न्यायधीश का अतिथि
न्यायधीश का अतिथि
एक दिन एक व्यक्ति मेहमान बनकर इमाम अली अलैहिस्सलाम के घर आया, और कई दिनों तक आपका मेहमान बनकर आपके घर में रहा, लेकिन वह कोई सामान्य या आम अतिथि नही था, उसने अपने दिल में एक बात छिपा रखी थी जिसको उनसे किसी को नही बताया था।
अस्ल बात यह थी कि इस व्यक्ति (अतिथि) का किसी से झगड़ा हो गया था और वह इस प्रतीक्षा में था कि वह दूसरा व्यक्ति आए और इमाम अली अलैहिस्सलाम से शिकायत करे। इसी प्रकार दिन बीतते रहे। लेकिन संयोग से एक दिन स्वंय ही उसके रहस्य से पर्दा उठ गया।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने उससे पूछा क्या तेरा किसी से झगड़ा हुआ है और तुझे उससे शिकायत हैं?
उसने उत्तर दिया, जी हाँ या अमीरुल मोमिनीन।
इमाम अली (अ) ने फ़रमाया, मेरे भाई मुझे माफ़ करना अब मैं तुमको अतिथि के रूप में अपने घर पर नही रख सकता हूँ और ना ही तेरी आहो भगत कर सकता हूँ क्योंकि हमारे रसूल हज़रत मोहम्मद (स) ने फ़रमाया है कि क़ाज़ी (जज) के पास जब कोई मुक़दमा आए तो जज को यह अधिकार नही है कि किसी एक दावेदार के मेहमानदारी करे। यह उसी सूरत में सही है जब दोनों दावेदारों को अपना मेहमान बनाए
यह कहानी हमको सिखाती है कि किसी मसले में कभी भी केवल एक तरफ़ वाले की बात नही सुननी चाहिए और किसी एक की मेहमानदारी नही करनी चाहिए
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