इस्लाम अमन और चैन का मज़हब

इस्लाम अमन और चैन का मज़हब

एक हज़ार चार सौ वर्ष पहले अंतिम ईश्वरीय धर्म के रूप में इस्लाम धर्म ने ईश्वर की तलाश करने वालों और न्यायप्रिय लोगों की प्यासी आत्माओं को तृप्त किया था। चौदह से अधिक शताब्दियां बीत जाने के बाद पैग़म्बरे इस्लाम (स) द्वारा लाया गया क़ानून अत्याचार और उद्दंडता से संघर्षरत है और इसने संसार के अत्याचार ग्रस्त लोगों और कमज़ोर लोगों को अपनी कृपालु व दयालु छत्रछाया में शरण दिया। इस ईश्वरीय नियम को इस बात पर गर्व है कि उसने अपने प्रेम, स्नेह, मित्रता और नैतिक संदेशों से लोगों को इस्लाम धर्म की ओर आकर्षित किया है और पवित्र क़ुरआन के कथनानुसार यदि इसके अतिरिक्त कुछ और होता तो इस्लाम धर्म के सारे अनुयायी बिखर जाते। इस्लाम धर्म को इस बात पर गर्व है कि परिपूर्ण धर्म के रूप में वह मानवीय प्रतिष्ठा और उसके स्थान का सम्मान और उसकी स्वतंत्रता पर बल देता है, इस प्रकार से उसका कार्यक्रम नैतिक पतन से लोगों को बचाना और उसकी असली पहचान वापस करना है।

जब से इस्लाम धर्म की प्रकाशमशी किरण फूटी है तब से जितना यह धर्म ग़ैर मुसलमानों के ध्यान का केन्द्र रहा उतना ही इस्लाम के शत्रुओं की ओर से प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष षड्यंत्र भी रचे गये ताकि इस्लाम धर्म की ओर वास्तविकता की पहचान करने वालों का मनोबल कमज़ोर हो जाए। इस प्रकार से इस्लाम धर्म की शिक्षाओं और सिद्धांतों और पैग़म्बरे इस्लाम के व्यक्तित्व को तोड़ मरोड़ कर पेश किया ताकि इस्लाम की वास्तविक छवि से भिन्न, बिगड़ी छवि पेश कर सकें। इन्हीं प्रयासों में से एक इस्लाम धर्म को हिंसक प्रवृत्ति वाले धर्म के रूप में पेश करना है। खेद की बात यह है कि सीरिया, इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान जैसे देशों में होने वाली हालिया घटनाएं भी इसी निराधार सोच की पुष्टि करती हैं। वास्तव में जो घटनाएं इन क्षेत्रों में घट रही है वह इस्लाम व मुसलमानों के विरुद्ध षड्यंत्र के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। खेद की बात यह है कि यह षड्यंत्र कुछ धोखा खाए व अज्ञानी मुसलमानों के द्वारा रचा जा रहा है। मुसलमानों यह गुट इस्लाम के नाम पर व पैग़म्बरे इस्लाम के अनुसरण का नारा लगाकर सबसे अधिक पाश्विक अपराध कर रहा है ताकि इस्लाम के शत्रुओं के हथकंडे के रूप में इस्लाम धर्म की छवि को बिगाड़ कर पेश करे। यह बात पूरे विश्वास के साथ कही जा सकती है कि यह केवल दिखावे के मुसलमान से अधिक कुछ भी नहीं हैं।

हालिया घटनाओं के दृष्टिगत हमने सोचा कि पवित्र क़ुरआन की आयतों और पैग़म्बरे इस्लाम के आचरण को आधार बनाकर इस्लाम की सही छवि को लोगों के सामने पेश किया जाए।

इस्लाम ऐसा धर्म है जो इस बात की सलाह देता है कि जो भी काम आरंभ किया जाए उसे बिस्मिल्लाह से किया जाए। अर्थात उसके नाम से जो सबसे बड़ा दयालु व कृपालु है। पवित्र क़ुरआन सूरए तौबा की आयत क्रमांक छह में कहता है कि और यदि अनेकेश्वरवादियों में से कोई तुम से शरण मांगे तो उसे शरण दे दो ताकि वह क़ुरआन की आयत को सुने और उसके बाद उसे स्वतंत्र करके जहां उसकी शरण स्थली है पहुंचा दो और यह छूट इस लिए है कि यह अज्ञानी जाति वास्तविकता से परिचित है।

इस्लाम का कहना है कि बुराई के मुक़ाबले में भलाई करो ताकि तुम्हारे इस कार्य से तुम्हारा घोर शत्रु तुम्हारे इस प्रेम से लज्जित होकर तुम्हारा मित्र हो जाए। अब प्रश्न यह उठता है कि किस प्रकार स्वयं को मुसलमान दिखाने वाले गुट के पाश्विक कर्मों की पुष्टि की जा सकती है।

पवित्र क़ुरआन के सूरए निसा की आयत संख्या 94 में कहा गया है कि जो भी अपनी बात से या कर्म से इस्लाम की घोषणा करे तो उससे यह न कहना कि तुम मोमिन नहीं हो। यह आयत बल देती है कि रणक्षेत्र में भी यदि कोई कहे कि वह मुसलमान है तो उसकी जान व माल की रक्षा करना अनिवार्य है और किसी को यह अधिकार नहीं है कि निराधार बहाने के आधार पर किसी को हानि पहुंचाए। यह सब बातें इस्लाम धर्म की शिक्षाओं में हिंसा और आतंक की दूरी के चिन्ह हैं किन्तु खेद की बात यह है कि कुछ दिगभ्रमित व द्वेष रखने वाले गुट, पैग़म्बरे इस्लाम की परंपरा के दिखावे का नारा लगाकर अनेकेश्वरवादियों को नहीं बल्कि मुसलमानों व ईमान वालों की जिन्होंने अपनी पूरी आयु इस्लाम व क़ुरआन की सेवा में व्यतीत की,  हत्या को अनिवार्य समझते हैं और बहुत ही बुरी तरह उनकी हत्या कर देते हैं। इस्लामी इतिहास में यह कहां मिलता है कि पैग़म्बरे इस्लाम ने यहां तक कि काफ़िर बंदियों के साथ इस प्रकार का व्यवहार किया हो? पवित्र कथनों में मिलता है कि क्या धर्म प्रेम के अतिरिक्त कुछ और है? ईश्वर, ईश्वरीय दूतों, महापुरुषों और सभी लोगों से प्रेम। ऐसा धर्म जो प्रेम और भाई चारे का निमंत्रण देता है किन्तु खेद की बात यह है कि वहाबी चरमपंथी गुटों के बुरे कर्मों के कारण इस्लाम धर्म के शत्रुओं के हाथ इस्लाम की ग़लत व बुरी छवि को पेश करने के लिए बेहतरीन दस्तावेज़ लग जाते हैं। वहाबी चरमपंथियों के अपराध व हिंसा ऐसी वस्तु नहीं है जो किसी से छिपी हो। इन दिगभ्रमित गुटों के पाश्विक कर्मों के ही कारण जब भी कोई इस्लाम का नाम लेता है तो उसके मन में हिंसा स्वयं ही आ जाती है और इनके इस घृणित कार्य से इस्लाम विरोधियों विशेषकर अमरीका और इस्राईल को बहाना मिल गया है। क्या इस गुट ने पवित्र क़ुरआन के सूरए माएदा की आयत क्रमांक 32 को नहीं सुना जिसमें ईश्वर कहता है कि यदि किसी से अवैध रूप से किसी की हत्या कर दी तो मानो उसने पूरे मनुष्यों की हत्या कर दी। इसी प्रकार सूरए निसा की आयत संख्या 93 में कहा गया है कि और जो भी किसी मोमिन की जानबूझकर हत्या करेगा तो उसकी सज़ा नरक है, उसे इसी में सदैव रहना है और ईश्वर के क्रोध का पात्र भी है और ईश्वर धिक्कार भी करता है और उसने इसके लिए महापाप भी तैयार कर रखा है। प्रत्येक दशा में हिंसा से दूरी पर आधारित पवित्र क़ुरआन की इन स्पष्ट आयतों के दृष्टिगत किस प्रकार कुछ रूढ़ीवादी व अतिवादी इस्लाम और पैग़म्बरे इस्लाम के अनुसरण के नाम पर निहत्थे महिलाओं, पुरुषों और बच्चों की निर्मम हत्या कर देते हैं ?

इस्लाम धर्म की शिक्षाओं में झड़पों व युद्ध से बचने और हिंसा से दूरी को इतना महत्त्व दिया गया है कि ईश्वर सूरए तारिक़ की आयत क्रमांक 17 में अपने पैग़म्बर से कहता है कि अनेकेश्वरवादियों को अवसर दो। इस आयत की व्याख्या में व्याख्याकर्ता कहते हैं कि ईश्वर ने इस छोटे वाक्य में अपने पैग़म्बर को आदेश दिया है कि वह काफ़िरों को अवसर दें और इस्लाम धर्म के प्रचार में जल्दबाज़ी से काम न लें ताकि वह तमाम लोग ईमान ले आएं जिनके बारे में आशा है कि वह ईमान ले आएंगे ताकि अन्य लोगों के लिए यह तर्क रहे। इसी प्रकार सूरए हिज्र की आयत संख्या 85 में ईश्वर अपने पैग़म्बर से कहता है कि शत्रुओं के साथ शालीनता से व्यवहार करें। इस आयत में ईश्वर ने अपने पैग़म्बर को आदेश दिया है कि शत्रुओं की हठधर्मी, अज्ञानता, द्वेष और उनके विरोधों के मुक़ाबले में प्रेम व स्नेह दर्शाएं और उन्हें बुरा भला न कहें।

इसी प्रकार सूरए जासिया की आयत संख्या 11 में ईश्वर कहता है कि आप ईमान वालों से कह दें कि वह ईश्वरीय दिनों अर्थात प्रलय की आशा न रखने वालों को क्षमा कर दें ताकि ईश्वर उनके कर्मों का पूर्ण  बदला प्रलय में दे सके। इस आयत की व्याख्या में आया है कि संभव है कि शत्रु ईमान के सिद्धांतों और ईश्वरीय प्रशिक्षण से दूर रहने के कारण, बुरे कर्म करते हों किन्तु तुम मुसलमानों को बड़प्पन का प्रदर्शन करते हुए ऐसे लोगों के साथ ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि उनकी हठधर्मी में वृद्धि न हो और ईश्वर के मार्ग से उनकी दूरी बढ़ न जाए।

इसी प्रकार सूरए आराफ़ की आयत संख्या 199 में कहा गया है कि आप क्षमा का मार्ग चुने, भलाई का आदेश दें और अज्ञानी लोगों से दूर रहें और इसी प्रकार सूरए मायदा की आयत क्रमांक 13 में कहा गया है कि और उनको क्षमा कर दें और उनके पापों को माफ़ कर दें कि ईश्वर भलाई करने वालों को पसंद करता है।

जितनी भी आयत हमने बयान की हैं कि सभी में इस्लामी प्रेम, स्नेह, कृपा व दया को सिद्ध किया गया है और यह सारी आयतें इस वास्तविकता को दर्शाती हैं कि इस्लाम ने सत्य का निमंत्रण देने के लिए लोगों के सामने तर्क पेश किया है और हिंसा व झड़पों से बचने का आदेश दिया है। इस्लाम तर्क का धर्म है और यह एक ऐसा धर्म है जो संधि, शांति, सहयोग और लोगों के हित की सलाह देता है । इस आधार पर जहां तक संभव हो तर्क और लोगों का उच्च विचारों की ओर मार्गदर्शन करके अपने लक्ष्यों को पूरा करना चाहिए । इस्लाम का इसके अतिरिक्त कोई और लक्ष्य नहीं है कि सत्य और वास्तविकता अपने स्थान पर स्थापित हो जाए और लोग अपने स्वाभाविक अधिकार और स्वतंत्रता से लाभप्रद हों। इस्लाम धर्म में युद्ध की अनुमति तभी दी गयी है जब युद्ध करने के अतिरिक्त कोई और मार्ग न हो और तर्क व प्रेमपूर्ण व्यवहार प्रभावी न हो। इसी स्थिति में युद्ध का आदेश दिया गया है और इसके लिए भी विशेष नियम व सिद्धांत हैं। पैग़म्बरे इस्लाम भी युद्ध के दौरान इन्हीं नियमों व सिद्धांतों पर कटिबद्ध रहते थे, इस विषय पर अधिक चर्चा अगले कार्यक्रमों करेंगे।

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