इमाम हुसैन (अ) के कथन भाग 4
इमाम हुसैन (अ) के कथन भाग 4
31- قال الحسین علیه السلام:
ویلَکُم يا شيعَةَ آلِ أَبی سُفْيانَ إِنْ لَمْ يَكُنْ لَكُمْ دينٌ وَ كُنْتُمْ لا تَخافُونَ الْمَعادَ، فَكُونُوا أَحْرارًا فی دُنْياكُم وَ ارْجِعُوا إِلی أَحْسابِكُمْ إِنْ كُنْتُم عَرَبًا كَما تَزْعَمُونَ»؛
31 (जब कूफ़ें की सेना आपके और अहले हरम के ख़ैमों के बीच आ गई और दोनों को एक दूसरे से दूर कर दिया) तो आपने उनको पूकार कर कहाः वाय हो तुम पर हे अबू सुफ़यान के ख़ानदान का अनुसरण करने वालों, अगर तुम में दीन नहीं हैं और क़यामत से नहीं डरते हो तो (कम से कम) अपनी दुनिया में आज़ाद मर्दों जैसा बर्ताव करो और अगर तुम समझते हो कि तुम अरब नस्ल से हो तो अपनी नस्ल की शैली की तरफ़ पलट जाओं (और इस प्रकार के बेहूदा और निंदनीय कार्य न करो)
32- قال الحسین علیه السلام:
«اَلا اِنَّ الدَّعِیَّ بنَ الدَّعِیَّ قَدْ رکَزَ بَیْنَ اثنَتَینِ بَیْنَ السِّلَةِ و الذّلّةِ وَ هَیهاتَ مِنّا الذّلَّةُ یأبَی اللّهُ ذلک لنا و رسولُهُ و المؤمنونَ و حجورٌ طابتْ و طَهُرَتْ و اُنُوفٌ حَمِیَّةٌ و نُفُوسٌ اَبیةٌ مِنْ اَنْ توثر طاعة اللئام علی مصارعِ الکرام؛
32. (इमाम ने उबैदुल्लाह बिन ज़ियाद के साथियों को आशूरा के दिन सम्बोधित करते हुए फ़रमाया) जान लो कि यह ज़िनाज़ादा, ज़िनाज़ादा के बेटे (उबैदुल्लाह बिन ज़ियाद) ने मुझे दो चीज़ों के बीच चुनाव करने को कहा है, या तलवार से जंग करूँ और शहीद हो जाऊँ या ज़लील हो जाऊँ, हरगिज़ मैं ज़िल्लत और अपमान को स्वीकार नहीं करूँगा।
ख़ुदा और उसके नबी और मोमिनों और वह पवित्र दामन जिसने हमको पाला है , और ग़ैरतमंद सर और साबित इज़्ज़त कभी भी अपमान स्वीकार नहीं करते हैं (और यह सब) हमको यह इजाज़त नहीं देते हैं कि हम ज़लीलों के अनुसरण को इज़्ज़त के साथ मर जाने पर प्राथमिक्ता दें।
33- قال الحسین علیه السلام:
لا واللّه لا اُعطیکم بیدی إعطاء الذلیل و لا أفرُّ فرار العبید، ثمَّ نادی:
یا عباد الله إنّی عذتُ بربّی و ربّکم أن ترجمون، أعوذ بربّی و ربّکم من کلّ متکبّر لا یؤمن بیوم الحساب.
33. (क़ैस बिन अशअस ने इमाम हुसैन से कहा कि उबैदुल्लाह की बात मान लें) आपने फ़रमायाः ख़ुदा की क़सम ज़लीलों की भाति ज़िल्लत भरा हाथ तुमको नहीं दूँगा, और दासों एवं ग़ुलामों की भाति भागूँगा नहीं।
फिर आपने फ़रमायाः हे ख़ुदा के बंदों, मैं अपने और तुम्हारे परवरदिगार की पनाह मांगता हूँ, इससे कि तुम मुझ पर पत्थर बरसाओ, और मुझे यातनाएं दो और मेरी बातों पर ध्यान न दो।
मैं पनाह मांगता हूँ अपने और तुम्हारे ख़ुदा से हर उस घमंडी और सरकश से कि जो क़यामत और हिसाब के दिन पर ईमान न रखे।
34- قال الحسین علیه السلام:
إنّ مجاری الأمور و الأحکام، علی أیدی العلماء بالله، العلماء علی حلاله و حرامه ...»؛
34. कार्यों और एहकाम के जारी होने का स्थान ख़ुदाई आलिमों के हाथ में है जो हलाल और हराम पर ख़ुदा के अमानतदार हैं।
35- أقبَلَ علی الولید فقال علیه السلام:
أَیُّهَا الْأَمِیرُ إِنَّا أَهْلُ بَیْتِ النُّبُوَّةِ وَ مَعْدِنُ الرِّسَالَةِ وَ مُخْتَلَفُ الْمَلَائِکَةِ وَ بِنَا فَتَحَ اللَّهُ وَ بِنَا خَتَمَ اللَّهُ وَ یَزِیدُ رَجُلٌ فَاسِقٌ شَارِبُ الْخَمْرِ قَاتِلُ النَّفْسِ الْمُحَرَّمَةِ مُعْلِنٌ بِالْفِسْقِ وَ مِثْلِی لَا یُبَایِعُ مِثْلَهُ وَ لَکِنْ نُصْبِحُ وَ تُصْبِحُونَ وَ نَنْظُرُ وَ تَنْظُرُونَ أَیُّنَا أَحَقُّ بالْخِلَافَةِ وَ ِالْبَیْعَةِ؛
35. (जब यज़ीद ने मदीने के गवर्नर वलीद बिन अतबा को पत्र लिखा कि हुसैन से उसके लिए बैअत ले लो, हुसैन उसके पास आए और कुछ बात करने के बाद) वलीद की तरफ़ देखा और फ़रमायाः हे अमीर हम ख़ानदाने नबूवत और रिसालत की कान हैं, यह हमारा ख़ानदान है जो फ़रिश्तों के आने जाने का स्थान है, ख़ुदा ने स्रष्टि को हम से आरम्भ किया है (और इस्लाम हमारे ख़ानदान से आरम्भ हुआ है) और कमाल हम पर समाप्त होता है।
और यज़ीद पापी है, शराब पीने वाला, नफ़्से मोहतरम (वह लोग जिनको क़त्ल करने से ख़ुदा ने मना किया है) का क़ातिल है, खुलम ख़ुल्ला और सबके सामने पाप और गुनाह करने वाला है, और मेरे जैसा व्यक्ति उसके (यज़ीज) जैसे इन्सान की बैअत नहीं करता है, लेकिन हम भी सुबह करेंगे और तुम भी सुबह करोगे (यानी सुबह होगी) हम इस बारे में सोचेंगे और तुम भी सोचना कि हम में से कौन ख़िलाफ़त और बैअत का अधिक हक़दार है?
36- قال الحسین علیه السلام:
إنّا لله و إنّا إلیه راجعون و علی الإسلام السلام إذ قد بلیت الأمة براع مثل یزید و لقد سمعت جدّی رسول الله(صلی الله علیه و آله و سلّم) یقول: الخلافة محرمة علی آل ابی سفیان.
36. (मरवान बिन हकम की मदीन की किसी गली में इमाम हुसैन (अ) से मुलाक़ात हुई तो उसने कहाः हे अबा अब्दिल्लाह मैं आपका शुभ चितंक हूँ मेरी बात को मान लीजिए और यज़ीद की बैअत कर लीजिए यह आपके दीन और दुनिया दोनों के लिए लाभदायक है) इमाम हुसैन (अ) ने (उसके उत्तर में) फ़रमायाः إنّا لله و إنّا إلیه راجعون इस्लाम पर सलाम हो कि जब यज़ीद जैसा हाकिम बन जाए (यानी इस दिन से बड़ी मुसीबत और क्या हो सकती है मुसलमानों पर कि यज़ीद जैसा इन्सान उनका राजा बन बैठा है अब तो इस्लाम पर फ़ातेहा पढ़ देना चाहिए और उसको ख़ुदा हाफ़िज़ कह देना चाहिए)
हां मैंने अपने नाना रसूले ख़ुदा (स) से सुना था कि आप फ़रमाते थेः ख़िलाफ़त अबू सुफ़ियान के ख़ानदान वालों और उसके बेटों पर हराम है।
37- قال الحسین علیه السلام لعبدالله بن عمر:
یا أبا عبدالرحمن أما علمتَ أنَّ مِن هوانِ الدنیا علي اللّه, أنّ رأس يحيي بن زكريا أهدِيَ إلَي بَغِيٍّ مِن بغايا بني إسرائيل؟
أما تعلم أنَّ بنی إسرائیل کانوا یقتلون ما بین طلوع الفجر إلی طلوع الشمس سبعین نبیاً، ثم یجلسون فی أسواقهم یبیعون و یشترون کان لم یصنعوا شیئاً، فلم یُعَجِّل الله علیهم بل أمهَلَهُم و أخذهم بعد ذلک أخذ عزیز ذی انتقام. اتَّقِ اللّه يا أبا عبدالرحمن ولا تدعنَّ نُصرَتي؛
37. (अब्दुल्लाह बिन उमर मक्के में इमाम हुसैन (अ) के पास आया और आपसे कहने लगा कि यज़ीद और पथभ्रष्ट लोगों के साथ मेल कर लें और उसने आपको ख़ून बहने से डराया) इमाम ने उसके उत्तर में फ़रमायाः
हे अबा अब्दिल्लाह (यह अब्दुल्लाह बिन उमर की कुन्नियत है) क्या तुमको पता नहीं है और तुमको मालूम नहीं है कि यह दुनिया ख़ुदा की निगाह में इतनी ज़लील है कि (महान नबी) यहया बिन ज़करिया (अ) का कटा हुआ सर उपहार के तौर पर बनी इस्राईल के ज़िनाज़ादों में से एक ज़िनाज़ादे के पास भेजा गया?
क्या तुम्हें पता नहीं है कि बनी इस्राईल (एक छोटी सी अवधि में) सुबह से सूरज के निकलने तक सत्तर नबियों को क़त्ल कर देते थे और उसके बाद बाज़ारों में जाकर ख़रीदने और बेचने में लग जाया करते थे? यानी ऐसा लगता था कि जैसे कुछ किया ही न हो, उसके बावजूद ख़ुदा ने उनपर अज़ाब करने में जल्दी नहीं की, बल्कि उनको मोहलत दी, लेकिन कुछ समय के बाद वह अपने कार्यों के अंजाम और अज़ाब तक पहुँच गए और शक्तिशाली ख़ुदा के इन्तेक़ाम ने भयानक सूरत में उनको घेर लिया।
हे अबा अब्दुर्रहमान ख़ुदा से डर और मेरी सहायता (का दिखावा) न कर।
38- قال الحسین علیه السلام لأصحابه:
صبراً بني الكرام فما الموت إلاّ قنطرة تَعبُرُ بكم من البُؤس و الضَّرّاء إلي الجنان الواسعة والنعيم الدائمة فأيّكُم يكره أن ينتقل من سجن إلي قصر و ما هو لأعدائكم إلاّ كمن ينتقل من قصر إلي سجن و عذاب؛ إنّ أبي حدّثَني عن رسول الله(صلّی الله علیه و آله و سلّم) إنّ الدنيا سجن المؤمن و جنة الكافر و الموت جسر هؤلاء إلي جنانهم و جسر هؤلاء إلي جحيمهم؛ ما کُذِبتُ و لا کَذِبتُ؛
38. इमाम हुसैन (अ) ने आशूरा के दिन अपने साथियों को सम्बोधित कर के फ़रमायाः हे सम्मानित साथियों सब्र और धैर्य रखो कि मौत एक पुल के अतिरिक्त और कुछ नहीं है, जो तुम को परेशानियों और मुसीबतों से नजात दे कर तुम को महान जन्नत और सदैव बाक़ी रहने वाली नेमतों तक पहुँचा देगी, तो तुम में से कौन है जो एक जेल से महल की तरफ़ नहीं जाना चाहेगा (लेकिन) यह तुम्हारे शत्रुओं के लिए नहीं है (बल्कि तुम्हारे शत्रुओं के लिए मौत) उसके जैसी है जो महल से जेल की तरफ़ जा रहा हो, जान लो कि मेरे पिता ने रसूले इस्लाम (स) से मेरे लिए रिवायत की है कि आपने फ़रमायाः दुनिया मोमिन के लिए जेल की तरह है और काफ़िर के लिए जन्नत, लेकिन एक पुल है जो इन मोमिनों को जन्नत और काफ़िरों को नर्क तक पहुँचाता है, न मैंने झूठ सुना है और न ही बोला है।
39- فلَمّا نزلوا ثعلبیّة وَرَدَ علیه رجلٌ یُقال له بشر بن غالب فقال:
یابن رسول الله، أخبرنی عن قول الله عزّوجلّ: «یوم ندعوا کلّ أناس بإمامهم».
قال علیه السلام: إمامٌ دعا إلی هُدًی فأجابوه إلیه، وإمام دعا الی ضلالة فأجابوه إلیها، هؤلاء فی الجنة وهؤلاء فی النار و هو قوله عزوجل: (فریق فی الجنة وفریق فی السعیر).
39. कर्बला के रास्ते में जब इमाम हुसैन (अ) का क़ाफ़ेला सालबिया पर पहुँचा तो बिश्र बिन ग़ालिब नामक एक व्यक्ति इमाम के पास पहुँचा और कहने लगा कि हे नबी के बेटे मुझे इस आयत के बारे में बताएं कि जिसमें ख़ुदा फ़रमाता हैः हम क़यामत के दिन हर क़ौम और हर इन्सान को उसके इमाम के साथ बुलाएंगे (सूरा असर आयत 71)
इमाम ने फ़रमायाः (इसका तात्पर्य यह है कि) एक इमाम जो लोगों को हिदायत और सच्चाई का निमंत्रण देता है तो कुछ लोग उसका उत्तर देते हैं और उनके निमंत्रण को स्वीकार करते हैं, और एक दूसरा इमाम जो लोगों को गुमराही का निमंत्रण देता है तो कुछ लोग उसका निमंत्रण स्वीकार करते हैं, तो वह (पहला गुट) जन्नत में जाएंगे और यह नर्क में, फिर इमाम ने दूसरी आयत की भी इस प्रकार तफ़्सीर की और फ़रमायाः यही मतलब है ख़ुदा के इस कथन का कि वह फ़रमाता हैः एक गुट जन्नत में और एक नर्क में है। (सूरा शूरा आयत 7)
40- قال الحسین علیه السلام:
و إن تكن الدنیا تُعَدُّ نفیسةً
فدار ثواب الله أعلی و أنبل
و إن تكن الأبدان للموت أنشئت
فقتل امرئ بالسیف فی الله أفضل
و إن تكن الأرزاق قسماً مقدراً
فقلة حرص المرء فی الرزق أجمل
و إن تكن الأموال للترك جمعها
فما بال متروك به المَرء یبخل
40. (कर्बला के रास्ते में इमाम हुसैन इमाम से कहा गयाः हे पैग़म्बर के बेटे कहां जा रहे हैं- जब्कि कूफ़े के लोगों ने आपके भाई मुस्लिम को शहीद कर दिया है- आपने फ़रमायाः मुस्लिम ख़ुदा की जन्नत और रौह की तरफ़ चले गए, फिर आपने यह शेर पढ़े)
अगरचे इस दुनिया का जीवन कुछ लोगों की निगाह में क़ीमती है, लेकिन ख़ुदाई दुनिया (आख़ेरत) का सवाब बड़ा और अधिक क़ीमती है।
अगर यह शरीर मरने के लिए पैदा किए गए हैं, तो इन्सान का शत्रु की तलवार से क़त्ल होना ख़ुदा की क़सम अधिक बेहतर और श्रेष्ठ है।
और अगर रोज़ी निश्चित और बांटी जा चुकी है तो व्यापार में आदमी का कम लालच करना अच्छा है।
और अगर दुनिया के माल का एकत्र करना इसलिए है कि इन्सान उसको (दुनिया में ही) छोड़ दे और चला जाए, तो इन्सान को ऐसी दौलत के लिए कंजूसी नहीं करनी चाहिए।
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