जल्दबाज़ी और हराम रोज़ी
जल्दबाज़ी और हराम रोज़ी
एक बार अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली (अ) ने मस्जिद में प्रवेश करते समय एक व्यक्ति के हाथों में घोड़े की लगाम दी और कहा किः मेरे वापस आने तक मेरे घोड़े का ध्यान रखना। उसके बाद आप मस्जिद में चले गए।
जब आप मस्जिद से बाहर आ रहे थे तो आपके हाथ में दो दिरहम थे और आपने सोंच रखा था कि यह दिरहम उस व्यक्ति को देंगे जो आपके घोड़े की देख रेख कर रहा है।
लेकिन जब आप बाहर आए तो आपने क्या देखा कि उस व्यक्ति का कहीं कोई अता पता नहीं है, और घोड़े की गलाम भी ग़ायब है।
आपने अपने एक दास को दो दिरहम देकर कहाः जाओ बाज़ार से लगाम ख़रीद लाओ।
दास गया तो उसके देखा कि एक दुकान पर आपके घोड़े की लगाम लटकी हुई है।
उसने दुकानदार से पूछाः यह लगाम तुमको किसने दी?
उसने कहा अभी कुछ देर पहले एक व्यक्ति यह लगाम दो दिरहम में मुझे बेचकर गया है।
दास ने दुकानदार को दो दिरहम दिए और लगाम वापस ले ली।
जब अली (अ) को इसकी ख़बर मिली तो आपने कहाः मेरा इरादा था कि मैं उसको दो दिरहम दूँ, लेकिन उसने जल्दबाज़ी करके हलाल रोज़ी को हराम कर दिया, और उसे तक़दीर से अधिक कुछ ना मिल।
यानि चोरी ना करता तब भी दो ही दिरहम मिलते चोरी की तब भी दो ही दिरहम मिले। इससे पता चलता है कि समय से पहले और क़िस्मत से अधिक किसी को कुछ नही मिलता।
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