इमाम अली (अ) के कथन भाग 2

इमाम अली (अ) के कथन भाग 2

11- قال على ‏علیه السلام:

إنَّ للمؤمن ثلاث ساعات: فساعة يناجي فيها ربه، و ساعة یحاسب فیها نفسه، و ساعة يُخَلّي فيها بين نفسه و بين لذّاتها يحلُّ و يَجمَل؛ و ليس للعاقل أن يكون شاخصاً إلاّ في ثلاث: مَرَمَّةٍ فی معاشِهِ، و خُطوَةٍ لمعاده، أو لَذَّةٍ في غير مُحَرَّمٍ.

इमाम अली (अ) ने फ़रमायाः मोमिन को (अपने दिन और रात्रि को) तीन भागों में  बांटना चाहिए

1. एक भाग अपने ख़ुदा से दुआ और इबादत के लिए

2. एक भाग अपने आमाल का हिसाब किताब करने के लिए।

3. और एक भाग हलाल चीज़ों से लज़्ज़त और मज़ा प्राप्त करने के लिए।

जायज़ नहीं है कि एक अक्लमंद इन्सान यात्रा करे मगर तीन कारणों से

1.    अपने जीवन की आर्धिक आवश्यकतों की बेहतरी के लिए।

2.    और एक क़दम हो आख़ेरत की तरफ़।

3.    या हलाल चीज़ों से लज़्ज़त और मज़े को प्राप्त करने के लिए।

12- قال على ‏علیه السلام:

اَلصَّبرُ علی ثَلاثَة أوجه: فصَبرٌ علی المُصيبَةِ، وَصَبرٌ علی المَعصيَةِ وَصَبرٌ عَلَى الطّاعَةِ؛

इमाम अली (अ) ने फ़रमायाः विवेक (सब्र) और सहिष्णुता (बुरदबारी) तीन प्रकार की होती है

1. मुसीबत पर विवेक और सब्र।

2. गुनाह और ख़ुदा के आदेश की अवहेलना के सामने विवेक और सब्र (यानी पाप न करे और अपने विवेक से काम ले)

3. ख़ुदा के आदेशों का पालन करने पर विवेक और सब्र।

13- قال على ‏علیه السلام:

أربعة لاتُرَدُّ لهم دعوة: الإمام العادل لرعیته و الولد البارُّ لوالده و الوالد البارّ لولده و المظلوم. يقول الله: و عزتى و جلالى لانتصرنَّ لك و لو بعدَ حينٍ.

इमाम अली (अ) ने फ़रमायाः चार प्रकार के लोगों की दुआ अस्वीकार नहीं होती (क़ुबूल होती है)

1. आदिल हाकिम की दुआ अपनी जनता और रिआया के लिए।

2. नेक औलाद की दुआ अपने पिता के लिए।

3. नेक पिता की दुआ अपनी औलाद के लिए।

4. शोषित और ज़ुल्म का शिकार हुए व्यक्ति की दुआ।

ख़ुदा वंदे आलम फ़रमाता हैः मेझे अपनी इज़्ज़त और किबरियाई की क़सम है में तुम्हारी तरफ़ से इन्तेक़ाम लूगा चाहे समय बीतने के बाद ही क्यों न हो।

14- قال على ‏علیه السلام:

إنّما أخشی علیکم اثنتین: طول الأمل و اتِّباع الهوی؛ أمّا طول الأمل فیُنسی الآخرة و أمّا اتِّباع الهوی فإنَّه یَصُدُّ عن الحق.

इमाम अली (अ) ने फ़रमायाः मैं तुम लोगों के लिए दो चीज़ों से डरता हूँ:

1. लंबी लंबी आरज़ुएं

2. अपने नफ़्स की ख़्वाहिशों का पालन।

लंबी लंबी आरज़ुएं आख़ेरत को भुला देती हैं और नफ़्स की ख़्वाहिशों का पालन इन्सान को सीधे रास्ते से रोक देता है।

15- قال علىّ علیه السّلام:

لیس من أخلاق المؤمن المَلَق و الحسد إلاّ فی طلب العلم.

इमाम अली (अ) ने फ़रमायाः यह मोमिन का अख़लाक़ नहीं है कि वह चापलूस और हसद (ईर्ष्या) करने वाला हो सिवाय इल्म और ज्ञान को प्राप्त करने में (यानी इसमें ईर्ष्या करना सही है)

16- قالَ علیٌ عَلَیهِ السَّلامُ:

اَلحَذَرَ اَلحَذَر فَوَاللهِ لَقَد سَتَرَ حَتّی کَاَنَّهُ قَد غَفَرَ.

इमाम अली (अ) ने (पापों से दूरी पर प्रोत्साहन दिलाते हुए) फ़रमायाः दूरी करो (पाप से) दूरी करो, ख़ुदा की क़सम उसने पापों को इस प्रकार छिपा दिया है कि गोया उसको क्षमा कर दिया है (तो इससे पहले कि क़यामत नहीं आई है और पाप सामने नहीं आए हैं उसकी तरफ़ पलट आओ और तौबा कर लो)

17-  قال علىّ علیه السّلام:

أَهْلُ الدُّنْيَا كَرَكْبٍ يُسَارُ بِهِمْ وَ هُمْ نِيَامٌ؛

इमाम अली (अ) ने फ़रमायाः दुनिया के लोग उस क़ाफ़िले की भाति हैं कि जिनको ले जाया जा रहा है जब्कि वह सो रहे हैं (कि अचानक यात्रा समाप्त हो जाएगी और आख़ेरत यानी सदैव रहने वाली मंज़िल पर उतरना होगा)

18- قال علىّ علیه السّلام:

عن الحسن البصری فی حدیث: أنّ أميرالمؤنين عليه السلام دخل سوق البصرة فنظر إلى الناس يبيعون و یشترون فبکی بکاءاً شدیداً ثم قال:

يا عبيد الدنيا و عُمّالَ أهلها، إذا كنتم بالنهار تحلفون و بالليل فى فراشكم تنامون و فى خلال ذالك عن الآخرة تغفلون فمتى تجهزون الزاد و تَفَكَّرُون فى المعاد؛

हसने बसरी से एक हदीस नक़्ल हुई है किः अमीरुल मोमिनीन (अ) बसरे के बाज़ार में पहुँचे और लोगों पर एक निगाह डाली कि (किस प्रकार वह) वह ख़रीदने और बेंचने में व्यस्त हैं, फिर आप बहुत तेज़ रोए फिर अपने फ़रमायाः हे दुनिया के ग़ुलामों (दासों) और उसके काम करने वालों, जब तुम दिन में (इस प्रकार दुनिया के लिए) क़सम खाते हो और रात्रि में अपने बिस्तरों में सोते हो और इन दोनों (दिन, रात्रि) के बीच आख़ेरत से बेख़बर और ग़ाफ़िल हो तो किस समय (आख़ेरत की) सामग्री को एकत्र करोगे और कब क़यामत और महाप्रलय के बारे में चिंतन करोगे?

19- قال علیّ (علیه السّلام):

ثلاثُ علاماتٍ للمرائی: یَنشَطُ إذا رأی النّاس و یَکسَلُ إذا کان وحده و یحبّ أن یُحمَد فی جمیع أموره؛

इमाम अली (अ) ने फ़रमायाः रियाकार (पाखंडी) इन्सान की तीन निशानियां हैं:

1. जब लोग उसको देख रहें हों तो वह इबादत में ज़िंदादिल है।

2. और जब एकेला हो तो काहिल होता है।

3. वह चाहता है कि हर काम में उसकी तारीफ़ की जाए।

20- قال علیّ علیه السّلام:

مَنْ نَصَبَ نَفْسَهُ لِلنَّاسِ إِمَاماً فَعلیه أن يَبْدَأ بِتَعْلِيمِ نَفْسِهِ قَبْلَ تَعْلِيمِ غَيْرِهِ وَ لْيَكُنْ تَأْدِيبُهُ بِسِيرَتِهِ قَبْلَ تَأْدِيبِهِ بِلِسَانِهِ وَ مُعَلِّمُ نَفْسِهِ وَ مُؤَدِّبُهَا أَحَقُّ بِالْإِجْلَالِ مِنْ مُعَلِّمِ النَّاسِ وَ مُؤَدِّبِهِمْ .

इमाम अली (अ) ने फ़रमायाः जो भी ख़ुद को लोगों का रहबर बनाकर प्रस्तुत करे तो उसको दूसरो को शिक्षा देने से पहले, अपने आप को शिक्षा देनी चाहिए (क्योंकि उसकी बात का प्रभाव उसकी समय होगा जब वह स्वंय उसका पालन करता हो) और लोगों को अपनी ज़बान से अदब सिखाने से पहले अपने कार्य और शैली से उनको अदब सिखाए (जैसे जो नमाज़ पढ़ता है वह दूसरों से भी कह सकता है कि नमाज़ पढ़ो) और अपने नफ़्स (आत्मा) को शिक्षा देने वाला और अदब सिखाने वाला लोगों को शिक्षा देने और अदब सिखाने वाले से अधिक सम्मान का हक़दार है।

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