इमाम अली (अ) के कथन भाग 4

इमाम अली (अ) के कथन भाग 4

31- عن أمیرالمؤمنین علیه السلام أنّه قال:

مِنَ الكبائر قتلُ المؤمن عمداً - إلى أن قال - والتعرُّبُ بعدَ الهجرة؛

इमाम अली (अ) ने फ़रमायाः एक सबसे बड़ा पाप मोमिन और मुसलमान की जानबूझ कर हत्या करना है, यहां तक कि आपने फ़रमायाः एक यह है कि इन्सान इस्लाम स्वीकार करने और (इस्लामी शिक्षा और समाज की तरफ़) हिजरत (प्रवास) करने के बाद मुसलमानों के वातावरण से अलग हो जाए और काफ़िर और पथभ्रष्ठ समाज से मिल जाए।

32- قال علیّ علیه السّلام:

یَنبَغِی للعاقِلِ أن یَحتَرِسَ مِن سُکرِ المالِ، و سُکرِ القُدرَةِ، و سُکرِ العِلمِ، و سُکرِ المَدحِ، و سُکرِ الشَّبابِ، فإنَّ لِکُلِّ ذلکَ رِیاحاً خَبیثةً تَسلُبُ العَقلَ و تَستَخِفُّ الوَقارَ؛

इमाम अली (अ) ने फ़रमायाः बेहतर है कि अक़्लमंद इन्सान ख़ुद को माल और दौलत की मस्ती और शक्ति एवं क़ुदरत की मस्ती और ज्ञान एवं जानकारी की मस्ती और तारीफ़ की मस्ती और जवानी की मस्ती से बचाए। क्योंकि इनमें से हर एक मस्ती में ज़हरीज़ी हवाएं हैं जो अक़्ल को समाप्त कर देती हैं और इन्सान को ज़लील और पस्त बना देती हैं।

33- قال علیّ علیه السّلام:

مَن کَرُمَتْ عَلَیهِ نَفسُهُ لَم یُهِنها بِالْمَعصِیَةِ؛

इमाम अली (अ) ने फ़रमायाः जो अपने अंदर सम्मान और इज़्ज़त का भाव रखता हो वह कभी भी पाप के माध्यम से उसको अपमानित नहीं करता है।

34- قال علیّ علیه السّلام:

سَيِّئَةٌ تَسُوءُكَ خَيْرٌ عِنْدَ اللَّهِ مِنْ حَسَنَةٍ تُعْجِبُك‏؛

इमाम अली (अ) ने फ़रमायाः पाप और गुनाह हो तुम को दुखी कर दे ख़ुदा के नज़दीक उस नेकी और भलाई से अच्छा है तो तुमको घमंडी और अहंकारी बना दे।

35- فی وصیّة أمیرالمؤمنین علیه السلام لکمیل:

«یا کمیل! قُلِ الحق علی کل حال و وادِّ المتقین و اهجر الفاسقین و جانب المنافقین و لا تصاحب الخائنین».

इमाम अली (अ) ने हज़रत कुमैल बिन ज़ियाद से अपनी वसीयत में कहाः हे कुमैल हर हाल में सच बोलो और परहेज़गारों (नेक लोगों) को दोस्त रखो और पापों से दूर रहो और मुनाफ़िक़ो के साथ मेल जोल न रखों और ख़यानत करने वालों के साथ दोस्ती न करो।

36- قال علیّ علیه السّلام:

کان فی الأرض أمانان من عذاب الله و قد رفع احدهما فدونکم الآخر فتمسکوا به؛ أمّا الأمان الذی رفع فهو رسول الله (صلّی الله علیه و آله و سلّم) و أما الأمان الباقی فالاستغفار. قال الله تعالی: و ما کان الله لیعذبهم و أنت فیهم و ما کان الله معذبهم و هم یستغفرون؛

इमाम अली (अ) ने फ़रमायाः धरती पर ख़ुदा के अज़ाब से बचने के लिए दो पनाहगाह थीं कि जिनमें से एक चली गई और दूसरी तुम्हारे पास है, तो उसको मज़बूती से पकड़ लो, जो पनाह तुम्हारे हाथों से चली गई है वह रसूले ख़ुदा (स) थे और जो पनाह तुम्हारे पास है वह इस्तिग़फ़ार और ख़ुदा से पापों की क्षमा मांगना है,

ख़ुदावंदे आलम (सूरा अनफ़ाल आयत 33 में) फ़रमाता है ख़ुदा लोगों पर अज़ाब नहीं करेगा जब तक कि आप उनके बीच हैं और ख़ुदा उन पर अज़ाब नहीं नाज़िल करेगा जब तक वह इस्तिग़फ़ार करते हैं।

37- قال علی عليه‏ السلام:

العِلمُ أفضَلُ مِنَ المالِ بِسَبعَةٍ:

الأوّلُ: أنَّهُ مِيراثُ الأنبِياءِ و المالُ مِيراثُ الفَراعِنَةِ،

الثاني: العِلمُ لا يَنقُصُ بِالنَّفَقَةِ و المالُ يَنقُصُ بِها،

الثّالِثُ: يَحتاجُ المالُ إلَى الحافِظِ و العِلمُ يَحفَظُ صاحِبَهُ،

الرّابِعُ: العِلمُ يَدخُلُ فِي الكَفَنِ و يَبقَى المالُ،

الخامِسُ: المالُ يَحصُلُ لِلمُؤمِنِ و الكافِرِ و العِلمُ لا يَحصُلُ إلاّ لِلمُؤمِنِ،

السّادِسُ: جَميعُ النّاسِ يَحتاجونَ إلَى العالِمِ في أمرِ دينِهِم و لا يَحتاجونَ إلى صاحِبِ المالِ،

السّابِعُ: العِلمُ يُقَوِّي الرَّجُلَ عَلَى المُرورِ عَلَى الصِّراطِ و المالُ يَمنَعُهُ؛

इमाम अली (अ) ने फ़रमायाः सात कारणों से ज्ञान माल से बेहतर है

पहलाः ज्ञान पैग़म्बरों की मीरास है और माल फ़िरऔनों की मीरास है।

दूसराः ज्ञान दूसरों में बांटने से कम नहीं होता लेकिन माल कम होता है।

तीसराः माल को सुरक्षा करने वाले की आवश्यकता होती है लेकिन ज्ञान ज्ञानी को सुरक्षित रखता है।

चौथाः ज्ञान इन्सान के कफ़न में जाता है (इल्म आख़ेरत में भी साथ जाता है) लेकिन माल दुनिया में छूट जाता है।

पांचवाः माल मोमिन और काफ़िर दोनों के लिए प्राप्त होता है लेकिन ज्ञान केवल मोमिन को मिलता है (वह ज्ञान जो कि एक प्रकाश है और जिससे इन्सान हिदायत पाता है ना के केवल परिभाषाएं याद कर लेना)

छटाः तमाम लोग अपने धार्मिक कार्यों में आलिम के मोहताज हैं लेकिन मालदार के मोहताज नहीं हैं।

सातवां: ज्ञान इन्सान को पुले सिरात से गुज़रने की शक्ति देता है लेकिन माल इन्सान को रोक देता है और गुज़रने नहीं देता।

38- قال أمیرالمؤمنین علی علیه السلام:

کم من غافل ینسج ثوباً لیلبسه و إّنما هو کفنه ویبنی بیتاً لیسکنه و إنّما هو موضع قبره؛

و قیل لأمیرالمؤمنین علیه السّلام: ما الاستعداد للموت؟

قال: أداء الفرایض، و اجتناب المحارم، و الاشتمال على المکارم ثمّ لا یبالی أن وقع على الموت أو وقع الموت علیه، و اللّه ما یبالى ابن أبیطالب أن وقع على الموت أو وقع الموت علیه؛

इमाम अली (अ) ने फ़रमायाः कितने ऐसे बेख़बर लोग हैं जो कपड़ा बुनते हैं उसको पहनने के लिए लेकिन वह लिबास उनका कफ़न बन जाता है, और घर बनाते हैं रहने के लिए लेकिन वह उनकी क़ब्र बन जाता है, अमीरुल मोमिनीन (अ) से अर्ज़ किया गया, मौत के लिए तैयारी क्या है ? (कैसे मौत के लिए तैयार होना चाहिए) आपने फ़रमायाः वाजिबात को आंजाम देना और हराम चीज़ों से बचना, और अच्छे व्यवहार को हासिल करना। फिर डर नहीं होना चाहिए कि वह मौत की तरफ़ जाए या मौत उसकी तरफ़ आए, ख़ुदा की क़सम अबूतालिब के बेटे को डर नहीं है कि वह मौत की तरफ़ जाए या मौत उसकी तरफ़ आ जाए।

एक कहानी

एक आरिफ़ कहता है कि एक दिन मैं एक रेगिस्तान में अकेला गया ताकि ख़ुदा की इबादत कर सकूं , थोड़ी देर बैठा ताकि खाना खा कर इबादत में लग जाऊँ अचानक मैंने एक चींटी को देखा जिसको कहीं से एक गेंहूँ का दाना मिल गया था और उसने तमाम कठिनायों के बावजूद उसको आधा कर दिया था और उसको अपने साथ लेकर जा रही थी

जहां भी थोड़ा ऊँचा नीचा होता था तमाम कठिनाईयों के साथ उसको पार करती और गेहूँ को ले जा रही थी। मैं भी उसको देखने लगा कि आख़िर यह इसको कहां लेकर जाती है और क्या करती है। एक लम्बा रास्ता तै करने के बाद वह अपने बिल के पास पहुँच गई।

लेकिन अचानक मैंने देखा कि एक चिड़िया ऊपर से उड़ती हुई आई और उसने गेंहू के साथ साथ चींटी को भी निगल लिया।

मैं सोंचने लगा कि इन्सान कितनी परेशानियाँ उठाता है कितनी कोशिशें करता है कि माल एकत्र कर सके, उसके लिए झूठ बोलता है, धोखा देता है, हलाल और हराम की फ़िक्र नहीं करता है, कि अचानक मौत का फ़रिश्ता आदा है और उसको ले कर चल देता है, उसकी सारी कोशिशें बेकार रखी रह जाती है, वह माल और सम्मान को क़ब्रे के पास तक लाता है लेकिन वहां सब कुछ उससे छीन लिया जाता है और उसके शरीर को मिट्टी के नीचे दबा दिया जाता है, वहां न फ़र्श है, न चिराग़, न साथी है न बीवी न बच्चे, कुछ भी नही है सिवाय उसके ईमान और नेक आमाल के।

इन्सान दुनिया के लिए सख़्तियाँ झेलता है  लेकिन बेचारे को यह नहीं पता है कि सिवाय दर्दे सर के और कुछ नहीं रखा है।

39- عن علیّ بن أبیطالب علیه السلام قال:

بَینا أنا وفاطمة والحسن والحسین عند رسول الله (صلى الله علیه وآله و سلّم)، إذا التفتَ إلینا فبکى،

فقلت: ما یبکیک یا رسول الله؟

فقال: أبکی مما یُصنَع بکم بعدی.

فقلت: و ما ذاکَ یا رسول الله؟

قال: أبکی من ضربتک على القرن، و لطم فاطمة خدها، وطعنة الحسن فی الفخذ ، والسّم الذی یُسقى، و قتل الحسین.

قال: فبکى أهل البیت جمیعاً، فقلت: یا رسول الله ، ما خَلَقَنا ربُّنا إلا للبلاء!

قال : أبشِر یا علی، فإن الله عز وجل قد عهد إلیَّ أنه لا یُحِبُّک إلاّ مؤمن، ولا یُبغِضُک إلاّ منافق؛

इमाम अली (अ) ने फ़रमायाः जब मैं और फ़ातेमा और हसन व हुसैन पैग़म्बर के पास थे तब आप हमारी तरफ़ मुतवज्जेह हुए और रोए , तो मैंने प्रश्न किया कि हे अल्लाह के रसूल (स) किसी चीज़ ने आपको रुला दिया? आपने फ़रमायाः मेरे बाद जो कुछ तुम्हारे साथ किया जाएगा उस पर रो रहा हूँ। मैंने प्रश्न किया (जो हमारे साथ किया जाएगा) वह क्या है हे अल्लाह के रसूल (स)? आपने फ़रमायाः मैं रो रहा हूँ उस वार के कारण जो तुम्हारे सर पर किया जाएगा, और उस तमाचे के कारण जो फ़ातेमा के गाल पर मारा जाएगा, और उस नैज़े (भाले) के कारण जो हसन की रान पर मारा जाएगा और उस ज़हर के कारण जो उसको पिलाया जाएगा, (इमाम अली कहते हैं) मैंने कहाः हे अल्लाह के रसूल ख़ुदा ने हम को पैदा नहीं किया है मगर बला और मुसीबतों के लिए, आपने फ़रमायाः मुबारक हो तुमको या अली कि ख़ुदा ने मुझसे वादा किया है कि तुम्को दोस्त नहीं रखेगा मगर मोमिन और तुमसे दुश्मनी नहीं करेगा मगर मुनाफ़िक़। (अली से दोस्ती और आपकी मोहब्बत ईमान की निशानी है और आपसे कीना और नफ़रत निफ़ाक़ की निशानी है)

40- مِن وصیّة علی علیه السلام:

الله الله فی الأیتام فلا تُغِبُّوا أفواههم ولا یَضیعوا بحضرتكم.

والله الله فی جیرانكم فإنَّهم وصیة نبیكم، ما زال یوصی بهم حتى ظَنَنّا أنَّه سیورثهم.

والله الله فی القرآن لا یسبقكم بالعمل به غیركم.

و الله الله فی الصلاة فإنّها عمود دینكم.

و الله الله فی بیت ربكم لا تُخَلُّوهُ ما بقیتم فإنّه إن تُرِكَ لم تُناظَروا.

والله الله فی الجهاد بأموالكم وأنفسكم و ألسنتكم فی سبیل الله.

وعلیكم بالتواصل والتباذل و إیاكم والتدابر و التقاطع. لا تتركوا الأمر بالمعروف و النهی عن المنكر فیُوَلّى علیكم شراركم ثم تدعون فلا یستجاب لكم.

(जब इबने मुलजिम मलऊन ने इमाम अली (अ) के सर पर ज़रबत लगाई और आप घायल थे तब आपने इमाम हसन, हुसैन (अ) और दूसरे बेटो और तमाम मुसलमानों और शियों को वसीयतें की जिनमें से कुछ यह हैं): ख़ुदा से डरो ख़ुदा से डरों यतीमों के सिलसिले में, उसने मुंह के लिए नम्बर न लगाओं (कि कभी उनका पेठ भरा हो और कभी ख़ाली ) और वह तुम्हारे सामने (भूख, प्यास और कपड़े ना होने के कारण) तबाह और बर्बाद न हो जाएं।

ख़ुदा से डरो ख़ुदा से डरो पड़ोसियों के सिलसिले में कि पैग़म्बर (स) ने उनके बारे में वसीयत की है आप हमेशा उनके बारे में वसीयत करते रहते थे यहां तक कि हम लोग गुमान करने लगे कि उनके (पड़ोसियों) लिए मीरास हो।

और ख़ुदा से डरो ख़ुदा से डरो क़ुरआन के सिलसिले में कि दूसरे उस पर अमल के सिलसिले में तुम से आगे न निकल जाएं।
ख़ुदा से डरो ख़ुदा से डरो नमाज़ के सिलसिले में क्योंकि वह दीन का स्तंभ है।

ख़ुदा से डरो ख़ुदा से डरो अपने ख़ुदा के घर (काबे) के सिलसिले में जब तक जीवित हो उसको ख़ाली न छोड़ना याद रखो अगर (हज पर जाना) छोड़ दिया गया तो मोहलत नहीं दी जाएगी (ख़ुदा की तरफ़ से अज़ाब में गिरफ़्तार हो जाओगे)

और ख़ुदा से डरो ख़ुदा से डरो ख़ुदा की राह में माल के जिहाद, जान के जिहाद और ज़बान के जिहाद के सिलसिले में।

और आपस में एकता रखो और दोस्त रहो और एक दूसरे उपहार दो, और एक दूसरे की तरफ़ पीठ करने और अलग अलग होने से डरो।

नेकी का हुक्म और बुराई से रोकने (अम्र बिल मारूफ़ नही अनिल मुनकर) को न छोड़ना (क्योंकि अगर छोड़ दोगे तो) बुर और अत्याचारी लोग तुम पर हावी हो जाएंगे उसके बाद तुम (उनकी बुराई और अत्याचार को दूर करने के लिए ख़ुदा से) दुआ करोगे लेकिन तुम्हारी दुआएं स्वीकार नहीं होंगी।

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