बक़्रईद

बक़्रईद

हम अपने पाठकों को मुसलमानों की ईद के इस शुभ अवसर पर हार्दिक भधाई प्रस्तुत करते हैं।

ज़िलहिज महीने की दसवीं तारीख़ को ईदुल अज़हा मनाई जाती है जिसे बक़रीद भी कहा जाता है।  यह मुसलमानों की दूसरी बड़ी ईद है।  आज का दिन ईश्वर की प्रसन्नता की प्राप्ति के लिए ईश्वरीय दूत हज़रत इब्राहीम के त्याग और उनके सुपुत्र इस्माईल के दृढ़ ईमान की याद दिलाता है।  दूसरे शब्दों में ईदुल अज़हा, सांसारिक मायामोह से स्वतंत्र होने के अर्थ में है।

वास्तव में बक़रीद ईश्वर के सम्मुख पूर्ण रूप से नतमस्तक होने का दिन।  आज के दिन मनुष्य अपने ईश्वर के लिए, उसके अतरिक्त हर वस्तु को त्यागता है ताकि उसे ईश्वर की वास्तविक बंदगी प्राप्त हो सके।  बक़रीद का दिन वह दिन है जब हज करने वाला हज के संस्कार पूरा करने के धन्यवाद तथा शैतान के साथ युद्ध में विजय पर सांसारिक एवं आंतरिक संबन्धों को विच्छेद करता है और इस महान दिन उत्सव मनाता है। इस शुभ अवसर पर हमारी ओर से हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए।

    ईश्वर के महान दूत हज़रत इब्राहीम ने स्वप्न में देखा था कि वे अपने प्रिय पुत्र की ईश्वर के मार्ग में क़ुर्बानी कर रहे हैं।  इस सपने को उन्होंने तीन बार देखा।  कई बार इस सपने को देखने के पश्चात हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम समझ गए कि अपने पुत्र के प्रेम और ईश्वर के सामिप्य के मध्य उन्हें अपने पुत्र की क़ुर्बानी देनी चाहिए।  इसी उद्देश्य से उन्होंने ईश्वरीय आदेश को लागू करने का दृढ़ संकल्प किया।  दृढ़ संकल्प को व्यावहारिक बनाने के लिए प्रथम चरण यह था कि इस बात को वे अपने सुपुत्र को बताते।  इसी उद्देश्य से उन्होंने अपने सुपुत्र इस्माईल को संबोधित करते हुए कहा कि हे मेरे पुत्र मैंने स्वप्न में देखा है कि तुमको ज़िबह कर रहा हूं।  इस संबन्ध में तुम्हारा क्या विचार है?  हज़रत इस्माईल ने, जो अपने पिता हज़रत इब्राहीम की ही भांति ईश्वर के प्रेम में डूबे हुए थे, कहा कि हे मेरे पिता! आपको जो कुछ आदेश दिया गया है उसे कर डालिए। 

अल्लाह ने चाहा तो आप मुझे धैर्यवान पाएँगे।  ईश्वर के प्रति इस अथाह लगाव ने शैतान को बौखलाहट में डाल दिया अतः उसने इस ईश्वरीय आदेश को प्रभावहीन बनाने के लिए अपने प्रयास आरंभ कर दिये।  अपनी योजना को क्रियान्वित करने के उद्देश्य से शैतान कभी तो पुत्र के पास गया तो कभी पिता के पास और कभी माता के पास किंतु तीनों में से किसी ने उसकी एक न सुनी।  इस प्रकार से अपने प्रयासों में उसे विफलता हाथ लगी।  इस्लामी इतिहास के अनुसार शैतान पहले तो हज़रत इब्राहीम के पीछे गया।  जब वह उस स्थान पर पहुंचा जो मक्के के निकट मिना में जमरए अव्वल के नाम से प्रसिद्ध है तो हज़रत इब्राहीम ने सात पत्थर मारकर उसे स्वयं से दूर कर दिया।  जब हज़रत इब्राहीम उस स्थान पर पहुंचे जिसे जमरए सानी कहा जाता है तो उन्होंने शैतान को पुनः देखा।  इस बार भी उन्होंने शैतान को सात पत्थर मारकर फिर स्वयं से दूर किया और फिर जमरए अक़बह नामक स्थान पर भी उन्होंने यही काम किया।  अंततः अब बहुत ही संवेदनशील क्षण आ पहुंचा था।  कृपालु पिता ने अपने सुपुत्र को ज़मीन पर लिटाया और इस्माईल के गले पर चाक़ू फेरना आरंभ किया किंतु धारदार चाक़ू उनके गले पर नहीं चला।  इससे हज़रत इब्राहीम को बहुत ही आश्चर्य हुआ।  इसके बाद उन्होंने उसी चाक़ू को अपने पुत्र के गले पर और तेज़ी से चलाया।  निष्ठा के इस अदभुत दृश्य को ईश्वर के फ़रिश्ते बहुत ही आश्चर्य से देख रहे थे।  इसी बीच ईश्वर की ओर से आवाज़ आई।  हे इब्राहीम! तुमने अपने स्वप्न को साकार कर दिखाया।  निःसन्देह हम, भले लोगों को इसी प्रकार का पारितोषिक देते हैं।  इसी मध्य ईश्वर ने एक भेड़ भेजी ताकि इब्राहीम अपने पुत्र इस्माईल के स्थान पर उसकी क़ुरबानी करें।

इब्राहीम का बलिदान स्थल हमें ईश्वर के आज्ञापालन का पाठ सिखाता है।  ईश्वर जिस बात का भी आदेश दे उसे उसके दास को बिना किसी हिचकिचाहट के पूरा करना चाहिए।  एक पिता को यह आदेश दिया जाता है कि वह अपने प्रिय सुपुत्र को ज़िब्ह करे।  यह कार्य, ईश्वर के सम्मुख हज़रत इब्राहीम के पूर्ण रूप से नतमस्तक होने और ईश्वर के अतिरिक्त हर एक को त्यागने के अर्थ में है।  अपने सुपुत्र हज़रत इस्माईल को ज़िब्ह करने के विषय को हज़रत इब्राहीम बहुत ही सुन्दर ढंग से बयान करते हैं और इस बारे में उनके विचार जानना चाहते हैं।  वास्तव में वे यह चाहते हैं कि उनका बेटा भी इच्छाओं के विरूद्ध इस महासंघर्ष में भाग ले और अपने पिता की ही भांति ईश्वर की इच्छा प्राप्ति का स्वाद चखे।

दूसरी ओर पुत्र भी यह चाहता है कि उसके पिता अपने संकल्प पर अडिग रहें।  इस्माईल अपने पिता से यह नहीं कहते हैं कि आप मुझको ज़िब्ह कर दीजिए बल्कि वे कहते हैं कि आपको जो भी आदेश दिया गया है उसे बिना हिचकिचाहट के पूरा कीजिए।  मैं ईश्वर के आदेश के सम्मुख पूर्ण रूप से नतमस्तक हूं।  इस प्रकार हज़रत इस्माईल ईश्वर की इच्छा को सहृदय स्वीकार करते हैं और उसपर भरोसा करते हैं तथा उससे संकल्प पर बाक़ी रहने की प्रार्थना करते हैं।

मिना में क़ुरबानी करने से पूर्व हाजी स्वयं को प्रेम के बलिदान स्थल ले जाता है और अपनी इच्छाओं को त्याग देता है।  ईश्वर सूरए हज की आयत संख्या ३७ में कहता है कि न उनका माँस अल्लाह तक पहुँचता है और न ही उनका रक्त बल्कि जो कुछ उस तक पहुंचता है वह तुम्हारा तक़वा या ईश्वरीय भय है।  इस आधार पर इस कार्य का जो लाभ है वह केवल हाजी को ही पहुंचता है और वह है ईश्वरीय भय या कर्तव्यपरायणता।  ईश्वरीय भय हाजी के निष्ठावान हृदय को शांति पहुंचाता है तथा उसकी आत्मा को शुद्ध करता है।  इस संबन्ध में इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैं कि क़ुरबानी देते समय तुम अपनी हवस और लालच की रगें काट दो।  उनके इस कथन में उल्लेखनीय बिंदु यह है कि इसमें लालच को गला बताया गया है।  अर्थात क़ुर्बानी के समय लालच के गले को इस प्रकार से काटना चाहिए कि वह सदा के लिए समाप्त हो जाए।  संभवतः इसीलिए क़ुर्बानी में सबसे महत्वपूर्ण छिपी हुई चीज़ तक़वा अर्थात ईश्वरीय भय है जिसके कारण ईदुल अज़हा  को हज्जे अकबर या महाहज कहा गया है और ईश्वर के घर के दर्शनार्थी जब बहुत सी कठिनाइयों को सहन करके और सांसारिक सुखों को त्यागते हुए अपने गंतव्य पर पहुंचते हैं तो वे ईदे क़ुरबान को बड़े उत्साह से मनाते हैं।

हज के प्रत्येक संस्कार में कोई न कोई रहस्य छिपा हुआ है जिसका उद्देश्य मनुष्य और उसकी आत्मा का प्रशिक्षण करना है।  हज का हर एक संस्कार चाहे वह सफेद कपड़े पहनना हो या दूसरे अन्य संस्कार हों वे सबके सब मनुष्य की आत्मा के शुद्धिकरण और उसे उच्चता प्रदान करने के उद्देश्य से हैं।  क़ुर्बानी करने के पश्चात हज करने वाले के लिए आवश्यक है कि वह अपने सिर के बाल मुंडवाए या थोड़े से नाख़ून काटे।  यद्यपि सिर के बाल मनुष्य की सुन्दरता के लिए हैं और इस्लामी क़ानून में भी बताया गया है कि यदि कोई व्यक्ति किसी के सिर के बाल बल पूर्वक काटे तो उसने उसकी सुन्दरता को क्षति पहुंचाई है और एक ग़लत काम किया है अतः उसे इसके लिए दंड भरना होगा किंतु हाजी जब मिना के बलिदान स्थल से वापस आता है तो उसे अपने सिर के बाल मुंडवाने होते हैं और अपनी विदित सुन्दरता को ईश्वर के मार्ग में न्योछावर करना होता है।  वास्तव में वह घमण्ड को नकारता है और पुनः ईश्वर के घर मक्के की ओर वापस जाता है।

ईश्वर के घर के किनारे खड़े होकर हाजी इस प्रकार से अपने विचार व्यक्त करता है।  हे ईश्वर! यह घर तेरा घर है और यह हरम तेरा हरम है और यह तेरा तुच्छ दास है जो स्वयं से तथा अपने पापों से अलग होकर तेरी शरण में आया है।  हाजी जिस समय पवित्र काबे की परिक्रमा करता है तो मानो वह यह समझता है कि इस समय संसार में हर वस्तु परिक्रमा कर रही है।  मानो उसके कानों में यह आवाज़ पड़ती है कि हे मनुष्य, तू अपने आत्मकेन्द्र से निकलकर ईश्वर की पहचान के केन्द्र में आ जा क्योंकि जिसने भी स्वयं को पहचान लिया वह अपने ईश्वर को पहचान लेगा।  वास्तव में हज के संस्कार एसे व्यापक उदाहरण हैं जो मनुष्य को आध्यात्मिक सैर कराते हुए परिपूर्णता के उच्च शिखर की ओर ले जाते हैं।  इस प्रकार हज, ईश्वर के घर की परिक्रमा से आरंभ होता है और परिक्रमा पर ही समाप्त होता है।

पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पौत्र इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम ने बक़रईद या ईदुल अज़हा के लिए बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रार्थना प्रस्तुत की है जिसमें ईश्वर की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए प्रार्थनाओं को स्वीकार करने वाले से अपनी भी कुछ प्रार्थनाएं की गई है और इसे पूर्ण निष्ठा के साथ पढ़ा गया है।  इस दुआ के अनुवाद का सारांश आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं।  हे ईश्वर, आज बहुत ही महत्वपूर्ण दिन है और एकेश्वर के दास आज के दिन तेरी शरण में एकत्रित होते हैं।  यह लोग संसार के विभिन्न क्षेत्रों से यहां पर एकत्रित होते हैं।  सब तुझ से ही मांगते हैं और सभी ने तेरी ओर अपने हाथ फैलाए हैं।  सब तेरी कृपा के प्रति आशान्वित और तेरे क्रोध से भयभीत हैं।  एसी स्थिति में तू उनकी ओर देख और उनकी प्रार्थना को स्वीकार कर।  हे ईश्वर तू मुहम्मद और उनके परिजनों पर सलाम भेज तथा हमको अपने इन ईमान वाले बंदों की दुआओं में सहभागी बना जो आज तुझसे प्रार्थना कर रहे हैं।

हे सृष्टि के पालनहार मैं अपनी आवश्यकताओं को तेरी शरण में लाया हूं और मैं अपनी निर्धन्ता तथा समस्याओं को तेरे सामने प्रस्तुत कर रहा हूं।  हे ईश्वर, जिसकी कृपा बहुत ही व्यापक और क्षमा बहुत महान है।  हे महान ईश्वर, मुहम्मद और उनके परिजनों पर सलाम भेज और अपनी अनुकंपाओं को हम तक भेज तथा हमें क्षमा कर दे।

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