आज़ादी इस्लाम और पश्चिम की निगाह में

आज़ादी इस्लाम और पश्चिम की निगाह में

आज़ादी या स्वतंत्रता वह चीज़ है जिसे सब पसंद करते हैं और इसे मानवीय मूल्यों का मूल तत्व कहा गया है।  स्वतंत्रता की विभूति से विचार विकसित होते हैं और क्षमताएं फलती-फूलती हैं।  यही कारण है कि बहुत से विद्वानों ने इस संबन्ध में अपने विचार व्यक्त किये हैं तथा विभिन्न विचारधाराओं में इस संबन्ध में कुछ न कुछ कहा गया है।  वर्तमान समय में पश्चिमी सरकारें, स्वतंत्रता की रक्षा की दावेदार बनी हुई हैं।  पश्चिमी सरकारों के राजनेता और पश्चिमी देशों के विचारकों का मानना है कि व्यक्तिगत और समाजिक स्वतंत्रता को सर्वप्रथम योरोप में प्रस्तुत किया गया जबकि यह एक भ्रांति मात्र है क्योंकि शताब्दियों पूर्व इसका उल्लेख इस्लाम कर चुका है।  आसमानी धर्मों ने जिस स्वतंत्रता का उल्लेख किया है उसकी तुलना में 18वीं शताब्दी के अंत में फ़्रांस में आने वाली क्रांति के पश्चात पश्चिम में प्रस्तुत किया जाने वाला स्वतंत्रता का विचार बहुत ही सीमित है।

मनुष्यों के लिए आसमानी धर्मों की ओर से स्वतंत्रता की मांग, वह पहली मांग थी जिसे ईश्वरीय दूतों ने प्रस्तुत किया और वे इसे मानव जाति के लिए लाए।  वास्तव में समस्त ईश्वरीय दूतों का प्रथम संदेश यह था कि ईश्वर की उपासना की जाए और अनेकेश्वरवाद की उपासना से बचा जाए जो लोगों को अपना दास बनाना चाहते हैं।  आसमानी धर्मों की शिक्षाओं में कहा गया है कि एकेश्वरवाद की उपासना के अतिरिक्त अन्य की उपासना से बचा जाए।  सूरए नहल की आयत संख्या 36 में ईश्वर कहता है कि हमने हर जाति के लिए दूत भेजा ताकि वह कहे कि एकेश्वर की उपासना करो और अनेकेश्वरवाद से बचो।  इस आधार पर कहा जा सकता है कि इस्लामी संस्कृति में प्रस्तुत की जाने वाली स्वतंत्रता, एकेश्वरवादी विचारधारा पर आधारित है।  यही कारण है कि ईश्वरीय दूतों के निमंत्रण में ईश्वर की उपासना की बात कही गई है।  एकेश्वरवाद की वास्तविकता यह है कि एकेश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य की उपासना न की जाए अर्थात किसी व्यक्ति, व्यवस्था या अन्य किसी की उपासना न की जाए।  अब चाहे वह मनुष्य की आंतरिक इच्छाए हों या समाज में प्रचलित अनुचित परंपराएं।

सूरए आले इमरान की आयत संख्या 64 में ईश्वर, आसमानी धर्मों के अनुयाइयों को संबोधित करते हुए कहता हैः (हे पैग़म्बर!) कह दो कि हे (आसमानी) किताब वालो! उस बात की ओर आओ जो हमारे और तुम्हारे बीच समान रूप से मान्य है। यह कि हम ईश्वर के अतिरिक्त किसी और की उपासना न करें और किसी को उसका समकक्ष न ठहराएं और हममें से कुछ, कुछ दूसरों को ईश्वर के स्थान पर पालनहार न मानें। यह वह वास्तविकता है जो यहूदी, ईसाई और अन्य आसमानी धर्मों में पाई जाती है और इस्लाम भी, जो एकेश्वरवाद का ध्वजवाहक है, बल देता है कि स्वतंत्र व्यक्ति को ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य का दास नहीं होना चाहिए।  दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि मनुष्य को अपनी आंतरिक इच्छाओं, समाज में प्रचलित अनुचित परंपराओं, धन, पद या अन्य किसी चीज़ के पीछे नहीं भागना चाहिए और इनमें से किसी को भी ईश्वर की उपासना का समकक्ष नहीं बनाना चाहिए।  इस आयत में ईश्वर, एकेश्वरवाद के विषय पर अधिक बल देता है अतः ईश्वरीय धर्म का पालन करने वालों को ईश्वर के अतरिक्त किसी भी अन्य को अपना स्वामी नहीं बनाना चाहिए बल्कि केवल एक ईश्वर की ही उपासना करनी चाहिए।  यह इस्लाम का वैश्विक नारा है।

इस्लाम में स्वतंत्रता के अर्थ को सूरेए आराफ़ की आयत संख्या 157 में इस प्रकार से बयान किया गया है कि पैग़म्बर, उनपर से (कड़े आदेशों के) बोझ और फंदे को हटा देते हैं।  वे मनुष्य के पैरों में पड़ी उन बेड़ियों को खोल देते हैं जो उनके विकास एवं परिपूर्णता के मार्ग की बाधा बनी हुई हैं।

इस्लाम प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्र मानता है।  यह वाक्य कि “प्रत्येक व्यक्ति इस संसार में स्वतंत्र आया है” इस समय बहुत प्रचलित है।  फ़्रांस की क्रांति से संबन्धित स्रोतों और प्रमाणों में भी यह वाक्य मौजूद है।  यह बात या वाक्य, जो वर्तमान समय में पूरे विश्व में प्रचलित है, और जिसे फ़्रांस की क्रांति की उत्पत्ति के रूप में देखा जाता है, उसे शताब्दियों पूर्व हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने कहा था।  उन्होंने अपने सुपुत्र इमाम हसन को संबोधित करते हुए कहा था कि किसी अन्य के दास न बनो क्योंकि ईश्वर ने तुमको स्वतंत्र पैदा किया है।

अब जबकि हमने स्वतंत्रता के महत्व को आसमानी धर्मों के एक मूल सिद्धांत के रूप मे पहचान लिया है, उचित यह होगा कि आसमानी धर्मों में बताई जाने वाली स्वतंत्रता और पश्चिम के दृष्टिगत स्वंतत्रता के बारे में चर्चा करें।  पश्चिम के दृष्टिगत और इस्लाम के दृष्टिगत स्वतंत्रता में बहुत भिन्नता पाई जाती है।  पश्चिम में पाई जाने वाली स्वतंत्रता, सामान्यतः आंतरिक इच्छाओं से संबन्धित है।  पश्चिमी स्वतंत्रता का आधार Humanism या मानववाद है।  इस विचारधारा में मनुष्य को स्वतंत्र रहना चाहिए और वह जो चाहे उसे करे।  हालांकि विदित रूप से तो कोई भी संपूर्ण स्वतंत्रता का समर्थन नहीं करता और इस प्रकार की स्वतंत्रता लागू होने वाली चीज़ भी नहीं है।  यदि हम किसी समाज में यह मान कर चलें कि कोई व्यक्ति स्वतंत्र है और वह जो भी चाहे कर सकता है और उसके मार्ग में कोई बाधा न हो तो इस प्रकार की स्वतंत्रता, अन्य लोगों की स्वतंत्रता को सीमित करेगी।  इस प्रकार अन्य लोगों की शांति एवं सुरक्षा ख़तरे में पड़ जाएगी।  यहां तक कि योरोप में 19वीं और 20वीं शताब्दी के दौरान जो अराजकता फैली, और उस दौरान स्वतंत्रता के बारे में जो नारे लगाए जाते थे उनके भीतर स्वतंत्रता की कुछ सीमाओं को स्वीकार किया गया था और उनको व्यवहारिक भी बनाया जाता था।  समाजशास्त्रियों और स्वतंत्रता के बारे में विचार प्रस्तुत करने वालों के बीच इस विषय को लेकर गहरे मतभेद पाए जाते हैं कि स्वतंत्रता की सीमा क्या है?

पश्चिमी विचारकों और दर्शनशास्त्रियों ने स्वतंत्रता के बारे में अपने दृष्टिकोण व्यक्त किये और इस बारे में जो पुस्तकें लिखीं उन्हीं बातों को मानवाधिकारों के वैश्विक घोषणापत्र में दर्ज किया गया और वर्तमान समय में उसे एक वैश्विक प्रमाण माना जाता है।  उन्होंने इस संदर्भ में स्वतंत्रता की सीमाओं का उल्लेख किया है।  उदाहरण स्वरूप स्वतंत्रता की सीमा क़ानून है।  यदि कोई स्वतंत्र रहना चाहता है तो उसे क़ानून के परिप्रेक्ष्य में स्वतंत्र रहना चाहिए।  या फिर स्वतंत्रता की सीमा इस हद तक है कि दूसरों की स्वतंत्रता को क्षति न पहुंचे।  किंतु इस्लाम कुछ क्षेत्रों में स्वतंत्रता की परिधि को बहुत सीमित करता है जबकि कुछ स्थानों पर उसे विस्तृत करता है।

यद्यपि पश्चिम में यह कहा जाता है कि स्वतंत्रता क़ानून के साथ सीमित होती है किंतु स्वयं वह क़ानून, आकांक्षाओं और आंतरिक इच्छाओं की देन है।  इसका कारण यह है कि पश्चिमी लोकतंत्र में क़ानून को जनमत प्राप्त प्रतिनिधि ही पारित करते हैं।  वे उनके व्यक्तिगत और गुटीय हितों के पूर्तिकर्ता होते हैं और यह सोचते हैं कि यह क़ानून अच्छा और उचित है।  क़ानून के अच्छे होने का उनका तर्क, मानवीय मूल्यों के अनुरूप नहीं है।  पश्चिम में समाज के अधिकांश लोगों की इच्छाएं क़ानून और व्यवस्था को अस्तित्व प्रदान करती हैं और यह क़ानून और व्यवस्था, आम स्वतंत्रता को अपने परिप्रेक्ष्य में सीमित करती है।

हालांकि यहां पर यह बात उल्लेखनीय है कि यह विषय उसका बाहरी रूप है।  यदि कोई पश्चिमी जगत के दैनिक कार्यों और उनकी समस्याओं में सोच-विचार करे तो वह इस बात को स्पष्ट रूप से समझ जाएगा कि पश्चिमी स्वतंत्रता की जड़, इस समाज के धनवान एवं प्रभावशाली लोगों की इच्छाओं पर आधारित है अतः वहां पर जो कुछ जनता की इच्छा के रूप में प्रस्तुत किया जाता है वह वास्तव में उनकी वास्तविक आवश्यकताए हैं।

इस्लाम में स्वतंत्रता की जड़, एकेश्वरवादी विचारधारा पर आधारित है।  इस्लामी स्वतंत्रता का मूल सार, केवल ईशवर की उपासना है।  इस्लाम, मनुष्यों के लिए विशेष महत्व में विश्वास रखता है और उसे वह ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य का दास नहीं मानता।  इस्लाम में स्वतंत्रता का अर्थ है अनेकेश्वरवाद से दूरी।

इस्लाम में स्वतंत्रता एसा उपहार है कि जिससे मनुष्य अपने कल्याण का मार्ग चुनता है।  इस्लाम स्वतंत्रता का ध्वजवाहक है जिसने लोगों को अपने मोक्ष एवं कल्याण के मार्ग को चुनने के लिए स्वतंत्र छोड़ा है।

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