हज़रत अली असग़र (नौहा)
हज़रत अली असग़र (नौहा)
जब हुआ हल्क़े अली असग़र निशाना तीर का
और शाहेदीं दफन लाशा कर चुके बेशीर का
आके ख़ेमों में किया सब बीबियों से यह खि़ताब
अब जहाँ में कोई भी मूनिस नहीं शब्बीर का
तुम सबों को हक़ तआला की हिफाज़त में दिया
ध्यान रखना बाद मेरे आबिदे दिलगीर का
कै़द इस बीमार को आदा करेंगे मेरे बाद
क़हर होगा बार उठाना तौक़ और ज़ंजीर का
दुर सकीना के उतारेंगे तँमाचें मारकर
और कोई मूनिस न होगा दुखतरे शब्बीर का
हाय नन्हा सा गला रस्सी से बाधेंगे शरीर
हाल क्या उस वक्त होगा बेकसों दिलगीर -का
गर कोई पूछेगा उनसे तुम सबों का हाले ज़ार
तो कहेंगे है यह कुनबा शाहे खैबर गीर का
सब्र करना हर मुसीबत पर तुम्हें हक़ की क़सम
मिट नहीं सकता मिटाए से लिखा तक़दीर का
देर होती है खुदा हाफिज सलामे आखि़री
अब बहुत मुशताक़ हूँ मैं शिम्र की शमशीर का
ख़ूँ के आँसू अब क़लम रोता है बस एै 'फिक्र' बस
फिर गया आँखों में नक्शा रोज़ए शब्बीर का
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