इस्लाम में ग़रीबों का सम्मान

इस्लाम में ग़रीबों का सम्मान

अबू बसीर कहते हैं कि मै इमाम सादिक़ (अ) के पास पहुँचा और कहा कि आपका एक शिया है जो बहुत परहेज़गार और मुत्तक़ी है उसका नाम उमर है।

एक दिन वह सहायता मांगने के लिए ईसा बिन आयुन के बाद गया।

ईसा ने कहा कि मेरे पास ज़कात का पैसा है। लेकिन मैं उसमें से तुम्हें कुछ नही दूँगा। क्योंकि कुछ दिन पहले मैंने तुमको गोश्त और खजूर ख़रीदते हुए देखा हैं इसका अर्थ यह है कि तुमको आवश्यक्ता नही है और यह ज़कात के माल की बरबादी होगी।

उस व्यक्ति ने कहा कि मामला यह है कि कुछ दिन पहले मुझे कहीं से एक दिरहम मिला जिसमें से एक तिहाई का मैंने गोश्त लिया एक तिहाई का खजूर और एक तिहाई को दूसरे कार्यों में ख़र्च किया है।

जब इमाम सादिक़ (अ) ने यह वाक़्या सुना तो आप बहुत दुखी हुए और कई दिन तक आप अपने माथे पर हाथ मार के यह फ़रमाते थेः अल्लाह ने अमीरों की दौलत में ग़रीबों का हिस्सा रखा है ताकि वह अच्चा जीवन जी सकें। और अगर उस हिस्से से अनकी जीविका ना चलती हो तो उनको और अधिक देना चाहिए ताकि उनकी रोटी, कपड़ा, सदक़ा, शादी और हज आदि की आवश्यक्ताएं पूरी हो सकें।

ग़रीबों पर सख़्ती नहीं करनी चाहिए, विशेषकर उमर जैसे लोगों पर तो बिलकुल भी सख़्ती नहीं करनी चाहिए क्योंकि वह एक मुत्तक़ी और परहेज़गार इन्सान हैं।

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