एक और आशूरा
एक बार फिर मुहर्रम और आशूरा आने वाला है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत (बलिदान) से लेकर आज तक हज़ार से ज़्यादा बार आशूरा आ चुका है और हर बार मकतबे आशूरा की नई तालिमात बयान और आपके मानने वालों के सामने पेश की जाती हैं और इस तरह यह इंकेलाब (क्राँति) आज तक ज़िन्दा है और इस की चमक से आँखें चकाचौन्ध हैं। तमाम क़ौमें इस दिन में शहीद होनी वाली शख़्सीयत के सामने अपने सरों को झुकाती हैं और इस मकतब के मानने वाले अपनी दुनिया व आख़िरत के लिये ज़ादे राह (मार्ग व्यय) इकठ्ठा करते हैं। हम उस वक्त ख़ुद को आशूरा वाला कह सकते हैं जब हम उसकी राह में उसके मक़सद को पूरा करने की ख़ातिर किसी भी तरह की कोशिशों से न बचें और इस हुसैनी अमानत, बल्कि अमानते इलाही को सही सालिम, असरदार और हर तरह की तहरीफ़ (फेर बदल) से बचा कर अपनी आने वाली नस्लों तक पहुचायें। हाँ यह काम उस वक़्त पूरा हो सकता है जब हममें से मैं और तुम ख़त्म हो जाये और सिर्फ़ हमारा मक़सद अल्लाह हो जाये। अल्लाह के इंसाफ़ का डर अगर अल्लाह हमारी नेकियों और अच्छे आमाल (कर्मों) का बारीकी से हिसाब करे और ज़र्रा बराबर भी न छोड़े तो बहुत ख़ुश करने वाली बात है लेकिन अगर वह गुनाह (पाप) का इसी तरह हिसाब कर ले तो ज़ाहिर है कि गुनाहगार (पापी) इंसान की क्या हालत होगी। यह भी मालूम होना चाहिये कि अल्लाह इंसान को सिर्फ़ एक बार नही जलायेगा ताकि उसका काम हो जाये बल्कि मौत और मुसीबत की हज़ारों वजहें जमा होगीं और इंसान को अपने घेरे में ले लेगीं फिर भी वह मरेगा नही बल्कि अज़ाब (पाप का सज़ा) झेलता रहेगा। क़ुरआने करीम में जहन्नम के बारे में ऐसी चीज़ें बयान हुई हैं कि अगर इंसान ज़र्रा बराबर भी फ़िक्र करे तो उसकी रातों की नींद उसकी आँखों से उड़ जायेगी। (و یاتیہ الموت من کل مکان وما ھو بمیت) और मौत हर तरफ़ से उसे घेर लेगी उसके बावजूद वह मरेगा नही। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का मक़ाम व मरतबा इतना बुलंद है कि बुज़ुर्ग उलामा और बुज़ुर्गाने शहर उसमें शिरकत और ख़िदमत (सेवा) करना फ़ख़्र (गर्व) समझते हैं। जैसे हर साल कर्बला में आशूर के दिन मातमी दस्ते अज़ा ए तूरीज[1] के नाम से जुलूस निकालते थे जिसमें सैयद बहरूल उलूम[2] शरीक होते थे। आप फ़रमाते थे मैने इमाम ज़माना (अज्जल्लाहो फरजहुश शरीफ़) को इसमें देखा है। यह मातमी दस्ता जब तक मैं कर्बला (33 साल पहले) में था हर साल जुलूस उठाता था, हज़ारों लोग इसमें शिरकत करते थे और नंगे पैर दौड़ते और मातम करते थे। मैंने अकसर मराजे ए तक़लीद (शियों के सबसे बड़े धर्म गुरु) को देखा है कि वह नंगे पैर सर पीटते हुए या हुसैन या हुसैन करते थे। इसमें शरीक होने वालो में वज़ीर, वकील और रईस लोग शामिल हैं। अज़ादाराने हुसैनी अगर पैग़म्बरे इस्लाम (स) ज़िन्दा होते तो हम उन्हे ताज़ियत (पुरसा) पेश करते। उसी किताब में आया है कि तमाम क़ातिलाने इमाम हुसैन (अ) क़त्ल किये गये और कोई भी अपनी मौत से नही मरा। इमाम सादिक़ (अ) फ़रमाते हैं कि उनमें से सब क़त्ल किये गये।[6] लेकिन उनका क़त्ल हो जाना काफ़ी नही है और अल्लाह इतने पर बस नही करेगा इसलिये कि इमाम हुसैन (अ) को अल्लाह ने बहुत ऊचा मक़ाम दे रखा है और ऐसी वारदात के इंतेक़ाम के लिये मौत काफ़ी नही है। यह एक ऐसी बात है जिसका शिया, सुन्नी, ईसाई सब ऐतेराफ़ करते हैं। आशूरा का सदक़ा एक दूसरा मतलब जिसकी तरफ़ तवज्जो करनी चाहिये वह अल्लाह की तरफ़ से इमाम हुसैन (अ) की ख़िदमत के बदले में दी जाने वाली नेमत है। लिहाज़ा हमें दूसरी सारी नेमतों की तरह इस नेमत को भी ग़नीमत समझना चाहिये और उसे हाथ से नही जाने देना चाहिये इसलिये कि बाद में उसकी हसरत करेगें कि क्यों हमने उससे फ़ायदा नही उठाया। जबकि उस वक़्त का पछतावा कोई काम नही आयेगा। जो भी हज़रत की राह में ख़िदमत में ज़्यादा ज़हमत उठायेगा और अपने आराम और नींद को आपकी और आपके चाहने वालों की ख़िदमत के लिये ज़्यादा वक्फ़ करेगा और ज़्यादा सख़्तियाँ बर्दाश्त करेगा, वह ज़्यादा ईनाम पायेगा। एक बेहतरीन मिसाल जो हमारे मौज़ू से मुनासिबत रखती है, वह ख़्वाब है जो दो शिया फ़ोक़हा से नक़्ल हुआ है।[10] उन दो फ़ोक़हा में से एक शेख़ अँसारी हैं, जिन के इल्म से तमाम हौज ए इल्मिया को 150 साल से ज़्यादा फ़ायदा उठाते हुए हो रहा है और दूसरे दरबंदी मरहूम हैं। यह दोनो हज़रात जवानी में एक साथ थे और शरीफ़ुल उलामा ए माज़िन्दरानी के दर्स में शरीक होते थे बाद में दोनो मरजए तक़लीद के मर्तबे तक पहुचे, उस ज़माने में नव्वे फ़ी लोग शेख़ अंसारी और दस फ़ी सद मरहूम दरबंदी की तक़लीद करते थे। एक दिन शेख़ अंसारी के एक शागिर्द, जो उनके अच्छे शागिर्दों में होने के अलावा फ़ज़ीलत इल्मी के साथ साथ तक़वे में भी शोहरत रखते थे, ने ईरान सफ़र करने की इजाज़त चाही। आप नंगे पैर शहर के बाहर तक उन्हे रुख़सत करने आये, उस शागिर्द को कर्बला, काज़मैन, सामर्रा से होते हुए ईरान जाना था लेकिन अगले दिन कर्बला पहुचने से पहले ही लौट आये। उस ज़माने में शेख अँसारी भी और मरहूम दरबंदी भी दोनो ज़िन्दा थे, शेख़ अँसारी नजफ़ में थे और मरहूम दरबंदी कर्बला में, मरहूम दरबंदी मरजए तक़लीद होने के बावजूद इमाम हुसैन (अ) के लिये हमेशा मजलिसें पढ़ा करते थे। साल में एक बार वह एक ख़ास मजलिस पढ़ा करते थे जिसके कुछ वाक़ये मैने दो वास्तो़ से एक ऐसे शख्स से ख़ुद सुने हैं जो उस मजलिस में मौजूद था। वह मजलिस आशूर के दिन इमाम हुसैन (अ) के रौज़े के सहन में हुआ करती थी, आशूर के दिन ज़ोहर से पहले और सारी मजलिसें ख़त्म हो जाने के बाद आपकी मजलिस के लिये सहन लोगों से भर जाता था, वह लोगों से कहते कि मैं मजलिस नही पढ़ना चाहता, आपने कल से लेकर आज तक बहुत मजलिसें सुनी हैं मैं सिर्फ़ आपकी ज़बानी इमाम हुसैन (अ) से बातें करना चाहता हूँ। यह मजलिस अपनी मिसाल आप थी। मरहूम दरबंदी की एक मुफ़स्सल किताब इमाम हुसैन (अ) पर है जिसका नाम इकसीरुल इबादात है अगरचे आपकी मरजईयत शेख़ अंसारी की तरह नही थी, शेख अंसारा का यह शागिर्द दोनो को पहचानता था और उस सच्चे ख़्वाब में उसने मरहूम दरबंदी के महल को ज़्यादा शानदार देखा था, वह कहता है कि मैंने उस फ़रिश्ते से पूछा कि ऐसा क्यो हैं जबकि शेख़ अंसारी का महल ज़्यादा शानदार होना चाहिये। उसने जवाब दिया कि यह दरबंदी के अमल का सिला नही है बल्कि दरबंदी के लिये इमाम हुसैन (अ) की तोहफ़ा है। सैयदुश शोहदा (अलैहिस्सलाम) लोगों का हिसाब करेगें। इमाम सादिक़ (अलैहिस्सलाम) से हदीस में नक़्ल हुआ है कि [11] क़यामत से पहले लोगों के आमाल का हिसाब करने वाले का नाम हुसैन इब्ने अली है। इस बात पर तवज्जो रहनी चाहिये कि क़यामत का दिन जन्नत व जहन्नम जाने का दिन है। इमाम (अलैहिस्सलाम) ने फ़रमाया: अगर कोई हमारी राह में डरता हो तो दो ऐसी नेमतों से जिससे दूसरे महरूम होगें, फ़ायदा उठायेगा। एक यह कि क़यामत में सब डर के मारे बेक़रार होंगें और जो लोग इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) का राह में डरते होगें, अमान में होगें और डर से निजात पा चुके होगें, दूसरे यह कि क़यामत में गुफ़तगू करने वाले इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) होगें। यह ख़ुद पाक ज़मीर लोगों के लिये सबसे बड़ी नेमत और इफ़्तेखार होगा। क़ुरआन में हमने पढ़ा है इरशाद होता है कि[12] ऐसा दिन जो पचास हज़ार साल के बराबर होगा। शायद किसी के ज़हन में यह बात आये कि क्या ऐसा हो सकता है? तो हम यह कह सकते है कि अल्लाह तअला इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) के लिये औरों से कुछ ज़्यादा का क़ायल है और वह किसी के लिये भी ऐसा नही है यहाँ तक कि चौदह मासूमीन के लिये भी नही। जैसे जैसे बहुत से अमल बहुत सी जगह पर मकरूह है मगर इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) के लिये मुसतहब, फ़ज़ीलत और सवाब में शुमार किया गया है जैसे बहुत सी हदीसों के मुताबिक़ बग़ैर जूते या चप्प्ल के नंगे पाव चलना मकरूह है चाहे जगह साफ़ सुथरी हो और दूसरे यह कि वह लोग जिनका लिबास मख़सूस है जैसे अहले क़लम कि उनका लिबास अबा या रिदा है, उनके लिये उसके बग़ैर बाहर निकलना मकरूह है यह दोनो चीज़ें पूरे साल मकरूह हैं लेकिन अब्दुल्लाह इब्ने सेनान की सही हदीस के मुताबिक़, जिसे शेख़ अब्बास क़ुम्मी ने मफ़ातिहुल जेनान में, अल्लामा मजलिसी ने बेहार में और मरहूम अख़वी[15] ने अद दुआ वज़ ज़ियारह में आशूरा की बहस में नक़्ल किया है, जो पूरे साल अबा पहनता है उसे आशूर के दिन उसे उतार देना चाहिये और जो पूरे साल जूते पहनता है उसे उस दिन जूते उतार देने चाहियें। [1] - तूरीज करबला से दस किलो मीटर के फ़ासले पर एक जगह है जहाँ से हर साल आशूर के दिन अज़ादार नंगे पाँव करबला तक पैदल जुलूस की शक्ल में या हुसैन या हुसैन करते हुए और मातम करते हुए इमाम हुसैन (अ) के रौज़े तक आते हैं। [2] - सैयद मुहम्मद मेहदी इब्ने मुर्तज़ा बहरूल उलूम (1155 से 1212) बुज़ुर्ग उलामा में से और ज़ोहद व तक़वे में मशहूर थे। वह वहीद बहबहानी के शागिर्द हैं और 57 साल की उम्र में आपका इंतेक़ाल हुआ, नजफ़े अशरफ़ में शेख़ तूसी की कब्र के पास दफ़न हैं। [3] - बेहारुल अनवार जिल्द 45 पेज 63 हदीस 3 (सैयद रज़ी ने इस हदीस के मज़मून को करबला नामी अपने क़सीदे में ज़िक्र किया है। [4] - इस तरह कि एक हदीस किताबे काफ़ी की जिल्द 3 पेज 45 पर नक़्ल हुई है। [8] - बेहारुल अनवार जिल्द 44 पेज 278 हदीस 4 बाब 34, अमाली ए शेख़ मुफ़ीद पेज 238 हदीस 3 मजलिस 40, अमाली ए शेख़ तूसी पेज 115 हदीस 178 मजलिस 4. [9] - ख़्वाब मेयार नही है मगर कभी कभी हदीसों में ख़्वाब को ......कहा गया है। (रौज़तुल काफ़ी जिल्द 8 पेज 90 हदीस 59) [10] - बेहारुल अनवार जिल्द 53 पेज 43 बाब 29 हदीस 13 [11] - सूरह मआरिज आयत 4 [12] - नहजुल बलाग़ा ख़ुतबा 20 [13] - उसूले काफ़ी जिल्द 8 पेज 58 14] - आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद मुहम्मद हुसैनी शीराज़ी |
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