आशूरा के बरकात व समरात

आशूरा के बरकात व समरात

आशूरा के बरकात व समरात

इस्लाम की फ़तह हुई और मिटने से महफ़ूज़ रहा क्योकि मंसबे इलाही पर ख़ुद ग़ासिब ख़ुद साख़्ता यज़ीद ने अपने शैतानी करतूतों से इस्लाम के नाम पर इस्लाम को इतना मुशतबह कर दिया था कि हक़ीक़ी इस्लाम की शिनाख़्त मुश्किल हो गई थी क़ोमार बाज़ी, शराब ख़ोरी, नशे का इस्तेमाल, कुत्तों को साथ रखना, रक़्स और ऐश व नोश की महफ़िलों का इनऐक़ाद, ग़ैर इस्लामी शआयर की इशाअत, रिआया पर ज़ुल्म व जौर, हुक़ूक़े इंसानी की पायमाली, लोगों के नामूस की बेहुरमती वग़ैरह जैसे बाज़ ऐसे नमूने हैं कि जो यज़ीद ने हाकिमे इस्लामी के उनवान से अपनी रोज़मर्रा का मामूल बना रखा था और लोग उसी को इस्लाम समझते थे। इमाम हुसैन (अ) ने अपने क़याम के ज़रिये हक़ीक़ी इस्लाम को यज़ीदी इस्लाम से जुदा करके अलग पहचनवाया और दुनिया पर यह वाज़ेह कर दिया कि यज़ीद इस्लाम के लिबास में सबसे बड़ी इस्लाम दुश्मन ताक़त है। अहले बैते अतहार की शिनाख़्त इस उम्मत के मिसाली रहबर के उनवान से हुई। पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बाद अगरचे मुसलमानो की तादाद कई गुना ज़्यादा बढ़ गई थी लेकिन वक़्त गुज़रने के साथ साथ ना मुनासिब क़यादत और गैर सालेह नाम नेहाद रहबरी की वजह से मुसलमान अस्ल इस्लाम से दूर होते गये, मफ़ाद परस्त हाकिमों ने अपने ज़ाती मनाफ़े के तहफ़्फ़ुज़ की ख़ातिर हलाले मुहम्मद को हराम और हरामे मुहम्मद को हलाल क़रार दे दिया और इस्लाम में बिदअतों का सिलसिला शुरु कर दिया। तारीख़ गवाह है कि सिर्फ़ 25 साल रेहलते पैग़म्बर (स) को गुज़रे थे कि जब हज़रत अली (अ) ने मस्जिदे नबवी में सन् 35 हिजरी में नमाज़ पढ़ाई तो लोग तअज्जुब से कहने लगे कि आज ऐसा लगा कि ख़ुद पैग़म्बर (स) के पीछे नमाज़ पढ़ी हो लेकिन 61 हिजरी में अब नमाज़ का तसव्वुर ही ख़त्म हो गया था। ऐसे में पैग़म्बरे अकरम (स) के हक़ीक़ी जानशीन ने मैदाने करबला में तीरों तलवारों और नैज़ों की बारिश में, तीरों के मुसल्ले पर नमाज़ क़ायम करके अपनी सालेह रहबरी और इस्लाम दोस्ती का सुबूत दे दिया और यह वाज़ेह कर दिया कि इस्लाम का हक़ीक़ी वारिस हर वक़्त और हर आन इस्लाम की हिफ़ाज़त के लिये हर तरह की कुर्बानी दे सकता है। इमामत की मरकज़ीयत पर शियों को ऐतेक़ाद मुसतहकम हो गया। दुश्मनों के प्रोपगंडों और ग़लत तबलीग़ाती यलग़ार ने बाज़ शियों के ऐतेक़ादात पर ग़ैर मुसतक़ीम तौर पर गहरा असर डाल रखा था हत्ता कि बाज़ लोग इमाम (अ) को मशवरा दे रहे थे कि आप ऐसा करें और ऐसा न करें। बाज़ लोगों की नज़र में इमाम (अ) की अहमियत कम हो गई थी। इमाम हुसैन (अ) के मुसलेहाना क़याम ने साबित कर दिया कि क़ौम की रहबरी का अगर कोई मुसतहिक़ है तो वक़्त का इमाम है जो जानता है कि किस वक़्त कौन सा इक़दाम करे और किस तरह से इस्लाम असील को मिटने से बचाये। लोगों को आगाह रखने के लिये मिम्बर वअज़ जैसा इत्तेलाअ रसानी का एक अज़ीम और वसीअ निज़ाम क़ायम हुआ। मजालिसे अज़ादारी की सूरत में हर जगह और हर आन एक ऐसी मीडिया सेल वुजूद में आ गई जिसने हमेशा दुश्मनो की तरफ़ से होने वाली मुख़्तलिफ़ साज़िशों, प्रोपगंडों और सक़ाफ़ती यलग़ार से आगाह रखा और साथ साथ हक़ व सदाक़त का पैग़ाम भी लोगों तक पहुचता रहा। आशूरा, ज़ुल्म, ज़ालिम, बातिल और यज़ीदीयत के ख़िलाफ़ इंक़ेलाब को आग़ाज़ था। इमाम हुसैन (अ) ने यज़ीद से साफ़ साफ़ कह दिया था ''मिसली या उबायओ मिसला यज़ीद'' मुझ जैसा तुझ जैसे की बैअत नही कर सकता। यानी जब भी यज़ीदीयत सर उठायेगी तो हुसैनीयत उसके मुक़ाबले में डट जायेगी। जब भी यज़ीदीयत इस्लाम को चैलेंज करेगी तो हुसैनीयत इस्लाम को सर बुलंद रखेगी और यज़ीदीयत को नीस्त व नाबूद करेगी। यही वजह है कि आशूरा के बाद मुख़्तलिफ़ ज़ालिम हुक्मरानों के ख़िलाफ़ मुतअद्दिद इंक़ेलाब रू नुमा हुए और बातिल के ख़िलाफ़ रू नुमा होने वाले कामयाब तरीन इंक़ेलाब में ईरान का इस्लामी इंक़ेलाब है जिसने 2500 साला आमरियत को जड़ से उखाड़ फेंका। यह गिरया व अज़ादारी, रोना और रुलाना, मजालिस, ज़िक्रे मुसीबत, मरसिया, नौहा वग़ैरह की शक्ल में पेश की जाती है।

इंक़ेलाब के अज़ीम रहबर इमाम ख़ुमैनी ने साफ़ साफ़ फ़रमाया कि हमारे पास जो कुछ है सब इसी मुहर्रम व सफ़र की वजह से है लिहाज़ा यह इस्लामी इंक़ेलाब, आशूरा का एक बेहतरीन और वाज़ेह तरीन समरा है जो वक़्त के यज़ीदो के लिये एक बहुत बड़ा चैलेंज बन गया है जिसको मिटाने के लिये इस वक़्त पूरी दुनिया मुत्तहिद हो गई है। लेकिन हमारा अक़ीदा है कि यह इंक़ेलाब हज़रत इमाम मेहदी (अ) के इँक़ेलाब का मुक़द्दमा है और यह इंक़ेलाब, इंक़ेलाबे इमाम मेहदी (अ) से मुत्तसिल हो कर रहेगा। इंशा अल्लाह तआला।

 

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