दीन की हक़ीक़त

दूसरा सबक़

दीन की हक़ीक़त

हमने पहले सबक़ में पढ़ा कि अगर हम ख़ुदा के भेजे हुए दीन और उस के ज़रिये बनाये गये उसूल और क़ानून पर अमल करें तो दुनिया व आख़िरत में सआदत मंदी हासिल कर सकते हैं। सिर्फ़ वह शख़्स सआदत मंद और ख़ुशबख़्त है जो अपनी ज़िन्दगी को गुमराही और जिहालत में न गुज़ारे बल्कि अच्छे अख़लाक़ के साथ नेक काम अंजाम दे, दीने इस्लाम ने भी इस सआदत की तरफ़ इस अंदाज़ में दावत दी है:

1. उन सही अक़ायद का ऐहतेराम करो जिस को तुम ने अपनी अक़्ल और फ़ितरत के ज़रिये क़बूल किया है।
2. नेक और अच्छा अख़लाक़ रखो।
3. हमेशा नेक और अच्छे काम करो।

इस बुनियाद पर दीन तीन चीज़ों का मजमूआ है:
1. अक़ायद या उसूले दीन
2. अख़लाक़
3. अहकाम व अमल

1. अक़ायद व उसूले दीन

अगर हम अपनी अक़्ल व शुऊर का सहारा लें तो मालूम होगा कि इतनी बड़ी दुनिया और उस की हैरत अंगेज़ निज़ाम ख़ुद ब ख़ुद वुजूद में नही आ सकता और उसमें पाया जाने वाला यह नज़्म बग़ैर किसी नज़्म देने वाले के वुजूद में नही आ सकता बल्कि ज़रुर कोई ऐसा पैदा करने वाला है जिसने अपने ला महदूद इल्म व ताक़त और तदबीर के ज़रिये इस दुनिया को बनाया है और वही उस के निज़ाम को एक मोहकम व उस्तवार क़ानून के साथ चला रहा है, उसने कोई चीज़ बे मक़सद पैदा नही की है और दुनिया का छोटी बड़ी कोई भी चीज़ उस के क़ानून से बाहर नही है।

इसी तरह इस बात को भी नही माना जा सकता कि ऐसा मेहरबान ख़ुदा जिसने अपने लुत्फ़ व करम के ज़रिये इंसान को पैदा किया है वह इँसानी समाज को उस की अक़्ल पर छोड़ दे जो अकसर हवा व हवस का शिकार रहती है लिहाज़ा ज़रुरी है कि खु़दा ऐसे नबियों के ज़रिये कुछ उसूल व क़वानीन भेजे जो मासूम हो यानी जिन से ग़लती न होती हो और यह भी ज़रुरी है कि ख़ुदा कुछ ऐसे लोगों को आख़िरी नबी का जानशीन बनाये जो उन के बाद उन के दीन को आगे बढ़ाये और नबी की ख़ुद भी मासूम हों।

चूँकि ख़ुदा के बताए हुए रास्ते पर अमल करने या न करने की जज़ा या सज़ा इस महदूद और मिट जाने वाली दुनिया में पूरी तरह से ज़ाहिर नही हो सकती लिहाज़ा ज़रुरी है कि एक ऐसा मरहला हो जहाँ इंसान के अच्छे या बुरे कामों का ईनाम या सज़ा दी जा सके। किताब के अगले भाग में इसी के बारे में बताया जायेगा।

2. अख़लाक़

दीन हमें हुक्म देता है कि अच्छी सिफ़तों और आदतों को अपनायें, हमेशा ख़ुद को अच्छा बनाने की कोशिश करें। फ़र्ज़ शिनास, ख़ैर ख़्वाह, मेहरबान, ख़ुशमिज़ाज

और दूसरों से मुहब्बत रखने वाले बनें, हक़ की तरफ़दारी करें, ग़लत का कभी साथ न दें, कहीं भी हद से आगे न बढ़ें, दूसरों की जान, माल, ईज़्ज़त का ख़्याल रखें, इल्म हासिल करने में सुस्ती न करें, ख़ुलासा यह कि ज़िन्दगी के हर मरहले में अदालत की रिआयत करें।

3. अहकाम व अमल

दीन हमें यह भी हुक्म देता है कि हम वह काम अंजाम दें जिस में हमारी और समाज की भलाई हो और उन कामों से बचें जो इंफ़ेरादी या समाजी ज़िन्दगी में फ़साद या बुराई का सबब बनते हैं। इबादत की सूरत में ऐसे आमाल अंजाम दें जो बंदगी और फ़रमाँ बरदारी की अलामत हैं जैसे नमाज़, रोज़ा और उस के अलावा तमाम वाजिबात को अंजाम दें और तमाम हराम चीज़ों से परहेज़ करें।

यही वह क़वानीन हैं जो दीन लेकर आया है और जिस की तरफ़ हमे दावत देता है ज़ाहिर है कि उन में से बाज़ क़वानीन ऐतेक़ादी है यानी उसूले दीन से मुतअल्लिक़ हैं, बाज़ अख़लाक़ी है और बाज़ अमली हैं, दीन के यह तीनों हिस्से एक दूसरे से जुदा नही हैं बल्कि जंजीर की कड़ियों की तरह एक दूसरे से मिले हुए हैं। इन्ही क़वानीन पर अमल करके इंसान सआदत हासिल कर सकता है।

ख़ुलासा

-वह शख़्स सआदतमंद है जो अपनी ज़िन्दगी को जिहालत और गुमराही में न गुज़ारे, अच्छा अख़लाक़ रखता हो और अच्छे काम करता हो।

-दीन तीन हिस्सों में तक़सीम होता है:

1. अक़ायद या उसूले दीन

2. अख़लाक़

3. अहकाम व अमल।

-दीन के यह तीनों हिस्से एक दूसरे से जुदा नही है बल्कि जंजीर की कड़ियों की तरह एक दूसरे जुड़े हुए हैं।

सवालात

1. कौन सआदतमंद हैं?
2. दीन के कितने हिस्से हैं? मुख़्तसर बयान करें
3. क्या दीन के तीनों हिस्से एक दूसरे अलग हैं?

 

 

 

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