के रूप में सूरए होजोरात की आयत संख्या 10 में मोमिनों को एक-दूसरे का भाई कहता है। इस महत्वपूर्ण इस्लामी नियम के आधार पर मुसलमानों को आपस में मिलजुलकर रहना चाहिए, उनका संबन्ध किसी भी जाति या क़बीले से क्यों न हो। इस आधार पर पवित्र क़ुरआन, जो सदैव ही मुसलमानों को एकता और एकजुटता का पाठ देता है, स्वयं इस्लामी एकता का सबसे बड़ा एवं महत्वपूर्ण केन्द्र है।
पैग़म्बरे इस्लाम का पवित्र अस्तित्व भी मुसलमानों के बीच एकता का केन्द्र हैं क्योंकि समस्त मुसलमान उनको अन्तिम ईश्वरीय दूत और इस्लामी आंदोलन की आधारशिला रखने वाला मानते हैं तथा उनका अनुसरण करते हैं। इस्लामी समाज में मुसलमानों को एकजुट रखने में पैग़म्बरे इस्लाम की महत्वपूर्ण भूमिका है।
पवित्र नगर मदीने में इस्लामी सरकार के गठन के पश्चात पैग़म्बरे इस्लाम का प्रथम कार्य, मुसलमानों के बीच एकता और एकजुटता उत्पन्न करना था। यही कारण है कि अपने सत्ताकाल के दौरान उन्होंने मुसलमानों को एकजुट रखने के बारे में अथक प्रयास किये। पैग़म्बरे इस्लाम ने कुरआनी और ईश्वरीय मानदंडों के आधार पर मुसलमानों को एकजुट किया। उन्होंने इस्लामी शिक्षाओं से लाभ उठाते हुए समस्त वैचारिक, समाजिक और एतिहासिक मतभेदों को दूर कर दिया। इस समय भी पैग़म्बरे इस्लाम, एकता और बंधुत्व के राजदूत के रूप में इस्लामी एकता का केन्द्र बन सकते हैं। इस बात के महत्व को इस घटना के परिदृश्य में देखा जा सकता है कि हालिया दिनों में पैग़म्बरे इस्लाम के अपमान और निरादर के कारण पूरी दुनिया के मुसलमान एकजुट हो गए थे।
पैग़म्बरे इस्लाम की महत्वपूर्ण सिफ़ारिशों में से एक, मुसलमानों की ओर से पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों का अनुसरण करना है। इस बात की ओर पवित्र क़ुरआन में भी संकेत किया गया है। पैग़म्बरे इस्लाम के हवाले से पवित्र क़ुरआन में कहा गया है कि मैं अपने समस्त प्रयासों का बदला अपने परिजनों के साथ प्रेम और उनके अनुसरण के रूप में चाहता हूं।
अपने परिजनों के बारे में एक स्थान पर पैग़म्बरे इस्लाम कहते हैं कि हे मेरे परिजनों तुम अल्लाह वाले हो और तुम्हारे ही कारण विभूतियां परिपूर्ण हुईं हैं, मतभेद दूर हुए और एकता उत्पन्न हुई। इस बात को पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि पैग़म्बरे इस्लाम ने समस्त मुसलमानों को पवित्र क़ुरआन के अनुसरण के पश्चात अपने परिजनों के अनुसरण का आदेश दिया और उन्हें एकता का कारक बताया है। शीया और सुन्नी मुसलमानों के विश्वसनीय स्रोतों में पैग़म्बरे इस्लाम का यह कथन मौजूद है कि अपने बाद मैं तुम्हारे बीच दो महत्वपूर्ण चीज़ें छोड़े जा रहा हूं, यदि तुमने उनको मज़बूती से पकड़े रखा तो कही पथभ्रष्ट नहीं होगे। एक ईश्वर की किताब और दूसरे मेरे परिजन। यह दोनों एक दूसरे से अलग नहीं होंगे। अब देखो कि तुम इन दोनों के बारे में मेरे अधिकार को किस प्रकार से रक्षा करते हो।
पैग़म्बरे इस्लाम के पश्चात मुसलमानों के बीच उनके पवित्र परिजनों को विशेष स्थान प्राप्त रहा है। उनके परिजनों की भांति किसी भी परिवार को इतना मान-सम्मान प्राप्त नहीं है क्योंकि वे पवित्र हैं और सम्मान योग्य। इस आधार पर मुसलमानों के बीच एकता स्थापित करने की एक भूमिका, पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों के महत्व पर ध्यान दिया जाना है। इस प्रकार से उनके परिजनों को इस्लामी एकता का केन्द्र बनाया जा सकता है। इस संदर्भ में इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैय्यद अली ख़ामेनेई कहते हैं कि महत्वपूर्ण यह है कि इस्लामी जगत, पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों के संदर्भ में दो बिंदुओं पर सहमत हो। इनमे से एक प्रेम है। यह मुसलमानों का एक भावनात्मक एवं आस्था संबन्धी विषय है और पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों से प्रेम करने का उन्हें आदेश दिया गया है। इसको सबने स्वीकार भी किया है। यह बिंदु, समस्त मुसलमानों का भावनात्मक बिंदु हो सकता है। दूसरा बिंदु धार्मिक शिक्षाओं का सीखना और ईश्वरीय नियमों को जानना है।
पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के जीवन का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि वे सदैव इस्लामी समाजों में एकता उत्पन्न करने के लिए प्रयासरत रहे हैं। उदाहरण स्वरूप पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के पश्चात हज़रत अली अलैहिस्सलाम के क्रियाकलाप यह दर्शाते हैं कि उनका मुख्य उद्देश्य, मुसलमानों की एकता को सुरक्षित रखना था। पैग़म्बरे इस्लाम के उत्तराधिकारी के बारे में होने वाले मतभेद के समय भी हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने बहुत अधिक धैर्य और शांति का प्रदर्शन किया ताकि इस्लामी समाज में कोई मतभेद पैदा न होने पाए।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि मेरी तुलना में कोई भी मुहम्मद की उम्मत को एकजुट रखने के लिए प्रयासरत नहीं रहा। अतः यह कहा जा सकता है कि इस्लामी एकता को बनाए रखने का एक मार्ग, पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों के प्रति प्रेम रखना है।
वर्तमान समय में मुसलमानों को एकजुट होने के लिए एकेश्वरवाद, पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के प्रति श्रद्धा रखनी चाहिए। इस संवेदनशील काल में धर्मगुरूओं और विद्वानों से यह आशा की जाती है कि वे इस्लामी शिक्षाओं के आधार पर मुसलमानों को एकजुट करें और उनका यह भी दायित्व बनता है कि इस्लामी राष्ट्र में पाए जाने वाले मतभेदों को अनदेखा करते हुए मुसलमानों को एकजुट होने का निमंत्रण दें। दूसरी ओर समस्त मुसलमानों का भी यह दायित्व बनता है कि वे अपनी समस्त क्षमताओं के साथ मुसलमानों को एकजुट करें और मतभेदों की ओर बिल्कुल कोई ध्यान न दें।
नई टिप्पणी जोड़ें