हज़रत अली और हज़रत फ़तेमा का विवाह

हज़रत अली और हज़रत फ़तेमा का विवाह

पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद (स) की सुपुत्री हज़रत फ़ातेमा (स) एवं उनके दामाद हज़रत अली (अ) के विवाह की वर्षगांठ के अवसर पर एक विशेष चर्चा में हम घर में महिलाओं के काम के संबंध में इस्लाम व पश्चिम के विचारों में अंतर पर प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे

     परिवार, समाज की एक अत्यंत महत्वपूर्ण इकाई है। एक व्यक्ति व समाज के प्रशिक्षण, प्रगति और कल्याण के संबंध में इस इकाई की महत्वपूर्ण भूमिका है। चूंकि इस्लाम, विवाह और घराने के गठन को विशेष महत्व देता है इस लिए पहली ज़िल्हिज्जा को जो, हज़रत फ़ातेमा एवं हज़रत अली (अ) के विवाह की वर्षगांठ का दिन है, विवाह और घराने का नाम दिया गया है। यह दिन, इन दो महान हस्तियों को आदर्श बनाए जाने की आवश्यकता व महत्व पर बल देता है। हज़रत फ़ातेमा एवं हज़रत अली (अ) के वैवाहिक जीवन में एक सफल जीवन के लिए पति पत्नियों के लिए अनेक आदर्श बिंदु हैं। उदाहरण स्वरूप एक अच्छे जीवन के लिए महिला का सबसे पहला दायित्वत, घराने के आधारों को सुदृढ़ बनाने हेतु घर व पति के कामों को सही ढंग से अंजाम देना है। घर व समाज के काम का बंटवारा यदि सही ढंग से न हो तो समाज में समस्याएं खड़ी हो जाएंगी जैसा कि आज पश्चिमी समाज को महिलाओं की भूमिकाओं विशेष रूप से घराने में उनकी कम से कम उपस्थिति के संकट का सामना है।

     आज पश्चिमी समाजों में घर में महिला के काम और इसी प्रकार माता व पत्नी के रूप में उसकी भूमिका को दूसरे दर्जे की और आंशिक भूमिका समझा जाता है। इन समाजों में घर से बाहर महिला की नौकरी पर इतना अधिक ध्यान दिया जाता है कि इसे महिला की पहली भूमिका और सबसे महित्वपूर्ण दायित्व के रूप में प्रस्तुत किया जाता है किंतु इस्लाम में महिला के स्थान को निर्धारित करने वाले मानक, जो कुछ पश्चिम में हो रहा है, उससे भिन्न हैं। घर का संचालन एक अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य है जिस पर यदि गंभीरता से ध्यान दिया जाए तो यह पूरे परिवार के लिए एक सुखद व संपन्न जीवन उपलब्ध करा सकता है। इसके बावजूद अब भी कुछ देशों विशेष कर पश्चिम में, घर के संचालन और घराने के सदस्यों को शांति प्रदान करने में महिलाओं की भूमिका के महत्व को समझा नहीं गया है।

    

     पश्चिम में महिलाओं पर वर्षों तक अत्याचार होता रहा है। पश्चिमी समाजों में महिलाओं के बारे में कभी भी संतुलित विचार नहीं रहे हैं। प्राचीन काल, मध्य युगीन शताब्दियों और पुनर्जागरण के काल में पश्चिमी दर्शन के इतिहास का अध्ययन करने से पता चलता है कि पश्चिम में महिला को एक तुच्छ, हीन, पुरुष के आज्ञा पालक और केवल उसकी सेवा करने वाले जीव के रूप में देखा जाता था। दूसरे शब्दों में वह एक नौकरानी की भांति घर में कठिन कार्य किया करती थी। प्राचीन यूनान में तो महिलाओं के संबंध में बड़े बुरे शब्दों का प्रयोग होता था और उसे अपूर्ण व मर्द के अधीन जीव के रूप में याद किया जाता था। यूनान के प्राचीन कवि हूमर का कहना था कि महिलाओं का दायित्व केवल बच्चा जनना और घर का काम करना है। यूनान के प्रख्यात दार्शनिक अरस्तू की दृष्टि में भी महिलाएं दासों की श्रेणी में, पुरुषों की सेवा करने के लिए पैदा की गई हैं। पुनर्जागरण के काल में भी महिलाओं की स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया। इस काल में उच्च वर्ग की महिलाओं को छोड़ कर लगभग सभी महिलाएं, विवाह का जोड़ा पहनते ही घर के भारी कामों का दायित्व संभालने और बहुत अधिक कठिनाइयां सहन करने पर विवश होती थीं और मरते दम तक इसी स्थिति में रहती थीं जबकि उन्हें मामूली से अधिकार भी प्राप्त नहीं होते थे।

     फ़ेमिनिज़्म या नारीवाद आंदोलन का उदय, महिला पर पश्चिम के ऐतिहासिक अत्याचार का उत्तर था किंतु यह आंदोलन भी महिलाओं की भूमिका के संबंध में संतुलन स्थापित करने में सफल नहीं हो सका और या कमी या अतिशयोक्ति का शिकार हो गया क्योंकि इसने घर तथा घर-बार से महिलाओं की स्वतंत्रता के बहाने उनकी स्वाभाविक एवं प्राकृतिक विशेषताओं के विरुद्ध संघर्ष किया। नारीवाद की एक अतिशयोक्ति यह है कि वह हर बात से पहले घर में महिला के काम करने को नकारात्मक दृष्टि से देखता है। यहां तक कि नारीवाद के संतुलित क्रियाकलाप में भी यद्यपि महिला द्वारा घर के कामों के संचालन को एक वास्तविक कार्य समझा जाता है किंतु इसे सकारात्मक दृष्टि से नहीं देखा जाता। कुछ नारीवादियों का कहना है कि घर के काम, पुरुषों की सेवा और उनके हितों की रक्षा के परिप्रेक्ष्य में हैं जबकि यदि घर में महिला का काम सही व निर्धारित सिद्धांतों के आधारपर हो तो वस्तुतः यह घराने के सभी सदस्यों की ख़ुशी हेतु स्वेच्छा से भूमिका निभाने के समान है और स्वयं महिला के हित में है।

     नारीवाद की विचारधारा में घर का काम-काज, घर से बाहर के कामों तथा सामाजिक गतिविधियों हेतु महिलाओं की मार्ग की मुख्य रुकावट है। अमरीका की प्रख्यात नारीवादी बेटी फ़्रीडैन लिखती हैं कि पिछली कई शताब्दियों में पुरुषवाद की विचारधारा ने इस बात का प्रयास किया कि घर रहने को एक रोमांटिक कार्य दर्शाए और स्त्री को घर, स्कूल, संचार माध्यम और इसी प्रकार के अन्य साधनों से यह सिखाए कि उसे कृपालु और आज्ञापालक होना चाहिए तथा गुड़ियों व बर्तनों जैसे खिलौनों से खेल कर स्वयं को माता व पत्नी तथा कुल मिला कर एक घरेलू औरत की भूमिका निभाने के लिए तैयार करना चाहिए।

     पश्चिमी विचारधारा में चूंकि घर में महिला के काम के मूल्य की सही समझ नहीं है और इसी प्रकार वह महिलाओं के सम्मान का आधार खोज नहीं सकती अतः वह घरेलू महिला को ऐसी दासी समझती है जिसे निशुल्क मर्दों के लिए काम करना चाहिए। यूरोप के समाज शास्त्री एन्थोनी गिडन्ज़ घरेलू काम की परिभाषा, बिना मेहनताने के किसी विशेष कार्य की परिधि से बाहर किए जाने वाले काम के रूप में करते हैं। फ़्रान्स की नारीवादी क्रिस्टीन डेल्फ़ी का मानना है कि मज़दूर अपनी श्रम शक्ति को बचेता है जबकि विवाहित महिला अपनी श्रम शक्ति निशुल्क प्रस्तुत करती है। वे इस कार्य को एक प्रकार की दासता बताती हैं।

     पश्चिम में नारीवाद के प्रसार के पश्चात विवाह, मातृत्व और घरेलू बंधनों को बुरा समझे जाने, महिलाओं को घर से बाहर काम करने के लिए व्यापक रूप से प्रोत्साहित करने, पढ़ाई व रोज़गार में पुरुषों से मुक़ाबला करने और पुरुषवाद से संघर्ष करने जैसी बातें अधिक तेज़ी से फैलने लगीं। इस संबंध में शूलामिथ फ़ायरस्टोन जैसी अतिवादी नारीवादियों ने मातृत्व व प्रसव जैसी प्राकृतिक विशेषताओं और घरेलू काम के कारण महिलाओं को तुच्छ बताया है। वे प्रस्ताव देती हैं कि महिलाओं को इस तुच्छता से बचने के लिए मातृत्व और एक माता के कांधों पर डाले जाने वाले दायित्वों से मुक्त हो जाना चाहिए।

     फ़्रान्स की नारीवादी सिमोन डे बोइवोयर घरेलू काम को सिज़ेफ़ का कार्य बताती हैं। प्राचीन यूनानी कहानियों में सिज़ेफ़ एक ऐसा चरित्र था जिसे देवताओं का रहस्य खोलने और ज़ेओस नामक देवता का अनादर करने के कारण आजीवन दंड दिया गया था। वह अपने कांधों पर पत्थर का एक तख़्ता उठा कर उसे एक पहाड़ की चोटी तक ले जाने के लिए विवश था। वह जैसे ही चोट पर पहुंचता था वह पत्थर नीचे लुढ़क जाता था और सिज़ेफ़ को पुनः यह काम करना पड़ता था। घर के काम को सिज़ेफ़ के कार्य की उपमा देने का मतलब यह है कि यह काम बार-बार दोहराया जाने वाला और मूल्यहीन है। डे बोइवोयर भी इस बात पर बल देते हुए कि घर में महिला के काम का समाज के लिए कोई प्रत्यक्ष लाभ नहीं है, यह कहती हैं कि चूंकि घर में महिला के काम से किसी भी वस्तु का उत्पादन नहीं होता अतः घरेलू औरत, हीन और द्वितीय श्रेणी की है।

     सत्तर के दशक में इस बात का प्रयास किया गया कि पूंजीवादी व्यवस्था में घर के कामों का स्थान निर्धारित किया जाए। पहले चरण में यह प्रयास, घरेलू काम और पूंजी के बीच संबंध को ध्यान में रख कर किया गया। मार्क्सवादियों ने एक ऐसा दृष्टिकोण प्रस्तुत करने का प्रयास किया कि जो घरेलू काम को स्पष्ट करने में सक्षम हो। वामपंथी नारी वादी वाली सिकोम्ब का कहना था कि घरेलू काम भी एक काम है और इस पूंजीवादी व्यवस्था में उत्पादन का एक आयाम समझा जाना चाहिए क्योंकि यह पूंजीवादियों को इस बात का अवसर प्रदान करता है कि वह मर्दों के श्रम बल का अधिक प्रयोग करें और इस प्रकार अधिक उत्पादन करें। उनका मानना था कि पूंजीवादी व्यवस्था घरेलू काम के बिना विघटित हो जाएगी क्योंकि घरेलू काम, एक निशुल्क सेवा है कि जिसके लिए यदि मेहनताना दिया जाए तो ख़र्चों में वृद्धि हो जाएगी। इस विचारधारा को अनेक समस्याओं का सामना है क्योंकि घर का काम, घर से बाहर के काम के समान नहीं है। घरेलू काम अधिकतर प्रेम व दायित्वबोध के आधार पर किए जाते हैं अतः उसके संबंध भी भिन्न होते हैं।

     अमरीका की प्रख्यात लेखिका व नारीवादी शेरलोट पर्किन्ज़ गिलमैन, महिलाओं के घरेलू कामों को सामाजिकीकरण की परिधि में लाए जाने की पक्षधर थीं। उनके विचार में घरों की पेशेवराना सफ़ाई व अन्य कामों के लिए जो संस्थाएं काम करती हैं वे रसोई, खाने के कमरे और घर के अन्य काम करके महिलाओं के घरेलू कामों को हल्का कर सकती हैं और इस प्रकार महिला पूरे संतोष के साथ घर से बाहर निकल कर सामाजिक व आर्थिक गतिविधियां कर सकती है।

     इस प्रकार से हम देखते हैं कि हम देखते हैं कि महिलाओं की भूमिकाओं विशेष कर घरेलू कामों के संबंध में उसकी भूमिका के संबंध में असंतुलित व्यवहार के कारण घराने की इकाई का आधार कमज़ोर पड़ने लगा है किंतु इस्लाम, घर में महिलाओं के काम के संबंध में बौद्धिक व तर्कसंगत दृष्टि रखता है

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