रूहानी और ओबामा की बातचीत से डर गई हैं कुछ हुकूमतें

इन दिनों अमेरिका और ईरान के राष्ट्रपतियों के बीच टेलीफोन पर हुई बातचीत के संदर्भ में दोनों देशों के बीच सम्बंधों में सुधार का अनुमान लगाया जा रहा है। हालांकि इस दौरान कुछ ऐसी हुकूमतें हैं जो इस स्थिति पर गंभीर चिंता से ग्रस्त हैं और इसे पूरी तरह से नकारात्मक दृष्टिकोण से देख रहे हैं।


 टीवी शिया ताबनाक की रिपोर्ट के अनुसार अमेरिकी अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपने एक कॉलम में उन हुकूमतों की समीक्षा है और लिखा है कि इसराइल और खाड़ी देशों के लिए ईरान और अमेरिका के संबंधों में सुधार बिल्कुल ऐसे ही है जैसे किसी का बेहतरीन दोस्त के प्रमुख प्रतिद्वंद्वी को रिझाने लगा हो।
अखबार के अनुसार अगर यह देखा जाए कि यह ईरान को परमाणु हथियार बनाने से रोकने का मामला है तो इससे जितना लाभ उन हुकूमतों को होगा उतना किसी और को नहीं। लेकिन इन देशों का कहना है कि तेहरान और वाशिंगटन के बीच संबंधों में सुधार से ईरान को अपने परमाणु कार्यक्रम को आगे बढ़ाने का मौका मिल जाएगा।
दूसरी ओर एक ऐसा गैर परमाणु ईरान भी उन देशों की नजर में एक खतरा है जिसकी अर्थव्यवस्था, प्रतिबंध समाप्त होने के कारण स्थिर और वाशिंगटन के साथ संबंध बहाल होने के आधार पर राजनीतिक लिहाज से भी ज्यादा शक्तिशाली हो। यह देश समझते हैं कि इससे क्षेत्र में ताक़त का संतुलन बिगड़ जाएगा।
एक युनीवर्सिटी स्कॉलर ने अपने टोईटर पेज पर ओबामा और रूहानी के बीच टेलीफोन पर बातचीत को 'बर्लिन की दीवार का विध्वंस'' बताया है जबकि ज़ायोनी शासन के एक सांसद ने दावा किया है कि ओबामा संभावित रूप से दूसरे नोबेल चेम्बरलेन हो सकते हैं। नोबेल चेम्बरलेन दूसरे विश्व युद्ध के समय ब्रिटेन के प्रधानमंत्री थे और उन पर आरोप है कि उन्होंने 1938 में नाजी जर्मनी के साथ समझौता कर लिया था।
आले सऊद के ख़ास समझे जाने वाले सऊदी अरब के प्रसिद्ध पत्रकार जमाल खशोजी कहते हैं: ''ईरान और अमेरिका के बीच संभावित गुप्त समझौते के बारे में हमें न केवल चिंता है बल्कि डर भी लग रहा है। मुझे चिंता है कि अमेरिका, ईरान को इसी हालत में कि जिसमें  इस समय है, स्वीकार कर ले और ईरानियों के लिए अतीत की तरह अपनी विस्तार पर आधारित नीतियां जारी रखना संभव हो।
न्यूयॉर्क टाइम्स ने आगे चलकर लिखा है कि सऊदी अरब और अन्य खाड़ी की सुन्नी साम्राज्यवादी हुकूमतें सर्वसम्मति से इस चिंता में हैं कि ईरान और अमेरिका के बीच संबंधों में सुधार से ईरान और उसके सहयोगी क्षेत्र में ताक़त की धुरी बन जाएंगे।
तेल अवीव युनीवर्सिटी के मध्य पूर्व अध्ययन विभाग के प्रमुख यूज़ी रब्बी कहते हैं,'' वह लोग हुकूमत भी बदल सकते हैं, लेकिन जो चीज़ नहीं बदलेगी वह इस्राइल से दुश्मनी है। उनकी (ईरानियों की) योजना का एक हिस्सा अमेरिका, यूरोप और इस्राइल के बीच एक दरार पैदा करना है। मैं यह कहना नहीं चाहता, लेकिन ईरानी जो करना चाहते हैं वह पूरे खेल का नक़्शा उलटना है।''
इस दौरान तेल अवीव और रियाद ने ओबामा और रूहानी के बीच टेलीफोन पर हुई बातचीत की खबर पर आधिकारिक तौर पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की है। ज़ायोनी शासन के प्रधानमंत्री नेयतन याहू को मंगलवार को संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करना है। इस संदर्भ में वह पूरा दिन अपना भाषण फिर से लिखने में व्यस्त रहे। गौरतलब है कि नेयतन याहू ईरान के परमाणु कार्यक्रम को बहाना बनाकर पिछले कई वर्षों से दुनिया को ईरान के खिलाफ आंदोलन और ईरान को अलग करने की कोशिश कर रहे हैं।
लेकिन इस बार ऐसा लग रहा है कि खुद ज़ायोनी शासन अपने कट्टरपंथी रुख के कारण बड़े पैमाने पर अलग होने की कगार पर है।
एक उच्च इस्राइली पद धारक का कहना है कि नेयतन याहू समझ रहे हैं कि ईरान और अमेरिका के बीच संबंधों में सुधार की संभावना से बहुत अधिक खुशी का माहौल बन चुका है नेयतन याहू जानते हैं कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लोग इस बारे में विश्वास रखते हैं। मेरे विचार से उनके बयान में ऐसे काफी तथ्य मौजूद हैं जिनसे कोई भी व्यक्ति इंकार नहीं कर सकता।
बहेरहाल इसराइल के रणनीतिक मामलों के मंत्री यूवाल स्टीव नीट्ज़ ने अपना पिछला रुख दोहराते हुए कहा:'' ईरान के संबंध में सबसे बड़ी समस्या इस देश के परमाणु हथियारों की प्राप्ति की प्रतिबद्धता है। लेकिन इश देश के हवाले से समस्याएं इससे कहीं अधिक हैं। ईरान एक शांतिप्रिय देश या सरकार नहीं है। ईरान शायद दुनिया का सबसे आक्रामक देश हो और आक्रामकता केवल इसराइल के खिलाफ नहीं है।''
सऊदी अरब और अन्य खाड़ी राज्य ईरान को क्षेत्र के अंदर से दुश्मनी रखने वाला देश समझती हैं। उनका मानना है कि परमाणु कार्यक्रम देश की ओर से अपनी शक्ति के प्रसार के प्रयासों का सिर्फ एक पहलू है। गौरतलब है कि यह देश सांप्रदायिक पूर्वाग्रह तथा दुनिया को तेल निर्यात पर ईरान के साथ प्रतिद्वंदिता का पहले से अधिक इज़हार कर रहे हैं।
सऊदी सरकार इससे पहले भी अरब क्रांतियों के प्रति अमेरिकी सरकार के रवैये पर नाराज़गी व्यक्त कर चुकी है और अब ईरान के संबंध में ओबामा के लहजे में परिवर्तन पर सऊदी सख्त गुस्से में है और यह सोच रहे हैं कि अमेरिका अपने उद्देश्य से पीछे हट रहा है।
बहेरहाल उन्हीं सभी कारणों के आधार पर मध्यपूर्व की उक्त हुकूमतें ईरान और अमेरिका के साथ संबंधों में सुधार के उपाय पर चिंता के साथ नजर रखे हुए हैं और इसको लेकर नकारात्मक रुख अपना रही हैं।

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