ईरान में शिया सुन्नी एकता सप्ताह

ईरान में शिया सुन्नी एकता सप्ताह

इस्लाम धर्म, एकता, समरस्ता और एकजुटता का धर्म है और इस्लामी गणतंत्र ईरान के संस्थापक स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी ने इन्हीं आधारों पर सदैव लोगों के मध्य एकता की रक्षा और उसके महत्त्व पर बल दिया है। इस्लामी गणतंत्र ईरान की क्रांति और इस्लामी व्यवस्था का आधार भी लोगों के मध्य एकता, भाईचारे और समरस्ता को दृष्टि में रखकर रखा गया है। इस्लामी गणतंत्र ईरान ने इन्हीं सिद्धांतों को अपनी विदेश नीति में शामिल किया है और इसी को आधार बनाकर धार्मिक आस्थाओं व विभिन्न दृष्टिकोणों से हटकर इस्लामी जगत से अपने संबंधों को विस्तृत करने को अपनी रणनीति बनाया है और इन्हीं सिद्धांत पर पूरी तरह कटिबद्ध है।

एकता के विभिन्न आयाम होते हैं जिसमें धर्मशास्त्र के विचारों से लेकर राजनैतिक दृष्टिकोण तक सम्मलित होते हैं। एकता का सार यह है कि समस्त लोग भिन्न दृष्टिकोणों के बावजूद एक मंच पर एकत्रित रहें जिसका इस्लाम सहित सभी धर्म अह्वान करते हैं। यहां पर जो वस्तु सबसे महत्त्वपूर्ण है वह यह है कि कुछ कट्टरपंथी धड़े विश्व साम्राज्यवादियों के अपरोक्ष षड्यंत्रों की भेंट चढ़कर लोगों के मध्य एकता में सबसे बड़ी रुकावट बने हुए हैं। इस्लाम धर्म ऐसे लोगों से विरक्तता की घोषणा करता है जो लोगों के मध्य मतभेद फैलाते हैं। हज़रत अली अलैहिस्सलाम का एक कथन यह है कि लोग दो प्रकार के होते हैं एक धर्म में तुम्हारे भाई अर्थात मुसलमान है, दूसरे रचना में तुम्हारी तरह अर्थात मनुष्य हैं। इस्लाम इस बात पर कदापि ध्यान नहीं देता कि अमुक व्यक्ति किस धर्म या किस पंथ का अनुयाई है या वह कौन सी आस्था का अनुसरण करता है बल्कि वह मुसलमानों और मनुष्यों के मध्य एकता और समरस्ता तथा आपसी मतभेदों को जड़ से उखाड़ फेंकने को आवश्यक समझता है। उसका यह मानना है कि जब मुसलमान एक होंगे तो उन्हें विश्व की कोई शक्ति हानि पहुंचाने का साहस नहीं कर सकती और इसी एकता और एकजुटता के कारण विश्व के समस्त लोग, शत्रुओं के मुक़ाबले में डटे रह सकते हैं।

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाह हिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनई ने ईदे मिलादुन्नबी के उपलक्ष्य में आयोजित एक समारोह में मुसलमानों के मध्य एकता का अह्वान करते हुए बल दिया कि आज इस्लामी जगत की सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकता और समस्त मुसलमानों की समस्याओं का वास्तविक उपचार, इस्लामी एकता व एकजुटता में है इसीलिए विश्व के समस्त मुसलमानों और बुद्धिजीवियों को एक ऐतिहासक मांग के रूप में इस्लामी एकता घोषणपत्र को तैयार करना चाहिए। वास्तविकता यह है कि साम्राज्यवादी शक्तियां इस्लामी समुदाय को कमज़ोर करने में तनिक संकोच भी नहीं करतीं और उनके यहां शीया मुसलमानों और सुन्नी समुदाय के मध्य तनिक भी अंतर नहीं है। इसीलिए यह शक्तियां जब मुसलमानों और लोगों के मध्य एकता की उठती हुई आवाज़ को देखती और सुनती हैं तो भयभीत हो जाती हैं और लोगों के मध्य मतभेद फैलाने के लिए नित नये प्रयास करने लगती हैं। इस्लामी समुदायों के मध्य एकता या वरिष्ठ नेता के अनुसार इस्लामी एकता के वर्णन का यह कदापि अर्थ नहीं है कि समस्त भौगोलिक सीमाओं को हटा लिया जाए बल्कि इसका अर्थ यह है कि इस्लामी जगत के हितों और संयुक्त विषयों के संबंध में मुसलमान आपस में मिल बैठकर परस्पर सहयोग, आपसी सूझबूझ द्वारा इस्लामी देशों की एकता को व्यवहारिक बनाएं।

इस्लामी जगत में जातीय, भाषाई, भौगोलिक तथा मत संबंधी विविधता बहुत अधिक है। एकता के साथ यह विविधता, इस्लाम के प्रभाव तथा उसके आध्यात्मिक स्थान की चिन्ह होने के साथ ही साथ इस्लामी राष्ट्र की नर्म शक्ति की भी प्रतीक है कि जो खतरों और षडयंत्रों के सामने मुसलमानों को एकजुट कर सकती है। इस लिए इस्लामी जगत के सामने सब से बड़ी चुनौती, उन घटनाओं और प्रक्रियाओं को समझना चाहिए जो मुसलमानों के मध्य फूट का कारण हों और जिन्हें हो सकता है विदित रूप से एक साथ पहचानना संभव भी न हो किंतु इस प्रकार की घटनाओं के प्रभाव अत्याधिक घातक और गहरे होते हैं क्योंकि फूट डालने वाली शक्तियां इस प्रकार की कार्यवाहियों द्वारा इस्लाम के आधारों में फूट की एसी दरार पैदा कर देती हैं जिनकी हानि इस्लाम के शत्रुओं से मुठभेड़ और टकराव से कहीं अधिक होती है। इसी लिए मुसलमानों के मध्य एकता की विचारधारा के प्रचार व प्रसार के समय में साम्राज्यवादी व वर्चस्ववादी शक्तियां इस्लामी राष्ट्रों में फूट व वैमनस्य उत्पन्न करने के लिए, तुर्कवाद, अरबवाद आदि जैसे निराधार विषयों को उठा कर और वहाबियत जैसे भ्रष्ट मतों को जनम देकर इस्लामी समाज की एकता को नुकसान पहुंचाने का प्रयास करती हैं। इस प्रकार की विनाशकारी शक्तियां, इस्लाम के विभिन्न मतों के मध्य मौजूद कुछ वैचारिक व साधारण से अंतरों व मतभेदों को बढ़ा चढ़ा कर पेश करती और उनकी सहायता से इस्लाम पर ही प्रश्न चिन्ह लगाती हैं।

वास्तव में जो लोग मुसलमानों के मध्य फूट डालने के लिए प्रयास करते हैं  वह इस्लामी जगत के अपार प्राकृतिक भंडारों व संसाधनों को लूटने के लिए लिए मार्ग प्रशस्त करने का इरादा रखते हैं क्योंकि उन्हें भली भांति ज्ञात है कि उनके इस अवैध उद्देश्य की पूर्ति मुसलमानों में फूट, टकराव और दूरी पर निर्भर है। इस्लामी राष्ट्रों में फूट डालने की रणनीति अब केवल आर्थिक उद्देश्यों और इस्लामी देशों की स्वाधीनता को रोकने के लिए ही नहीं अपनायी जा रही है बल्कि इस लक्ष्य की दिशा में काम करने वाली शक्तियां अब एसे  राजनीतिक संगठन व गुटों का भी गठन कर रही हैं जो विदित रूप से क्षेत्रीय स्तर पर इस्लामवाद का प्रचार करते हैं और इस्लामी शिक्षाओं से प्रतिबद्धता का स्वांग रचते हैं किंतु अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विश्व साम्राज्य के ही उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं। यह राजनीतिक धड़े धार्मिक फूट डाल कर ,अन्य इस्लामी मतों को धर्म भ्रष्ट बता कर तथा इस्लामी होने का दावा करने वाली तानाशाही सरकारों का समर्थन करके अपने उद्देश्यों की पूर्ति का प्रयास करते हैं।

इस्लाम के नाम पर अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान जैसे चरमपंथी गुटों का गठन तथा इस्लाम के ही नाम पर अलक़ाएदा जैसे आतंकवादी संगठनों का सिर उठाना वास्तव में इस्लाम के एकता व न्याय पर आधारित संदेश के प्रसार को रोकने के लिए पश्चिम के षडयंत्रों का ही परिणाम है और इससे पश्चिम के प्रकट व निहित उद्देश्यों का भी पता चलता है। इस्लामवाद तथा इस्लामी शिक्षाओं के पालन का दावा करने वाले यह चरमपंथी संगठन वास्तव में विश्व साम्राज्य के उद्देश्यों की पूर्ति की ही राह में सक्रिय हैं। इस संदर्भ में क्षेत्र की निम्न स्तरीय विचारधारा रखने वाली और तानाशाही सरकारें भी, जो साम्राज्यवादी शक्तियों के व्यापक समर्थन पर टिकी हुई हैं, न केवल यह कि इस्लामी संप्रदायों और सुन्नी मुसलमानों के हित की रक्षा की दिशा में कोई क़दम नहीं उठातीं बल्कि हिंसा, षडयंत्र और फासीवादी व्यवहार  के कारण मुसलमानों के मध्य मतभेद और दूरी का भी कारण बनती हैं।

इस पूरी प्रक्रिया में अमरीका और ब्रिटेन तथा पश्चिमी साम्राज्यवादी शक्तियां, जिनकी ओर से इस्लामोफ़ोबिया द्वारा किये जाने वाले षडयंत्रों से सभी परिचित हैं, इस्लामी एकता के विरुद्ध पूर्ण रूप से सक्रिय हैं जिसके उदाहरण अफ़ग़ानिस्तान इराक, मध्य पूर्व तथा अन्य इस्लमी देशों में एक एक करके सामने आते जा रहे हैं। इस्लामी आधारों के लिए घातक इन ख़तरों से मुकाबले के लिए चेतनापूर्ण प्रयासों की आवश्यकता है ताकि इस्लामी एकता को बचाया जा सके। यह वही मार्ग है जिसे इस्लामी गणतंत्र ईरान के संस्थापक इमाम खुमैनी ने इस्लामी प्रतिष्ठा व विचार धारा के आधार पर प्रशस्त किया है।

यह तो निश्चित है कि इस्लामी जगत में विभिन्न मत, अलग अलग पंरपराएं व मान्यताएं, विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न भिन्न राजनीतिक रूझानों वाली सरकारें तथा इस्लामी शिक्षाओं की अलग अलग समझ ऐसी वास्तविकताएं हैं जिनका इन्कार नहीं किया जा सकता किंतु मुसलमानों के मध्य समानताएं भी बहुत अधिक हैं जिनको आधार बना कर इस्लामी एकता को व्यवहारिक बनाने का प्रयास किया जा सकता है। वास्तविकता यह है कि यदि विभिन्न इस्लामी मत, विभिन्न क्षेत्रों में इसलामी नियमों को समझने में अलग अलग विचार रखते हैं तो इस्लाम की मूल विचारधारा और सिद्धान्तों में एकमत हैं।

इस्लाम के आंचल में हज जैसे महा संस्कार हैं जो इस्लामी एकता का ध्रुव है। इस आधार पर इस्लमी मतों के मध्य समरसता व एकजुटता के लिए वातावरण बनाने के लिए शीआ व सुन्नी मुसलमानों को एक दूसरे को अच्छी तरह से पहचानना होगा ताकि वैचारिक मतभेदों के बावजूद एक दूसरे के प्रति सहनशीलता में वृद्धि हो और राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बाहरी तत्वों की ओर से जारी, भड़काऊ कार्यवाहियों से दूर रहते हुए एकता को एक मूल आवश्यता के रूप में महत्व दिया जाना संभव हो सके।

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