दुआ और उसकी शर्तें

दुआ और उसकी शर्तें

अगर  आज हम अपनी दुनिया और आस पास के वातावरण में देखें तो हर इन्सान को कुछ न कुछ आवश्यकता होती है कुछ ज़रूरत होती है कभी किसी मुश्किल में घिरा होता है तो कभी परिवार की परेशानी होती है तो कभी बीमारी और कभी कोई और परेशानी यानि इस दुनिया में हर इन्सान किसी न किसी परेशानी में घिरा हुआ है और इस परेशानी को दूर करने के लिए वह किसी न किसी की तरफ़ देख रहा है, कभी वह उसका भाई होता है तो कभी उसका दोस्त और कभी उसका पड़ोसी या रिश्तेदार... और वह उससे आशा रखता है कि उसकी परेशानियों को  दूर कर सके।

और यही वह स्थान है जब हम को दुआ और प्रार्थना के महत्व का अंदाज़ा होता है यानी इस दुनिया में ज़रूरत सभी को होती है और इस ज़रूरज को पूरा करने के लिए इन्सान कभी उन इन्सानों की तरफ़ हाथ फैलाता है जो उसकी का भाति कमज़ोर और शक्तिविहीन है उनसे कोई काम बन नहीं पड़ता है और यही वह समय है जब अल्लाह कहता है कि तुम ऐसे लोगों के सामने क्यों हाथ फैलाते हो कि अगर उनसे मांगो तो वह तुम्हारी मांग को पूरा न कर सकें उनके सामने हाथ फैलाओं तो हाथ ख़ाली वापस लौट आए, अगर मांगना ही है तो उस ख़ुदा से मांगो जिसने अपने बंदो को आदेश दिया है "हे मेरे बंदो तुम मुझते दुआ मांगे मैं तुम्हारी दुआओं का स्वीकार करने वाला हूँ"

लेकिन हम अपने समाज में देखते हैं कि हमारे कुछ भाई यह शिकायत करते हुए दिखाई देते हैं कि हम दुआ करते हैं लेकिन हमारी दुआ स्वीकार नहीं होती है हमारी दुआ क़ुबूल नहीं होती है।

तो आख़िर यह कैसा ख़ुदा का वादा है जो पूरा नहीं हो रहा है? एक तरफ़ तो वह यह कह रहा है कि मैं तुम्हारी दुआ का स्वीकार करने वाला हूँ और दूसरी तरफ़ हमारी दुआएँ स्वीकार नहीं हो रही है।

आख़िर मुश्किल किस तरफ़ से हैं?

आख़िर यह दुआएँ क्यों स्वीकार नही हो रही हैं?

तो जब हम इस्लामी रिवायतों का अध्ययन करते हैं तो हमको मिलता है कि दुआ को मांगने का तरीक़ा है, ख़ुदा को पुकारना है तो उस तरीक़े से पुकारो जो उसने बताया है, और यही वह स्थान है जब हमको अहलेबैत (अ) की दुआओं का महत्व समझ में आता है कि वह हमे सिखा रहे हैं कि हमे अगर ख़ुदा से कुछ मांगना है तो किस प्रकार मांगा जाए।

हम अपने इस लेख में पाठकों को वह तरीक़े बता रहे हैं जिनके बारे में कहा गया है कि अगर इस तरीक़े से दुआ मांगी जाए और इन शर्तों का ख़्याल रखा जाए तो इन्सान की दुआ स्वीकार होती है, और इन्शा अल्लाह हमारी भी सारी दुआएँ क़ुबूल होंगी।

दुआ के आदाब

1.  ख़ुदा की सही पहचान

दुआ करने वाले कि दिल में परवरदिगार की सही पहचान होनी चाहिए यानी उसे यह मालूम होना चाहिए कि अल्लाह हर चीज़ पर समर्थ है और उसी की ज़ात सारी चीज़ों का स्रोत है, पैग़म्बरे अकरम (स) फ़रमाते है

یقول اللہ عزوجل : من سئلنی وھو یعلم انی اضر وانفع استجیب لہ

अल्लाह ताला का इरशाद है कि जो यह इल्म और यक़ीन रखते हुए मुझ से सवाल करे कि मैं ही फ़ायदा और नुक़सान पहुँचाता हूँ मैं उसकी दुआ को क़बूल कर लेता हूँ। (बिहारुल अनवार जि 90, स 305, अध्याय 17)

इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम से बयान हुआ है कि कुछ लोगों नें इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम की सेवा में निवेदन कियाः आख़िर क्या बात है हम दुआएँ करते हैं मगर हमारी दुआएँ क़बूल नहीं होतीं?

आपने फ़रमायाः

لانکم تدعون من لا تعرفونہ

इस लिए कि तुम उसे पुकारते हो जिसे पहचानते नहीं हो। (शरहे नहजुल बलाग़ा जि 11, स 230)

2.  उम्मीद और क़ुबूल होने की आशा रखना

पिछली सबक़ में हम ने परवरदिगारे आलम का यह कथन नक़ल किया थाः

وادعوہ خوفاً وطمعاً ان رحمت اللہ قریب من المحسنین

यहाँ पर तमअ से मुराद यह है कि इंसान परवरदिगार से उम्मीद रखे और उसे इत्मीनान हो कि परवरदिगार सुनने वाला और दुआ क़बूल करने वाला है।

पैग़म्बरे अकरम (स) इरशाद फ़रमाते हैं

ادعوااللہ وانتم موقنون بالاجابۃ

इस यक़ीन के साथ अल्लाह से दुआ माँगो कि वह क़बूल करेगा। (बिहारुल अनवार जि 11, स 230)

इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं

اذا دعوت فظن ان حاجتک بالباب

जब दुआ करो तो क़बूलियत का यक़ीन रखो। (उसूले काफ़ी जि 2, स 473)

3.  अल्लाह के अतिरिक्त किसी और से उम्मीद न लगाना

जो इंसान परवरदिगारे आलम की बारगाह में दुआ करता है उसे दूसरे सारे कारकों से उम्मीदें तोड़ लेना चाहिए, इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम का इरशाद हैः

اذا اراد احدکم ان لا یسال ربہ شیئا الا اعطاہ فلییاس من الناس کلھم ولا یکون لہ رجاء الا عند اللہ فاذا علم اللہ عزوجل ذلک من قلبہ لم یسال اللہ شیئاً الا اعطاہ

अगर तुम यह चाहते हो कि परवरदिगार तुम्हारी हर दुआ पूरी कर ले तो सारे लोगों से मायूस हो कर अल्लाह की ज़ात को उम्मीद का केंद्र क़रार दो जब तुम्हारी इस दिली हालत को अल्लाह जान लेगा तो तो फिर तुम जो भी तलब करोगे अल्लाह उसे पूरा कर देगा। (उसूले काफ़ी जि 2, स 148)

4. दिल से दुआ मांगना

दुआ के अनिवार्य और ज़रूरी शिष्टाचारों में दिल से दुआ मांगना भी है यानी ज़बान पर जारी होने से पहले दिल में भी वही दुआ हो और दिल की गहराइयों से निकल कर ज़बान तक आये, इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं

ان اللہ عزوجل لا یستجیب دعاءً بظھر قلب ساہ فاذا دعوت فاقبل بقلبک ثم استیقن بالاجابۃ

बे दिली से की जाने वाली दुआ को अल्लाह तआला क़बूल नहीं करता है इसलिये अगर दुआ मांगना है तो दिल से अल्लाह की ओर ध्यान लगाओ और यह यक़ीन भी रखो कि वह क़बूल करेगा। (उसूले काफ़ी जि 2, स 473)

5.  गिड़गिड़ाते हुए और विनम्रता से दुआ करना।

दिल की गहराई और गिड़गिड़ाने की हालत से ही यह एहसास होता है कि इंसान वास्तव में मोहताज और ज़रूरतमंद है इसलिये जब यह हालत पैदा हो जाए तो दुआ मांगना चाहिए, इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं

اذا رق احدکم فلیدع فان القلب لا یرق حتی یخلص

जब किसी पर दिल बैठने की हालत तारी हो जाए तो दुआ मांगे इस लिए इस अवसर पर दिल में ख़ुलूस पैदा हो जाता है। (उसूले काफ़ी जि 2, स 477)

6.  बिस्मिल्लाह से शुरू करना

पैग़म्बरे अकरम (स) फ़रमाते हैः

لا یرد دعاء اولہ بسم اللہ الرحمٰن الرحیم

ऐसी दुआ रद्द नहीं की जाती है जिसका आरम्भ बिस्मिल्लाह से हो। (बिहारुल अनवार जि 90, स 313, अध्याय 17)

7.  अल्लाह की हम्द एवं प्रशंसा

दुआ से पहले अल्लाह की हम्द व प्रशंसा, अल्लाह की महानता व महिमा और दूसरे गुणों का उल्लेख करना चाहिए, इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं

کل دعاء لا یکون قبلہ تمجید فھو ابتر

जिस दुआ के पहले अल्लाह की हम्द व प्रशंसा न हो वह अधूरी है। (बिहारुल अनवार जि 90, स 317, अध्याय 17)

8.  नबी और आले नबी (अहलेबैत) पर दुरूद और सलाम

अल्लाह की हम्द व प्रशंसा और अल्लाह की याद के बाद पैग़म्बरे अकरम स0 और उनकी आले पाक पर दुरूद और सलाम भेजना चाहिए, पैग़म्बरे अकरम स0 का इरशाद हैः

صلاتکم علیّ اجابۃ لدعائکم وزکاۃ لاعمالکم

मुझ पर सलवात भेजना तुम्हारी दुआओं की क़बूलियत और आमाल की पाकीज़गी का कारण है। (बिहारुल अनवार जि 90, स 313, अध्याय 17)

इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम का इरशाद हैः

لا یزال الدعاء محجوباً عن السماء حتی یصلی علی النبی وآلہ

जब तक नबी और आले नबी पर सलवात न भेजी जाए दुआ आसमान तक नहीं पहुँचती। (बिहारुल अनवार जि 90, स 313, अध्याय 17)

9.  नबी और आले नबी को माध्यम (वसीला) बनाना

चूंकि नबीए करीम स0 और अहलेबैते अतहार अलैहिमुस्सलाम अल्लाह की कृपा व रहमत का माध्यम हैं और उन्हें अल्लाह की बारगाह में शिफ़ाअत का हक़ हासिल है। इसलिये अपनी दुआएँ क़बूल करने के लिए उनको माध्यम बनाना चाहिए, उन्हें वसीला बनाना चाहिए और अल्लाह को उनकी महानता और महिमा और उनके हक़ का वास्ता दे कर उन्हें अपना शफ़ी व हिमायती बनाना चाहिए।

10.  गुनाह का एतेराफ़

दुआ माँगने से पहले इंसान को अपनी असमर्थता, नातवानी, गुनाहों और ग़लतियों का एतेराफ़ करना चाहिए और इस एतेराफ़ के साथ उसे शर्मिंदगी भी होना चाहिए, इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं

انہ واللہ ما خرج عبد من ذنب الا بالاقرار

अल्लाह की क़सम कोई भी इंसान इक़रार के बिना गुनाहों से पाक नहीं हो सकता है। (उसूले काफ़ी जि 2, स 484)

11.  पाक और हलाल भोजन

हदीसे क़ुदसी में आया  हैः

فمنک الدعاء وعلیّ الاجابۃ فلا تحتجب عنی دعوۃ الا دعوۃ آکل الحرام

दुआ करना तेरा काम है क़बूल करना मेरी ज़िम्मेदारी है हराम खाने वाले के अतिरिक्त मैं किसी की दुआ रद्द नहीं करता। (नजदतुद्दायी स 139)

पैग़म्बरे अकरम (स) का इरशाद हैः

من احب ان یستجاب دعاؤہ فلیطیب مطعمہ وکسبہ

जो अपनी दुआएँ क़बूल कराना चाहेता है उसके भोजन और रोज़ी रोटी की तलाश पाक व पाकीज़ा होना चाहिए। (बिहारुल अनवार जि 90, स 372, अध्याय 24)

12.  दुआ पर आग्रह करते रहना

 दुआ पर आग्रह करते रहना चाहिए और दुआ माँगने से थकना नहीं चाहिए और जितना सम्भव हो गिड़गिड़ाना चाहिए, गिड़गिड़ाने का मतलब यह है कि इंसान अल्लाह को ही आरम्भ और अंत समझे और यह महसूस करता रहे कि केवल परवरदिगार ही मेरी हाजतें पूरी करेगा और वही मेरी मुशकिलें दूर कर सकता है।

पैग़म्बरे अकरम (स) का इरशाद हैः

ان اللہ یحب الملحین فی الدعاء

अल्लाह तआला दुआ में गिड़गिड़ाने वालों से मोहब्बत करता है। (बिहारुल अनवार जि 90, स 300, अध्याय 16)

13.  सामूहिक शक्ल में दुआ

जब दुआ माँगना हो और अपनी मांगों का इज़हार करना हो तो अपने घर वालों या दोस्तों को जमा करके अल्लाह की बारगाह में दुआ करना चाहिए।

इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम का इरशादे गेरामी हैः

کان ابی اذا احزنہ امر جمع النساء والصبیان ثم دعاء وامنوا

मेरे बाबा जब उदास व दुखी होते थे तो औरतों और बच्चों को इकठ्ठा होने का हुक्म देते थे और फिर दुआ फ़रमाते थे और सब लोग आमीन कहते थे। (उसूले काफ़ी जि 2, स 487)

14.  दुआ के साथ अमल भी

तवक्कुल और तवाकुल में फ़र्क़ है, तवक्कुल का मतलब यह है कि इंसान अमल करे और साथ ही साथ अल्लाह पर ईमान और यक़ीन रखे इस के विपरीत तवाकुल यह है कि मुशकिलें ख़त्म होने के लिए केवल अल्लाह को पुकारता रहे और ख़ुद कुछ न करे यानी हाथ पर हाथ रख कर बैठा रहे, दुआ करने वाले पर वाजिब है कि मैदाने अमल में भर पूर कोशिश करे और फिर अल्लाह पर भरोसा रखे।

अमीरुल मोमनीन हज़रत अली अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं

الداعی بلا عمل کالرامی بلا وتر

अमल के बिना पुकारने वाला कमान के बिना तीर चलाने वाले के तरह है। (नहजुल बलाग़ा हिकमत 337)

15.  अल्लाह की बारगाह में मांगें पेश करना

अल्लाह की बारगाह में मांगें पेश करने के लिए अहलेबैते इसमत व तहारत से बयान हुई दुआओं का सहारा लेना चाहिए इस लिए कि मासूमीन की दुआओं में दुआ के शिष्टाचार, बयान की अच्छी शैली के अतिरिक्त प्रशिक्षण के सिद्धांत और अंतरात्मा के शुद्धीकरण का सामान भी पाया जाता है जिनमें दुआए कुमैल, दुआए सबाह, दुआए अबू हमज़ा सुमाली और मुनाजाते शाबानिया आदि प्रसिद्ध हैं।

दुआ के और भी शिष्टाचार हैं जैसे पाक होना, बा वज़ू, क़िब्ला रुख़ हो कर दुआ माँगना, उचित जगह और समय का चयन।

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