ईश्वर, इन्सान और शैतान

ईश्वर, इन्सान और शैतान

इमाम हसन अलैहिस्सलाम का एक हंसमुख दोस्त था, वह कुछ दिन ग़ायब रहने के बाद इमाम के पास आया, आपने उसका हालचाल पूछा कि कैसी बीत रही है?

उसने कहाः हे रसूल के बेटे मैं अपने दिन ख़ुद अपनी इच्छा और जो मेरा ख़ुदा चाहता है उसके विरुद्ध और जो शैतान चाहता है उसके ख़िलाफ़ बिता रहा हूँ।

इमाम (अ) हंस पड़े और फ़रमायाः वह कैसे?

उसने कहाः ख़ुदा चाहता है कि मैं उसके आदेशों का पालन करूँ और उसकी अवहेलना न करूँ, लेकिन मैं ऐसा नहीं करता।

शैतान चाहता है कि मैं पाप करता रहूँ और ईश्वर के आदेशों पर तवज्जोह न दूँ, लेकिन मैं ऐसा नहीं करता (बल्कि कभी ख़ुदा के आदेशों का पालन करता हूँ और कभी नहीं करता, कभी शैतान की बात मानता हूँ और कभी नहीं मानता)

मैं दिल से चाहता हूँ कि कभी न मरूँ लेकिन ऐसा नहीं है क्योंकि अंत में मौत आनी है।

उस समय आपका एक चाहने वाला उठा और कहने लगाः हे रसूल के बेटे हम मौत से क्यों डरते हैं और उससे क्यों दूर भागते हैं?

इमाम ने फ़रमायाः क्योंकि तुमने शैतानी शंकाओं का अनुसरण करते हुए अपनी आख़ेरत बरबाद कर दी है और अपनी दुनिया आबाद कर ली है इसलिए तुम आबादी से वीराने की तरफ़ जाने के लिए तैयार नहीं होते हो।

(मआनीयु अख़बार बाबे नवादिर पेज 389 हदीस 29 इबसील नामा से लिया गया पेज 138)

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