कर्बला.... आँसू और याद

कर्बला.... आँसू और याद

कर्बला की अभूतपूर्व घटना की अलग व अनूठी विशेषताए हैं जिन्हें गुज़रते हुए काल और समय नहीं भुला सके हैं।  अत्याचार और बरबरता के मुक़ाबले में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके साथियों की वीरता तथा साहस की याद हर स्वतंत्रताप्रेमी को प्रभावित कर देती है।

६१ हिजरी क़मरी में कर्बला के मरूस्थल में जो घटना घटी वह ७२ व्यक्तियों की एक छोटी सी सेना की कम से कम ३० हज़ार सिपाहियों वाली यज़ीदी सेना से एक असमान जंग थी।  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके साथी इस युद्ध में शहीद कर दिये गए और विदित रूप से उनका सत्यवादी आन्दोलन कुचल दिया गया किंतु इस आन्दोलन का भविष्य अत्यंत उज्जवल और फलदायक सिद्ध हुआ।  जैसाकि आप देख रहे हैं कि शताब्दियां व्यतीत हो जाने के बावजूद इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का यह आन्दोलन न केवल मुसलमानों बल्कि संसार के सभी स्वतंत्रताप्रेमियों के लिए प्रेरणादायक बना हुआ है।  इतिहास में देखा गया है कि जब भी न्याय, स्वतंत्रता और मानवीय मूल्यों की रक्षा नहीं की गई तो समय के साथ-साथ उनकी विशेषताओं और सदगुणों को भुला दिया गया।  इस परिस्थिति में भ्रष्ट और दिगभ्रमित तत्व हर प्रकार के अत्याचार और भ्रष्ट काम करने के लिए स्वतंत्र हो जाते हैं और उन्हें खुली छूट मिल जाती है।  इमाम हुसैन ने एसे ही ख़तरों का आभास करके उस काल के समाज पर राज करने वाले शासक के विरुद्ध अपनी आवाज़ उठाई और उसका मुक़ाबला किया।  यज़ीद के शासनकाल में भेदभाव, हिंसा अंधा अनुसरण और जातिवाद अपने चरम पर पहुंच गया था।  यज़ीद ने अपने अवैध शासन का इमाम हुसैन से समर्थन प्राप्त करने के लिए हिंसा और शक्ति का प्रयोग किया और यह उसकी स्वार्थपूर्ण नीति का स्पष्ट उदाहरण है।  यज़ीद इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से अपने अवैध शासन का समर्थन प्राप्त करके जनता में इमाम की लोकप्रियता को कम करना चाहता था किंतु इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम, यज़ीद जैसे भ्रष्ट व्यक्ति का समर्थन करने के लिए किसी भी परिस्थिति में तैयार न थे।  जब इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से एसा करने को कहा गया तो आपने कहा कि जब यज़ीद जैसा व्यक्ति समाज का शासक बन जाए तो हमे समझ लेना चाहिए कि इस्लाम का सदा के लिए अंत हो रहा है इमाम हुसैन जानते थे कि यज़ीद की दृष्टि में धर्म का तनिक भी महत्व नहीं है और वह धर्म के नाम पर अपने अवैध कार्यों को वैध बनाना चाहता है।  इसी कारण इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने इस्लाम धर्म की वास्तविकता की रक्षा के लिए कमर कस ली।  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के समक्ष एक और ज़िम्मेदारी लोगों को उदासीनता से निकालकर सम्मानपूर्ण जीवन प्राप्त करने और अपमान को स्वीकार न करने की भावनाओं को जीवित करना था।  इमाम हुसैन मनुष्य की स्वतंत्रता और उसके सम्मान पर अत्यधिक बल देते और लोगों को यह सीख देते थे कि कदापि वर्चस्व को स्वीकार न करें और केवल ईश्वर के आदेशों का पालन करें।  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को इस बात पर विश्वास था कि सम्मानपूर्ण मृत्यु, अपमानजनक जीवन से बेहतर है।  आजका मनुष्य इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के इस संदेश को अच्छी तरह समझ रहा है।  वह समझ गया है कि राष्ट्रों का जीवन उसी समय सफल हो सकता है कि जब वे स्वतंत्र और स्वाधीन हों और अत्याचारी तथा स्वार्थी शक्तियों के सामने न झुकें।  इमाम हुसैन को उस काल के समाज की असंख्य समस्याओं को देखने के पश्चात यह विश्वास हो गया था कि जनता की न केवल आध्यात्मिक समस्याओं बल्कि उसकी सामाजिक और राजनैतिक समस्याओं का भी व्यापक स्तर पर समाधान करने की आवश्यकता है।  इमाम हुसैन ने लोगों की ज़िम्मेदारियों को उन्हें इस प्रकार से याद दिलाया।  हे लोगो! पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा है कि जो व्यक्ति किसी अत्याचारी शासक को देखे कि वह ईश्वरीय नियमों में फेरबदल कर रहा है, सत्य को असत्य और असत्य को सत्य बना रहा है, ईश्वर से अपने वचन को तोड़ रहा है और जनता पर पाप व अत्याचार द्वारा शासन कर रहा है और फिर भी उसे कुछ न कहे, उसका विरोध न करे तो परलोक में उस व्यक्ति को उसी अत्याचारी शासक के संग ही उठाया जाएगा और उसको उसी अत्याचारी के साथ दंड दिया जाएगा।  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को यह ज्ञात था कि थोड़े से साथियों के साथ एक बड़ी सेना पर विदित रूप से विजय प्राप्त नहीं की जा सकती किंतु इमाम हुसैन जैसे महान व्यक्ति और ईश्वरीय दास के निकट जीत तथा हार का कोई अर्थ नहीं था।  जो व्यक्ति ईश्वर पर भरोसा करता है उसकी दृष्टि में जीत का अर्थ अपने कर्तव्य को पूरा कर देना होता है।  इमाम हुसैन ने इसी दृष्टिकोण के आधार पर उमवी शासकों के अत्याचारों और भ्रष्टाचार के विरूद्ध उठ खड़े होने का संकल्प कर लिया।  इमाम हुसैन ने एक जागरूक सुधारक के रूप में अपने काल की परिस्थितियों को अच्छी तरह से देखा था और इसी ज्ञान के आधार पर उन्होंने एक ठोस और गंभीर आन्दोलन आरंभ किया।

इमाम हुसैन ने अपने उद्देश्य की प्राप्ति और मानवता की रक्षा के लिए अपना घर छोड़ दिया और अपने परिजनों के संग अमिट इतिहास रचने के लिए एक लंबी यात्रा आरंभ की।  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ज़िलहिज्जा की ८ तारीख़ को कि उस समय मक्का छोड़कर कूफ़े की ओर निकल पड़े जब हज यात्री हज करने में व्यस्त थे और अराफ़ात व मिना की ओर जा रहे थे।  इमाम हुसैन के इस क़दम ने उमवी शासकों की राजनैतिक व्यवस्था को भारी आघात पहुंचाया।

दोपहर का समय था।  घूप बहुत गर्म और बहुत तेज़ थी।  आने वाली घटनाओं की तीव्रता का प्रभाव इमाम हुसैन के चेहरे पर पूरी तरह पड़ रहा था।  इस कठिन मार्ग में तेज़ी से यात्रा करना बहुत कठिन और थका देने वाला काम था।  एसी स्थिति में घोड़े पर चलते-चलते नींद आ जाना स्वाभाविक था।  अचानक इमाम हुसैन नींद से चौंके और पवित्र क़ुरआन की यह आयत पढ़ी।  इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजेऊन।  इसका अर्थ है हम सभी लोग ईश्वर के लिए हैं और उसी की ओर लौट कर जाएंगे।  यह शब्द सुनकर इमाम हुसैन के सुपुत्र हज़रत अली अकबर ने, जो अपने पिता के बिल्कुल निकट थे, चिंतित होकर अपने पिता की ओर देखा और पूछा बाबा आपने यह वाक्य क्यों दोहराया?  यह तो मृत्यु के समय दोहराया जाता है।  इमाम हुसैन ने उत्तर दिया कि यह कारवान मौत की ओर आगे बढ़ रहा है।  हज़रत अली अकबर ने जब अपने पिता की यह बात सुनी तो पूछा कि बाबा क्या हम सत्य के मार्ग पर नहीं हैं?  इमाम हुसैन ने कहा क्यों नहीं।  बेटा उस ईश्वर की सौगंध जिसकी ओर सबको लौट कर जाना है हम सत्य के मार्ग पर हैं।  हज़रत अली अकबर ने उत्तर दिया तो फिर हमें मौत से क्या डरना?  चाहे मौत हमपर आ पड़े या फिर हम मौत पर जा पड़ें।  पैग़म्बरे इस्लाम और हज़रत अली के घराने के एक युवा सदस्य से एसे ही उत्तर की अपेक्षा थी।  हज़रत अली अकबर के यह शब्द जहां उनके पिता इमाम हुसैन के लिए एक अनमोल उपहार समान थे वहीं स्वयं उनके ईमान का दर्पण थे।

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का कारवान तेज़ी के साथ जंगलों और मरूस्थलों में अपनी यात्रा जारी रखे हुए था और दूसरी ओर बनी हाशिम के युवक जो इस कारवान में शामिल थे और जिन्होंने बाप और बेटे की बातचीत सुन ली थी, एक दूसरे को शहादत की शुभ सूचना दे रहे थे क्योंकि इमाम हुसैन के संग, जो स्वर्ग के युवाओं के सरदार थे, शहादत पाना सभी की हार्दिक इच्छा थी।

दसवीं मुहर्रम अर्थात आशूर के दिन जब इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के मित्र और साथी अपनी परीक्षा में सफल होकर शहादत के पद पर आसीन हो चुके थे तो हज़रत अली अकबर अपने पिता की सेवा में उपस्थित हुए और उनसे रणक्षेत्र में जाने की अनुमति मांगी।  स्थिति अत्यंत कठिन थी।  अपने काल का सबसे सुन्दर और बहादुर जवान अपने भौतिक जीवन को नकार कर परलोक बसाने की इच्छा में अपने पिता के समक्ष खड़ा था ताकि क्रूर और निर्दयी शत्रुओं से युद्ध करके शहादत को गले लगाए।  इमाम हुसैन ने बड़ी ही कठिनाई से अपने उस बेटे को रणक्षेत्र में जाने की अनुमति दी जिसकी सूरत और पवृत्ति दोनों ही पैग़म्बरे इस्लाम के समान थी।  जब हज़रत अली अकबर अपने पिता से अनुमति लेकर युद्ध के लिए जाने लगे तो इमाम हुसैन ने लशकर की ओर देखा और कहा हे ईश्वर तू गवाह रहना मैंने अपने एक एसे पुत्र को रणक्षेत्र में भेजा है जो सूरत और सीरत में तेरे पैग़म्बर जैसा है।  जब कभी मुझे अपने नाना और तेरे प्रिय पैग़म्बर के दर्शन की इच्छा होती थी तो मैं अली अकबर को देख लिया करता था।  हज़रत अली अकबर रणक्षेत्र में गए और शत्रुओं से इस प्रकार युद्ध किया कि कम से कम २०० यज़ीदी सिपाहियों को नरक पहुंचाया और शत्रुओं को अपने दादा हज़रत अली की वीरता की याद दिला दी।  युद्ध करते-करते हज़रत अली अकबर को एक बार और अपने पिता के दर्शन करने की इच्छा हुई।  रणक्षेत्र से पलटे और बहुत ही सम्मान के साथ इमाम के सामने खड़े हुए और कहा कि हे बाबा! प्यास ने मुझे मार डाला और तलवार चलाते-चलाते मैं थक गया हूं।  यदि पानी का एक घूंट मिल जाता तो मुझमे शक्ति फिर से पलट आती।  इमाम हुसैन के लिए यह समय बड़ा कठिन था।  १८ वर्ष की आयु में पहली बार पिता से कुछ मांगा था और हुसैन इस फ़रमाइश को पूरा करने में असमर्थ थे।  हज़रत अली अकबर पुनः रणक्षेत्र में आए और फिर उसी प्यास के साथ युद्ध आरंभ कर दिया।  अंततः एक शत्रु ने धोखे और षडयंत्र से हज़रत अली अकबर के सीने पर दूर से एक भाला मारा और फिर आप घोड़े पर संभल न सके और धरती पर आगए।  इतिहास साक्षी है कि बेटे ने पिता को सहायता के लिए नहीं पुकारा बल्कि अन्तिम सलाम किया क्योंकि अली अकबर जानते थे कि अब बूढ़े बाप की आखों में अंधियारा छा गया होगा और जवानों मे कोई बचा भी नहीं है जो बूढे बाप को मरते हुए बेटे कि सिरहाने ला सके।  परन्तु हुसैन ने सेनाओं के बीच से रास्ता बनाकर स्वयं को अली अकबर के निकट पहुंचा दिया।  शायद यह कहना चाहते थे कि बेटा मैं आ गया हूं ताकि कुछ क्षणों के लिए ही सही तुम्हे जीवित देख तो लूं।

नई टिप्पणी जोड़ें