आशूरा के पैग़ाम

 

कर्बला के वाक़ये और हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के अक़वाल पर नज़र डालने से आशूरा के जो पैग़ाम हमारे सामने आते हैं, उनको इस तरह बयान किया जा सकता।

पैग़म्बर (स.) की सुन्नत को ज़िन्दा करना।

बनी उमैय्या की हुकूमत की कोशिश यह थी कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की सुन्नत को मिटा कर ज़मान-ए-जाहिलियत [1] की सुन्नत को जारी किया जाये। यह बात हज़रत के इस कौल से समझ में आती है कि “ मैं ऐशो आराम की ज़िन्दगी बसर करने या फ़साद फैलाने के लिए नही जा रहा हूँ। बल्कि मेरा मक़सद उम्मते इस्लाम की इस्लाह और अपने जद पैग़म्बरे इस्लाम (स.) व अपने बाबा अली इब्ने अबि तालिब की सुन्नत पर चलना है।”

 

बातिल के चेहरे पर पड़ी नक़ाब को उलटना।

बनी उमैय्या अपने इस्लामी चेहरे के ज़रिये लोगों को धोखा दे रहे थे। वाक़िय-ए-कर्बला ने उनके चेहरे पर पड़ी इस्लामी नक़ाब को उलट दिया ताकि लोग उनके असली चेहरे को पहचान सकें। साथ ही साथ इस वाक़िये ने इंसानों व मुसलमानों को यह दर्स भी दिया कि दीन का मुखोटा पहने लोगो की हक़ीक़त को पहचानना ज़रूरी है, उनके ज़ाहिर से धोखा नही खाना चाहिए।

अम्र बिल मारूफ़ को ज़िन्दा करना।

हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के क़ौल से मालूम होता है कि आपने अपने इस क़ियाम का मक़सद अम्र बिल मारूफ़ व नही अनिल मुनकर [2] को बयान फ़रमाया है। आपने एक मक़ाम पर बयान फ़रमाया कि मेरा मक़सद अम्र बिल मारूफ़ व नही अनिल मुनकर है। एक दूसरे मक़ाम पर बयान फ़रमाया कि ऐ अल्ला !  मैं अम्र बिल मारूफ़ व नही अनिल मुनकर को बहुत दोस्त रखता हूँ।

मोमेनीन को पहचानना।

आज़माइश के बग़ैर सच्चे मोमिनों, मामूली दीनदारो व ईमान के दावेदारों को पहचानना मुश्किल है। और जब तक इन सब को न पहचान लिया जाये, उस वक़्त तक इस्लामी समाज अपनी हक़ीक़त का पता नही लगा सकता।  कर्बला एक ऐसी आज़माइश गाह थी जहाँ पर मुसलमानों के ईमान, दीनी पाबन्दी व हक़ परस्ती के दावों को परखा जा रहा था। इमाम अलैहिस्सलाम ने खुद फ़रमाया कि लोग दुनिया परस्त हैं जब आज़माइश की जाती है तो दीनदार कम निकलते हैं।

इज़्ज़त की हिफ़ाज़त करना।

हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का ताल्लुक़ उस ख़ानदान से है, जो इज़्ज़त व आज़ादी का मज़हर है। इमाम अलैहिस्सलाम के सामने दो रास्ते थे एक ज़िल्लत के साथ ज़िन्दा रहना और दूसरे इज़्ज़त के साथ मौत की आग़ोश में सो जाना। इमाम ने ज़िल्लत की ज़िन्दगी को पसंद नही किया और इज़्ज़त की मौत को कबूल कर लिया। आपने ख़ुद फ़रमाया है कि इब्ने ज़ियाद ने मुझे तलवार और ज़िल्लत की ज़िन्दगी के बीच ला खड़ा किया है, लेकिन मैं ज़िल्लत को क़बूल करने वाला नही हूँ।

ताग़ूती ताक़तों से लड़ना।

इमाम अलैहिस्सलाम की तहरीक ताग़ूती ताक़तों के ख़िलाफ़ थी। उस ज़माने का ताग़ूत यज़ीद बिन मुआविया था। क्योँकि इमाम अलैहिस्सलाम ने इस जंग में पैग़म्बरे अकरम (स.) के क़ौल को सनद के तौर पर पेश किया है, कि “ अगर कोई ऐसे ज़ालिम हाकिम को देख रहा हो जो अल्लाह की हराम की हुई चीज़ों को हलाल व उसकी हलाल की हुई चीज़ों को हराम कर रहा हो, तो उस पर लाज़िम है कि उसके खिलाफ़ आवाज़ उठाये और अगर वह ऐसा न करे, तो उसे अल्लाह की तरफ़ से सज़ा दी जायेगी।”  

दीन पर हर चीज़ को कुर्बान कर देना चाहिए।

दीन की अहमियत इतनी ज़्यादा है कि उसे बचाने के लिए हर चीज़ को कुर्बान किया जा सकता है। यहाँ तक की अपने साथियों, भाईयों और औलाद को भी कुर्बान किया जा सकता है। इसी लिए इमाम अलैहिस्सलाम ने शहादत को कबूल किया। इससे मालूम होता है कि दीन की अहमियत बहुत ज़्यादा है और वक़्त पड़ने पर इस पर सब चीज़ों को कुर्बान कर देना चाहिए।

शहादत के जज़बे को ज़िन्दा करना।

जिस चीज़ पर दीन की बक़ा, ताक़त, क़ुदरत व अज़मत का दारो मदार है वह जिहाद और शहादत का जज़बा है। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने दुनिया को यह बताने के लिए कि दीन फ़क़त नमाज़ रोज़े का ही नाम नही है, यह ख़ूनी क़ियाम किया। ताकि अवाम में जज़ब-ए-शहादत ज़िन्दा हो और ऐशो आराम की ज़िन्दगी का ख़त्मा हो। इमाम अलैहिस्सलाम ने अपने एक ख़ुत्बे में इरशाद फ़रमाया कि मैं मौत को सआदत समझता हूँ। आपका यह जुम्ला दीन की राह में शहादत के लिए ताकीद है।  

अपने हदफ़ पर आखरी दम तक जमे रहना।

जो चीज़ अक़ीदे की मज़बूती को उजागर करती है वह अपने हदफ़ पर आख़री दम तक बाक़ी रहना है। इमाम अलैहिस्सलाम ने आशूरा की पूरी तहरीक में यही किया कि अपनी आख़री साँस तक अपने हदफ़ पर बाक़ी रहे और दुश्मन के सामने सर नही झुकाया। इमाम अलैहिस्सलाम ने उम्मते मुसलेमा को बेहतरीन दर्स दिया  कि कभी भी तजावुज़ करने वालों के सामने नही झुकना चाहिए।

जब हक़ के लिए लड़ो तो सब जगह से ताक़त हासिल करो।

कर्बला से, हमें यह सबक़ मिलता है कि अगर समाज में इस्लाह करनी हो या इंक़लाब बर्पा करना हो तो समाज में मौजूद हर तबक़े से मदद हासिल करनी चाहिए। तभी आप अपने हदफ़ में कामयाब हो सकते हैं। इमाम अलैहिस्सलाम के साथियों में जवान, बूढ़े, सियाह सफ़ेद, ग़ुलाम आज़ाद सभी तरह के लोग मौजूद थे।

तादाद की कमी से नही डरना चाहिए।

कर्बला अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली अलैहिस्सलाम के इस क़ौल की मुकम्मल तौर पर जलवागाह है कि “ हक़ व हिदायत की राह में अफ़राद की तादाद कम होने से नही डरना चाहिए।” जो लोग अपने हदफ़ पर ईमान रखते हैं उनके पीछे बहुत बड़ी ताक़त होती है। ऐसे लोगों को अपने साथियों की तादाद की कमी से नही घबराना चाहिए और न हदफ़ से पीछे हटना चाहिए। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अगर तन्हा भी रह जाते तब भी हक़ के दिफ़ा से न रुकते और इसकी दलील आपका वह क़ौल है जो आपने शबे आशूर अपने साथियों को मुख़ातब करते हुए फ़रमाया। कि आप सब जहाँ चाहो चले जाओ यह लोग फ़क़त मेरे......।

ईसार और समाजी तरबीयत।

कर्बला तन्हा जिहाद व शुजाअत का मैदान नही है बल्कि सामाजी तरबीयत व वाज़ो नसीहत का मरकज़ भी है। तारीख़े कर्बला में इमाम अलैहिस्सलाम का यह पैग़ाम छुपा हुआ है। इमाम अलैहिस्सलाम ने शुजाअत, ईसार और इख़लास के साये में इस्लाम को निजात देने के साथ साथ लोगों को बेदार किया और उनकी फिक्री व ईमानी सतह को भी बलन्द किया। ताकि यह समाजी व जिहादी तहरीक अपने नतीजे को हासिल कर के निजात बख़्श बन सके।

तलवार पर ख़ून की फ़तह।

मज़लूमियत सबसे अहम असलहा है। यह एहसासात को जगाता है और वाक़िये को जावेदानी (अमर) बना देता है। कर्बला में एक तरफ़ ज़ालिमों की नंगी तलवारें थी और दूसरी तरफ़ मज़लूमियत। ज़ाहेरन इमाम अलैहिस्सलाम और आपके साथी शहीद हो गये । लेकिन कामयाबी इन्हीं को हासिल हुई। इनके ख़ून ने जहाँ बातिल को रुसवा किया वहीं हक़ को मज़बूती भी अता की। जब मदीने में हज़रत इमाम सज्जाद अलैहिस्साम से इब्राहीम बिन तलहा ने सवाल किया कि कौन जीता और कौन हारा ? तो आपने जवाब दिया कि इसका फ़ैसला तो अज़ान के वक़्त होगा।

पाबन्दियों से नही घबराना चाहिए।

कर्बला का एक दर्स यह भी है कि अपने अक़ीदे व ईमान पर जमे रहना चाहिए। चाहे तुम पर फौजी व इक़्तेसादी (आर्थिक) पाबन्दियां ही क्यों न लगी हों। इमाम अलैहिस्सलाम पर तमाम पाबन्दियाँ लगायी गई थीं। कोई आपकी मदद न कर सके इस लिए आपके पास जाने वालों पर पाबन्दी थी। नहर से पानी लेने पर पाबन्दी थी। मगर इन सब पाबन्दियों के होते हुए भी कर्बला वाले न अपने हदफ़ से पीछे हटे और न ही दुश्मन के सामने झुके।

निज़ाम

हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपनी पूरी तहरीक को एक निज़ाम के तहत चलाया। जैसे बैअत से इंकार करना, मदीने को छोड़ कर कुछ महीनों तक मक्के में रहना, कूफ़े व बसरे की कुछ अहम शख़सियतों को ख़त लिखना और अपनी तहरीक में शामिल करने के लिए उन्हें दावत देना। मक्के, मिना और कर्बला के रास्ते में तक़रीरें करना वग़ैरह। इन सब कामों के ज़रिये इमाम अलैहिस्सलाम अपने मक़सद को हासिल करना चाहते थे। आशूरा के क़ियाम का कोई भी जुज़ बग़ैर तदबीर व निज़ाम के पेश नही आया। यहाँ तक आशूर की सुबह को इमाम अलैहिस्सलाम ने अपने साथियों के दरमियान जो ज़िम्मेदारियाँ तक़सीम की थीं वह भी एक निज़ाम के तहत थीं।

औरतों के किरदार से फ़ायदा उठाना।

औरतों ने इस दुनिया की बहुत सी तहरीकों में बड़ा अहम किरदार अदा किया है। अगर पैग़म्बरों के वाक़ियात पर नज़र डाली जाये तो हज़रत ईसा, हज़रत मूसा, हज़रत इब्राहीम...... यहाँ तक कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के ज़माने के वाक़ियात में भी औरतों का वुजूद बहुत असर अन्दाज़ रहा है। इसी तरह कर्बला के वाक़िये को जावेद (अमर) बनाने में भी हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा, हज़रत सकीना अलैहस्सलाम, असीराने अहले बैत और शोहदा-ए-कर्बला की बीवियों का अहम किरदार रहा है। किसी भी तहरीक के पैग़ाम को लोगो तक पहुँचाना बहुत ज़्यादा अहम होता है और इस काम को असीराने कर्बला ने अंजाम दिया।

जंग में भी यादे ख़ुदा।

जंग की हालत में भी इबादत व अल्लाह के ज़िक्र को नही भूलना चाहिए। जंग के मैदान में भी इबादत व यादे खुदा ज़रूरी है। इमाम अलैहिस्सलाम ने शबे आशूर की जो मोहलत दुश्मन से ली थी, उसका मक़सद क़ुरआने करीम की तिलावत करना, नमाज़ पढ़ना और अल्लाह से मुनाजात करना था। इसी लिए आपने फ़रमाया था कि मैं नमाज़ को बहुत ज़्यादा दोस्त रखता हूँ। शबे आशूर आपके खेमों से पूरी रात इबादत व मुनाजात की आवाज़ें आती रहीं। आशूर के दिन इमाम अलैहिस्सलाम ने नमाज़े जोहर को अव्वले वक़्त पढ़ा। यही नही बल्कि इस पूरे सफ़र में  हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा की नमाज़े शब भी कज़ा न हो सकी भले ही आपको नमाज़ बैठ कर पढ़नी पड़ी हो।   

अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा करना।

सबसे अहम बात यह है कि इंसान को अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा करना चाहिए। चाहे उसे ज़ाहिरी तौर पर कामयाबी मिले या न मिले। यह भी याद रखना चाहिए कि सबसे बड़ी कामयाबी अपनी ज़िम्मेदारी को पूरा करना है, चाहे नतीजा कुछ भी हो। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने भी अपने कर्बला के सफ़र के बारे में यही फ़रमाया कि जो अल्लाह चाहेगा बेहतर होगा। चाहे मैं क़त्ल हो जाऊँ, या मुझे (बग़ैर क़त्ल हुए) कामयाबी मिल जाये। 

मकतब की बक़ा के लिए कुर्बानी।

दीन के मेयार के मुताबिक़ मकतब की अहमियत, पैरवाने मकतब से ज़्यादा है। मकतब को बाक़ी रखने के लिए हज़रत अली अलैहिस्सलाम व हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम जैसी मासूम शख़्सियतों ने भी अपने ख़ून व जान को फिदा किया हैं। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम जानते थे कि यज़ीद की बैअत दीन के अहदाफ़ के ख़िलाफ़ है लिहाज़ा बैअत से इंकार कर दिया और दीनी अहदाफ़ की हिफ़ाज़त के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी, और उम्मते मुसलेमा को समझा दिया कि मकतब की बक़ा के लिए मकतब के चाहने वालों की कुर्बानियाँ ज़रूरी है। यह क़ानून आपके ज़माने से ही मख़सूस नही है बल्कि हर ज़माने के लिए है।

अपने रहबर की हिमायत

कर्बला अपने रहबर की हिमायत की सबसे अज़ीम जलवागाह है। इमाम अलैहिस्सलाम ने अपने साथियों के सरों से अपनी बैअत को उठा लिया था और फ़रमाया था जहाँ तुम्हारा दिल चाहे चले जाओ। मगर अपके साथी आपसे जुदा नही हुए और आपको तन्हा न छोड़ा। शबे आशूर आपकी हिमायत के सिलसिले में हबीब इब्ने मज़ाहिर और ज़ुहैर इब्ने क़ैन वग़ैरह की बात चीत क़ाबिले तवज्जोह है। यहाँ तक कि आपके असहाब ने मैदाने ज़ंग में जो रजज़ पढ़े उससे भी अपने रहबर की हिमायत ज़ाहिर होती है। जैसे हज़रत अब्बास अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि अगर तुमने मेरा दाहिना हाथ जुदा कर दिया तो कोई बात नही, मैं फिर भी अपने इमाम व दीन की हिमायत करूँगा।

मुस्लिम इब्ने औसजा ने आखिरी वक़्त में जो हबीब को वसीयत की वह भी यही थी कि इमाम को तन्हा न छोड़ना और इन पर अपनी जान क़ुर्बान कर देना।

दुनिया की मुहब्बत सबसे ज़्यादा ख़तरनाक है।

दुनिया के ऐशो आराम व मालो दौलत से मुहब्बत तमाम लग़ज़िशों व फ़ितनो की जड़ है। जो लोग मुनहरिफ़ हुए या ज़िन्होने अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा नही किया उनके दिलों में दुनिया की मुहब्बत समायी हुई थी। यह दुनिया की मुहब्बत ही तो थी जिसने इब्ने ज़ियाद व उमरे सअद को इमाम हुसैन का खून बहाने पर मजबूर किया। लोगों ने शहरे रै की हुकूमत के लालच और अमीर से मिलने वाले ईनामों की इम्मीद पर इमाम अलैहिस्सलाम का ख़ून बहा दिया। यहां तक कि जिन लोगों ने आपकी लाश पर घोड़े दौड़ाये उन्होंने भी इब्ने ज़ियाद से अपनी इस करतूत के बदले ईनाम माँगा। शायद इसी लिए इमाम अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया था कि लोग दुनिया परस्त हो गये हैं दीन फ़क़त उनकी ज़बानो तक रह गया है। खतरे के वक़्त वह दुनिया की तरफ़ दौड़ने लगते हैं। चूँकि इमाम अलैहिस्सलाम के साथियों के दिलों में दुनिया की ज़रा भी मुहब्बत नही थी इस लिए उन्होंने बड़े आराम के साथ अपनी जानों को राहे ख़ुदा में क़ुर्बान कर दिया। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने आशूर के दिन सुबह के वक़्त जो ख़ुत्बा दिया उसमें भी दुश्मनों से यही फ़रमाया कि तुम दुनिया के धोखे में न आ जाना।

तौबा का दरवाज़ा हमेशा खुला रहता है।

तौबा का दरवाज़ा कभी भी बन्द नही होता, इंसान जब भी तौबा कर के सही रास्ते पर आ जाये बेहतर है। हुर जो इमाम अलैहिस्सलाम को घेर कर कर्बला के मैदान में लाया था, आशूर के दिन सुबह के वक़्त बातिल रास्ते से हट कर हक़ की राह पर आ गया। हुर इमाम अलैहिस्सलाम के क़दमों पर अपनी जान को कुर्बान कर के कर्बला के अज़ीम शहीदों में दाख़िल हो गया। इससे मालूम होता है कि हर इंसान के लिए हर हालत में और हर वक़्त तौबा का दरवाज़ा खुला है।

आज़ादी

कर्बला आज़ादी का मकतब है और इमाम अलैहिस्सलाम इस  मकतब के मोल्लिम हैं। आज़ादी वह अहम चीज़ है जिसे हर इंसान पसन्द करता है। इमाम अलैहिस्सलाम ने उमरे सअद की फौज से कहा कि अगर तुम्हारे पास दीन नही है और तुम क़ियामत के दिन से नही डरते हो तो कम से कम आज़ाद इंसान बन कर तो जियो।

जंग में पहल नही करनी चाहिए।

इस्लाम में जंग को औलवियत (प्राथमिकता) नही है। बल्कि जंग, हमेशा इंसानों की हिदायत की राह में आने वाली रुकावटों को दूर करने के लिए की जाती है। इसी लिए पैग़म्बरे इस्लाम (स.) हज़रत अली अलैहिस्सलाम व इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने हमेशा यही कोशिश की, कि बग़ैर जंग के मामला हल हो जाये। इसी लिए आपने कभी भी जंग में पहल नही की। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने भी यही फ़रमाया था कि हम उनसे जंग में पहल नही करेंगे।

इंसानी हुक़ूक़ की हिमायत

कर्बला जंग का मैदान था मगर इमाम अलैहिस्सलाम ने इंसानों के माली हुक़ूक़ की मुकम्मल हिमायत की। कर्बला की ज़मीन को उनके मालिकों से खरीद कर वक़्फ़ किया। इमाम अलैहिस्सलाम ने जो ज़मीन ख़रीदी उसका हदूदे अरबा (क्षेत्र फ़ल) 4x 4 मील था। इसी तरह इमाम अलैहिस्सलाम ने आशूर के दिन फ़रमाया कि ऐलान कर दो कि जो इंसान कर्ज़दार हो वह मेरे साथ न रहे।

अल्लाह से हर हाल में राज़ी रहना।

इंसान का सबसे बड़ा कमाल हर हाल में अल्लाह से राज़ी रहना है। इमाम अलैहिस्सलाम ने अपने ख़ुत्बे में फ़रमाया कि हम अहले बैत की रिज़ा वही है जो अल्लाह की मर्ज़ी है। इसी तरह आपने ज़िन्दगी के आख़री लम्हे में भी अल्लाह से यही मुनाजात की कि ऐ पालने वाले ! तेरे अलावा कोई माबूद नही है और मैं तेरे फैसले पर राज़ी हूँ।      

[1] अरब का इस्लाम से पूर्व का समय

[2] इंनसानों में अच्छे काम करने का शौक़ पैदा करना और बुरे कामों से रोकना।

 

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