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एक बार एक व्यक्ति रोटी लेकर जा रहा था उसने एक गली में एक फ़क़ीर को देखा जो बैठा रो रहा था। इस आदमी को उस पर दया आ गई उसने फ़क़ीर से पूछा कि तुम क्यों रो रहे हो?
वह कहने लगाः क्या बताऊँ मैं कई दिन से भूखा हूँ खाने का एक दाना भी नही मिला है। अब इस भूख से परेशान हो कर मैं रो रहा हूँ।
जब उसने यह सुना तो वह भी रोने लगा
फ़क़ीर ने कहाः हे अल्लाह के बंदे तू क्यों रोता है ?
उसने कहा मैं तेरी इस ग़रीबी और परेशानी पर रो रहा हूँ, तू ने कई दिन सो खाना नही खाया है।
फ़क़ीर ने कहा तुम्हे रोने की क्या आवश्यक्ता है तुम्हारे पास रोटी हैं इसमें से थोड़ी रोटी मुझे दे दो मैं खा लूँगा और मेरी भूख समाप्त हो जाएगी।
वह कहने लगा हे फ़क़ीर मैं तेरे साथ बैठकर घंटों रो तो सकता हूँ लेकिन रोटी का एक निवाला भी नही दे सकता हूँ।
यही हाल आज हमारे समाज का भी है, किसी की परेशानी पर हम टेसवे और आँसू तो बहा देते हैं लेकिन उसकी सहायता करने के लिए तैयार नही होते हैं। लेकिन याद रखिए आँसू वही अच्छे हैं जिनके साथ सहायता करने का जज़बा भी हो बरना बेकार हैं और यह आँसू केवल मगरमछ के आँसू होंगे।
याद रखिए यह समाज इन्सान के शरीर के अंगों का भाति हैं कि जब एक अंग को चोट लगती है तो दूसरों को भी दर्द होता है, अब अगर समाज में एक के दर्द को देखकर दूसरे को दर्द ना हो तो हम केवल देखने में इन्सान हैं लेकिन इन्सान कहे जाने के हक़दार नही हैं।

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